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SC ST act case : बॉम्बे हाईकोर्ट ने अस्पताल कर्मचारियों को दी अग्रिम जमानत - अस्पताल के कर्मचारियों को जमानत

बॉम्बे हाईकोर्ट ने साेमवार काे एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि कोई अपराध तब तक नहीं माना जाएगा जब तक यह नहीं दिखाया जाता कि मृतक शरीर को केवल जाति के कारण कस्टडी में रखा गया.

बॉम्बे हाईकोर्ट
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Published : Oct 18, 2021, 5:30 PM IST

मुंबई : बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अस्पताल के कर्मचारियों को अग्रिम जमानत दी, जिन पर कथित तौर पर शिकायतकर्ता, अन्य लोगों (जो अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्य हैं) के रिश्तेदार का शव कस्टडी में रखने का आरोप लगाया गया है. इसके साथ ही अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम (SC/ST Act) के तहत मामला दर्ज किया गया है.

अस्पताल के बिल को पूरा नहीं भरने के कारण शव को कस्टडी में रखा गया था. न्यायमूर्ति संदीप के शिंदे की खंडपीठ ने कहा कि मृत शरीर को कस्टडी में रखना एससी / एसटी अधिनियम 1989 के तहत अपराध नहीं माना जाएगा जब तक कि यह नहीं दिखाया जाता है कि शरीर अस्पताल प्रशासन/कर्मचारियों द्वारा केवल इसलिए कस्टडी में लिया गया क्योंकि मृतक अनुसूचित जाति का था.

कोर्ट ने आगे कहा कि यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि शव को अस्पताल प्रशासन द्वारा केवल इसलिए अपनी कस्टडी में लिया गया था क्योंकि शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति से संबंधित था. इसके अलावा प्रथम सूचना रिपोर्ट में यह नहीं है कि अपीलकर्ता या अस्पताल प्रशासन जानता था कि मृतक अनुसूचित जाति से संबंधित था. तथ्य के मुताबिक शिकायतकर्ता के मामा COVID-19 से पीड़ित थे और उन्हें प्रकाश अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया था, जहां लगभग 16 दिनों के बाद उन्होंने दम तोड़ दिया.

अस्पताल द्वारा शिकायतकर्ता को अपने मामा के शव को ले जाने के लिए औपचारिकताएं पूरी करने और लंबित बिलों का भुगतान करने के लिए कहा गया था. शिकायतकर्ता द्वारा आरोप लगाया गया कि अस्पताल के कर्मचारियों / अपीलकर्ताओं द्वारा अतिरिक्त शुल्क की अनुचित मांग की गई और इसके साथ ही अतिरिक्त शुल्क का भुगतान नहीं करने पर अस्पताल के कर्मचारियों द्वारा शव को कस्टडी में ले लिया गया. अपीलकर्ताओं ने शिकायतकर्ता और उसके परिवार को अपमानित किया.

आरोपों के मद्देनजर अस्पताल के कर्मचारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी. अपनी गिरफ्तारी की आशंका में, अपीलकर्ताओं ने पहले विशेष न्यायाधीश (अत्याचार अधिनियम) के समक्ष अग्रिम जमानत की मांग की. हालांकि जब इन लोगों को निचली अदालत में राहत देने से इनकार कर दिया गया, तो उच्च न्यायालय का रूख किया.

अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि अनिवार्य रूप से शिकायतकर्ता और अस्पताल प्रशासन के बीच विवाद अस्पताल के लंबित बिल के कारण उत्पन्न हुआ और इस कारण से कि परिवार के सदस्य शव को COVID प्रोटोकॉल के खिलाफ ले जाने पर जोर दे रहे थे. यह आगे प्रस्तुत किया गया कि न तो शिकायत और न ही परिस्थितियों का अर्थ यह है कि शिकायतकर्ता के शव को जानबूझकर शिकायतकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों को अपमानित करने के लिए कस्टडी में लिया गया था क्योंकि वे अनुसूचित जाति के थे.

दूसरी ओर, शिकायतकर्ता के वकील द्वारा यह तर्क दिया गया कि अस्पताल के बिल का अनुचित निपटान नहीं करने के लिए शव को कस्टडी में लेना, शिकायतकर्ता और उसके असहाय परिवार के सदस्यों का अपमान और धमकाना था, जो शव को प्राप्त करने के लिए लगभग दस घंटे से इंतजार कर रहे थे.

न्यायालय की टिप्पणियां कोर्ट ने शुरुआत में इस बात पर जोर दिया कि एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(आर) अपमान या डराने-धमकाने के ऐसे कृत्य को दंडित करती है, जो किसी ऐसे व्यक्ति की जाति या जनजाति के लिए जिम्मेदार है, जिसका अपमान किया गया था. इसे ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने मामले के तथ्यों और दोनों पक्षों की दलीलों को ध्यान में रखा और उसके बाद देखा कि मृतक शरीर को कस्टडी में रखना ही अधिनियम के तहत अपराध नहीं होगा जब तक कि यह नहीं दिखाया जाता है कि अपीलकर्ता यह जानते थे कि शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति का था और दूसरी बात शव को केवल इसलिए कस्टडी में लिया गया क्योंकि मृतक अनुसूचित जाति का था.

न्यायालय ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि विवाद अस्पताल के लंबित बिलों के कारण उत्पन्न हुआ और शिकायतकर्ता या मृतक का अपमान करने का कोई इरादा नहीं था, केवल इसलिए कि वे अनुसूचित जाति के थे.

पढ़ें : दिल्ली दंगा: आरोपी को अनावश्यक प्रताड़ित करने के लिए पुलिस पर लगा जुर्माना

अदालत ने अपीलकर्ताओं को 25,000 रुपये का निजी बॉन्ड भरने और इतनी ही राशि का एक या एक से अधिक जमानतदार पेश करने की शर्त पर अग्रिम जमानत देने का निर्देश दिया.

मुंबई : बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अस्पताल के कर्मचारियों को अग्रिम जमानत दी, जिन पर कथित तौर पर शिकायतकर्ता, अन्य लोगों (जो अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्य हैं) के रिश्तेदार का शव कस्टडी में रखने का आरोप लगाया गया है. इसके साथ ही अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम (SC/ST Act) के तहत मामला दर्ज किया गया है.

अस्पताल के बिल को पूरा नहीं भरने के कारण शव को कस्टडी में रखा गया था. न्यायमूर्ति संदीप के शिंदे की खंडपीठ ने कहा कि मृत शरीर को कस्टडी में रखना एससी / एसटी अधिनियम 1989 के तहत अपराध नहीं माना जाएगा जब तक कि यह नहीं दिखाया जाता है कि शरीर अस्पताल प्रशासन/कर्मचारियों द्वारा केवल इसलिए कस्टडी में लिया गया क्योंकि मृतक अनुसूचित जाति का था.

कोर्ट ने आगे कहा कि यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि शव को अस्पताल प्रशासन द्वारा केवल इसलिए अपनी कस्टडी में लिया गया था क्योंकि शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति से संबंधित था. इसके अलावा प्रथम सूचना रिपोर्ट में यह नहीं है कि अपीलकर्ता या अस्पताल प्रशासन जानता था कि मृतक अनुसूचित जाति से संबंधित था. तथ्य के मुताबिक शिकायतकर्ता के मामा COVID-19 से पीड़ित थे और उन्हें प्रकाश अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया था, जहां लगभग 16 दिनों के बाद उन्होंने दम तोड़ दिया.

अस्पताल द्वारा शिकायतकर्ता को अपने मामा के शव को ले जाने के लिए औपचारिकताएं पूरी करने और लंबित बिलों का भुगतान करने के लिए कहा गया था. शिकायतकर्ता द्वारा आरोप लगाया गया कि अस्पताल के कर्मचारियों / अपीलकर्ताओं द्वारा अतिरिक्त शुल्क की अनुचित मांग की गई और इसके साथ ही अतिरिक्त शुल्क का भुगतान नहीं करने पर अस्पताल के कर्मचारियों द्वारा शव को कस्टडी में ले लिया गया. अपीलकर्ताओं ने शिकायतकर्ता और उसके परिवार को अपमानित किया.

आरोपों के मद्देनजर अस्पताल के कर्मचारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी. अपनी गिरफ्तारी की आशंका में, अपीलकर्ताओं ने पहले विशेष न्यायाधीश (अत्याचार अधिनियम) के समक्ष अग्रिम जमानत की मांग की. हालांकि जब इन लोगों को निचली अदालत में राहत देने से इनकार कर दिया गया, तो उच्च न्यायालय का रूख किया.

अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि अनिवार्य रूप से शिकायतकर्ता और अस्पताल प्रशासन के बीच विवाद अस्पताल के लंबित बिल के कारण उत्पन्न हुआ और इस कारण से कि परिवार के सदस्य शव को COVID प्रोटोकॉल के खिलाफ ले जाने पर जोर दे रहे थे. यह आगे प्रस्तुत किया गया कि न तो शिकायत और न ही परिस्थितियों का अर्थ यह है कि शिकायतकर्ता के शव को जानबूझकर शिकायतकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों को अपमानित करने के लिए कस्टडी में लिया गया था क्योंकि वे अनुसूचित जाति के थे.

दूसरी ओर, शिकायतकर्ता के वकील द्वारा यह तर्क दिया गया कि अस्पताल के बिल का अनुचित निपटान नहीं करने के लिए शव को कस्टडी में लेना, शिकायतकर्ता और उसके असहाय परिवार के सदस्यों का अपमान और धमकाना था, जो शव को प्राप्त करने के लिए लगभग दस घंटे से इंतजार कर रहे थे.

न्यायालय की टिप्पणियां कोर्ट ने शुरुआत में इस बात पर जोर दिया कि एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(आर) अपमान या डराने-धमकाने के ऐसे कृत्य को दंडित करती है, जो किसी ऐसे व्यक्ति की जाति या जनजाति के लिए जिम्मेदार है, जिसका अपमान किया गया था. इसे ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने मामले के तथ्यों और दोनों पक्षों की दलीलों को ध्यान में रखा और उसके बाद देखा कि मृतक शरीर को कस्टडी में रखना ही अधिनियम के तहत अपराध नहीं होगा जब तक कि यह नहीं दिखाया जाता है कि अपीलकर्ता यह जानते थे कि शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति का था और दूसरी बात शव को केवल इसलिए कस्टडी में लिया गया क्योंकि मृतक अनुसूचित जाति का था.

न्यायालय ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि विवाद अस्पताल के लंबित बिलों के कारण उत्पन्न हुआ और शिकायतकर्ता या मृतक का अपमान करने का कोई इरादा नहीं था, केवल इसलिए कि वे अनुसूचित जाति के थे.

पढ़ें : दिल्ली दंगा: आरोपी को अनावश्यक प्रताड़ित करने के लिए पुलिस पर लगा जुर्माना

अदालत ने अपीलकर्ताओं को 25,000 रुपये का निजी बॉन्ड भरने और इतनी ही राशि का एक या एक से अधिक जमानतदार पेश करने की शर्त पर अग्रिम जमानत देने का निर्देश दिया.

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