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Bihar Politics : पांच साल में कितना बदले तेजस्वी और नीतीश, महागठबंधन की क्या होगी दिशा

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Published : Aug 10, 2022, 10:39 AM IST

Updated : Aug 10, 2022, 1:38 PM IST

नीतीश कुमार बुधवार दोपहर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे, लेकिन इस बार का सत्ता का फॉर्मूला 2015 से काफी अलग है. सत्ता की कमान भले ही आरजेडी ने नीतीश को दे दी हो, लेकिन कैबिनेट में हिस्सेदारी ज्यादा ली है. इतना ही नहीं इस बार सहयोगी दलों की संख्या भी काफी ज्यादा है.

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हैदराबाद : बिहार की राजधानी पटना से मंगलवार को एक तस्वीर सामने आई. जिसमें नीतीश और तेजस्वी एक साथ दिखे. वहां मौजूद पत्रकारों को उम्मीद थी कि नीतीश भाजपा के साथ गठबंधन टूटने पर अपनी सफाई देंगे, लेकिन नीतीश ने सिर्फ इतना कहा कि उनकी पार्टी चाहती है कि यह गठबंधन टूट जाए. वहीं, तेजस्वी ने नीतीश के राजद के साथ फिर से जुड़ने का बचाव किया. उन्होंने कहा कि अब आप पंजाब से लेकर महाराष्ट्र और बिहार तक बीजेपी के पुराने सहयोगियों को देखें. उन्होंने इन सभी जगहों पर अपने सहयोगियों को खत्म करने की कोशिश की. अब पूरे हिंदी क्षेत्र में भाजपा का कोई सहयोगी नहीं रह गया है. बीजेपी जदयू को भी अपने कब्जे में लेने की कोशिश कर रही थी, लेकिन हम समाजवादी हैं. नीतीश कुमार हमारे अभिभावक हैं और हमको ही उनकी विरासत को संभालना है.

यह शायद 2015 और 2022 के महागठबंधन में सबसे महत्वपूर्ण और स्पष्ट अंतर है, अगर नीतीश को सात साल पहले गठबंधन की जरूरत थी तो उसका तात्कालिक कारण था 2014 के लोकसभा चुनावों में मिली हार. उसमें नीतीश राजनीतिक वर्चस्व को फिर से हासिल करना चाहते थे. अब उन्हें अपनी राजनीतिक प्रासंगिता और महत्व बनाये रखने के लिए इसकी आवश्यकता है और यह सिर्फ 2025 के विधानसभा चुनावों तक ही सीमित नहीं है. जब उन्होंने पहली बार जून 2013 में भाजपा से नाता तोड़ा तो नीतीश को शायद विश्वास था कि वह अपने दम पर सरकार बना सकते हैं.

पढ़ें: Bihar Political Crisis : क्या लोकसभा चुनाव की आहट आते ही नीतीश बदल लेते हैं पार्टनर !

उन्होंने पहले से ही नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक रुख अपनाया हुआ था. हालांकि, बिहार के विकास पुरुष होने की अपनी छवि पर टिके हुए नीतीश का आत्मविश्वास तब टूट गया था जब 2009 के लोकसभा चुनावों में एनडीए के हिस्से के रूप में 20 सीटें जीतने वाली जदयू 2014 में 2 सीट ही जीत सकी. तब नीतीश को यह एहसास हुआ था कि उन्हें बिहार में एक साथी की जरूरत है. यही कारण था कि 2015 में नीतीश ने लालू प्रसाद और राजद के साथ गठजोड़ किया. बिहार विधानसभा की 243 में से 178 सीटों पर कांग्रेस और वाम दलों को मिलाकर महागठबंधन ने जीत हासिल की. मोदी के चौतरफा अभियान के बावजूद भाजपा को केवल 53 सीटें ही मिल सकीं, जो उसके 2010 के 91 के आंकड़े से भी कम था.

2015 के चुनाव ने नीतीश को यह सिखाया कि बिहार सामाजिक समीकरण को साध कर एक उच्चस्तरीय व्यक्तित्व-चालित अभियान जो देशभक्ति और हिंदुत्व से युक्त था को हराया जा सकता है. फिर वह क्या था जिसने नीतीश को महागठबंधन से अलग होने पर मजबूर किया? वो कारण थे सरकार पर राजद का दबाव खासकर पुलिस अधिकारियों और निचली नौकरशाही के तबादले में. इसके अलावा लालू प्रसाद अक्सर ही नीतीश कुमार को मीडिया में अपना छोटा भाई कहकर संबोधित करते थे जो कहीं ना कहीं नीतीश को नागवार गुजरता था. क्योंकि नीतीश उस समय भी खुद की एक राष्ट्रीय भूमिका देख रहे थे. अंत में आईआरसीटीसी मामले में लालू के आवास पर सीबीआई के छापे ने नीतीश को एक अच्छा कारण दिया और उन्होंने 'भ्रष्टाचार' के मुद्दे पर राजद के साथ संबंध तोड़ लिए. 2017 में वह फिर से एनडीए में लौट आए.

पढ़ें: बिहार में महागठबंधन की सरकार: 8वीं बार CM पद की शपथ लेंगे नीतीश, तेजस्वी बनेंगे उपमुख्यमंत्री

2020 के चुनाव में एनडीए में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. हालांकि, वादे के मुताबिक भाजपा ने नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाया था, लेकिन जद (यू) नेता इस व्यवस्था से कभी खुश नहीं थे. गठबंधन को लगातार तनाव का सामना करना पड़ रहा था. नीतीश की इच्छा के विरुद्ध आरसी पी सिंह केंद्रीय मंत्री के रूप में केंद्र सरकार से जुड़े. खबरे ऐसी आने लगी कि भाजपा सिंह के माध्यम से जद (यू) को तोड़ने की कोशिश कर रही है. इससे एनडीए के ताबूत में एक और कील ठोंक दी गई. जद (यू) के सूत्रों ने कहा कि अंतिम कील पटना में भाजपा की बैठक में जेपी नड्डा का दिया गया भाषण साबित हुआ. नीतीश ने जेपी नड्डा के भाषण में दिये गये संदेश को समझा और राजद के साथ गठबंधन में वापसी करने का फैसला लिया. नीतीश को कथित तौर पर डर था कि भाजपा जद (यू) को पूरी खत्म करने पर लगी हुई है. अब नीतीश के पास 2025 में वापसी का एक मौका है. राजद के साथ नई शुरुआत के बाद उनके पास कम से कम तीन साल और हैं.

बड़ी पार्टी होने के कारण सरकार की विफलता राजद के माथे भी आयेगी. उधर लालू खराब स्वास्थ्य के कारण राजनीतिक रूप से लगभग निष्क्रिय हो चुके हैं और तेजस्वी भी राजनीति में परिपक्व हो गए हैं. सूत्रों ने कहा कि नीतीश और तेजस्वी अब एक-दूसरे को बेहतर समझ रहे हैं और कई महीनों से एक-दूसरे के संपर्क में थे. जाहिर है कि महागठबंधन की सरकार फिर से बनाने जा रही है, लेकिन इस बार की सियासी तस्वीर काफी अलग है. साल 2015 में बने महागठबंधन में तीन दल शामिल थे जबकि इस बार सात दलों का समर्थन है. नीतीश के अगुवाई में बन रही महागठबंधन की नई सरकार में सत्ता शेयरिंग का फॉर्मूला भी अलग है.

हैदराबाद : बिहार की राजधानी पटना से मंगलवार को एक तस्वीर सामने आई. जिसमें नीतीश और तेजस्वी एक साथ दिखे. वहां मौजूद पत्रकारों को उम्मीद थी कि नीतीश भाजपा के साथ गठबंधन टूटने पर अपनी सफाई देंगे, लेकिन नीतीश ने सिर्फ इतना कहा कि उनकी पार्टी चाहती है कि यह गठबंधन टूट जाए. वहीं, तेजस्वी ने नीतीश के राजद के साथ फिर से जुड़ने का बचाव किया. उन्होंने कहा कि अब आप पंजाब से लेकर महाराष्ट्र और बिहार तक बीजेपी के पुराने सहयोगियों को देखें. उन्होंने इन सभी जगहों पर अपने सहयोगियों को खत्म करने की कोशिश की. अब पूरे हिंदी क्षेत्र में भाजपा का कोई सहयोगी नहीं रह गया है. बीजेपी जदयू को भी अपने कब्जे में लेने की कोशिश कर रही थी, लेकिन हम समाजवादी हैं. नीतीश कुमार हमारे अभिभावक हैं और हमको ही उनकी विरासत को संभालना है.

यह शायद 2015 और 2022 के महागठबंधन में सबसे महत्वपूर्ण और स्पष्ट अंतर है, अगर नीतीश को सात साल पहले गठबंधन की जरूरत थी तो उसका तात्कालिक कारण था 2014 के लोकसभा चुनावों में मिली हार. उसमें नीतीश राजनीतिक वर्चस्व को फिर से हासिल करना चाहते थे. अब उन्हें अपनी राजनीतिक प्रासंगिता और महत्व बनाये रखने के लिए इसकी आवश्यकता है और यह सिर्फ 2025 के विधानसभा चुनावों तक ही सीमित नहीं है. जब उन्होंने पहली बार जून 2013 में भाजपा से नाता तोड़ा तो नीतीश को शायद विश्वास था कि वह अपने दम पर सरकार बना सकते हैं.

पढ़ें: Bihar Political Crisis : क्या लोकसभा चुनाव की आहट आते ही नीतीश बदल लेते हैं पार्टनर !

उन्होंने पहले से ही नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक रुख अपनाया हुआ था. हालांकि, बिहार के विकास पुरुष होने की अपनी छवि पर टिके हुए नीतीश का आत्मविश्वास तब टूट गया था जब 2009 के लोकसभा चुनावों में एनडीए के हिस्से के रूप में 20 सीटें जीतने वाली जदयू 2014 में 2 सीट ही जीत सकी. तब नीतीश को यह एहसास हुआ था कि उन्हें बिहार में एक साथी की जरूरत है. यही कारण था कि 2015 में नीतीश ने लालू प्रसाद और राजद के साथ गठजोड़ किया. बिहार विधानसभा की 243 में से 178 सीटों पर कांग्रेस और वाम दलों को मिलाकर महागठबंधन ने जीत हासिल की. मोदी के चौतरफा अभियान के बावजूद भाजपा को केवल 53 सीटें ही मिल सकीं, जो उसके 2010 के 91 के आंकड़े से भी कम था.

2015 के चुनाव ने नीतीश को यह सिखाया कि बिहार सामाजिक समीकरण को साध कर एक उच्चस्तरीय व्यक्तित्व-चालित अभियान जो देशभक्ति और हिंदुत्व से युक्त था को हराया जा सकता है. फिर वह क्या था जिसने नीतीश को महागठबंधन से अलग होने पर मजबूर किया? वो कारण थे सरकार पर राजद का दबाव खासकर पुलिस अधिकारियों और निचली नौकरशाही के तबादले में. इसके अलावा लालू प्रसाद अक्सर ही नीतीश कुमार को मीडिया में अपना छोटा भाई कहकर संबोधित करते थे जो कहीं ना कहीं नीतीश को नागवार गुजरता था. क्योंकि नीतीश उस समय भी खुद की एक राष्ट्रीय भूमिका देख रहे थे. अंत में आईआरसीटीसी मामले में लालू के आवास पर सीबीआई के छापे ने नीतीश को एक अच्छा कारण दिया और उन्होंने 'भ्रष्टाचार' के मुद्दे पर राजद के साथ संबंध तोड़ लिए. 2017 में वह फिर से एनडीए में लौट आए.

पढ़ें: बिहार में महागठबंधन की सरकार: 8वीं बार CM पद की शपथ लेंगे नीतीश, तेजस्वी बनेंगे उपमुख्यमंत्री

2020 के चुनाव में एनडीए में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. हालांकि, वादे के मुताबिक भाजपा ने नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाया था, लेकिन जद (यू) नेता इस व्यवस्था से कभी खुश नहीं थे. गठबंधन को लगातार तनाव का सामना करना पड़ रहा था. नीतीश की इच्छा के विरुद्ध आरसी पी सिंह केंद्रीय मंत्री के रूप में केंद्र सरकार से जुड़े. खबरे ऐसी आने लगी कि भाजपा सिंह के माध्यम से जद (यू) को तोड़ने की कोशिश कर रही है. इससे एनडीए के ताबूत में एक और कील ठोंक दी गई. जद (यू) के सूत्रों ने कहा कि अंतिम कील पटना में भाजपा की बैठक में जेपी नड्डा का दिया गया भाषण साबित हुआ. नीतीश ने जेपी नड्डा के भाषण में दिये गये संदेश को समझा और राजद के साथ गठबंधन में वापसी करने का फैसला लिया. नीतीश को कथित तौर पर डर था कि भाजपा जद (यू) को पूरी खत्म करने पर लगी हुई है. अब नीतीश के पास 2025 में वापसी का एक मौका है. राजद के साथ नई शुरुआत के बाद उनके पास कम से कम तीन साल और हैं.

बड़ी पार्टी होने के कारण सरकार की विफलता राजद के माथे भी आयेगी. उधर लालू खराब स्वास्थ्य के कारण राजनीतिक रूप से लगभग निष्क्रिय हो चुके हैं और तेजस्वी भी राजनीति में परिपक्व हो गए हैं. सूत्रों ने कहा कि नीतीश और तेजस्वी अब एक-दूसरे को बेहतर समझ रहे हैं और कई महीनों से एक-दूसरे के संपर्क में थे. जाहिर है कि महागठबंधन की सरकार फिर से बनाने जा रही है, लेकिन इस बार की सियासी तस्वीर काफी अलग है. साल 2015 में बने महागठबंधन में तीन दल शामिल थे जबकि इस बार सात दलों का समर्थन है. नीतीश के अगुवाई में बन रही महागठबंधन की नई सरकार में सत्ता शेयरिंग का फॉर्मूला भी अलग है.

Last Updated : Aug 10, 2022, 1:38 PM IST
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