कोलकाता : आजादी से वर्षों पूर्व आसनसोल शुरू होने के बाद कोलकाता के बेलेघाटा में भी मां दुर्गा की काली मूर्ति के रूप में पूजा किए जाने का क्रम अनवरत जारी है. हालांकि पहले की तुलना में मूर्ति का आकार छोटा जरूर हो गया है लेकिन बेलेघाट पबना में भट्टाचार्य परिवार के द्वारा की जाने वाली पूजा और मूर्ति आज भी लोगों के आर्कषण का केंद्र है. शहर के मध्य में स्थापित यह मूर्ति अन्य मूर्तियों से काफी अलग है. इस दुर्गा की मूर्ति को पंचमी (पांचवें दिन) मंडप में लाया जाता है. इसके बाद से यहां पर पूजा पाठ का दौर शुरू हो जाता है. भट्टाचार्य घर की दुर्गा कुमारतुली में नहीं, बल्कि कालीघाट के पटुआपारा में विशेष सावधानी से बनाई जाती है.
इस संबंध में बताया जाता है कि पबना जिले के स्थलबसंतपुर का भट्टाचार्य परिवार काली शिष्यों के रूप में जाना जाता था. परिवार के मुखिया हरिदेव भट्टाचार्य काली की पूजा करते थे. इस दौरान एक रात उन्होंने एक सपना देखा जिसमें देवी ने उसे दुर्गा की पूजा करने के लिए कहा, लेकिन वो मूर्ति पारंपरिक नहीं होकर काले रूप में थी. इतना ही नहीं यह सपना एक बार नहीं बल्कि बार-बार हरिदेव भट्टाचार्य को आया. इससे वह काफी भ्रमित थे लेकिन उन्हें काले रंग में दुर्गा का कोई निशान नहीं मिला. इस पर उन्होंने पबना के धर्मावंलियों का सहारा लिया, लेकिन वे भी दिशा-निर्देश नहीं दे सके.
हालांकि 292 साल पहले इस पर संवाद करना इतना आसान नहीं था. हालांकि, उन्होंने देवी की मूर्ति के बारे में जानने के लिए नैहाटी के भाटपारा की भी यात्रा की. इस दौरान कुछ विद्वानों ने समझाया भी लेकिन उसका उनपर पर प्रभाव नहीं पड़ा. इसी क्रम में हरिदेव भट्टाचार्य काशी भी गए लेकिन वहां भी उन्हें सफलता नहीं मिली. इससे हताश होकर एक दिन हरिदेव भट्टाचार्य दशाश्वमेध घाट पर बैठे थे. उस समय एक संत पुरुष ने उनसे सहज रूप में उनका विचार जानना चाहा और उन्हें उसका समाधान प्रदान किया. इस पर एक काली दुर्गा का चित्रण किया. इसके बाद हरिदेव भट्टाचार्य वापस आए और काले रंग की दुर्गा की मूर्ति पूजा करने लगे.
इस बारे में भट्टाचार्य परिवार की कृष्ण भट्टाचार्य बताती हैं कि मां दुर्गा की मूर्ति का रंग काला होता और इसे पारंपरिक रंगों से तैयार किया जाता है.बेलेघाटा जोरा मंदिर के पास 35 नो बस स्टैंड के पास से गुजरने वाले रामकृष्ण नस्कर लेन के भट्टाचार्य परिवार के द्वारा आज भी काली दुर्गा की मूर्ति की पूजा की जाती है. यहां की मूर्ति क्षेत्र भर में आकर्षण का केंद्र होती है. वहीं हरिदेव भट्टाचार्य द्वारा शुरू की गई पूजा को सुबोध भट्टाचार्य के अधीन और अधिक बढ़ावा मिला. उन्होंने पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए खुद दुर्गा पूजा करना सीखा. साथ ही पूजा के विशेष मंत्रों को पुथी (पुस्तक) पर ध्यान से गया है. भट्टाचार्य परिवार आज भी अत्यंत सावधानी से पुथी की रक्षा कर रहा है. इस पुस्तक को ईटीवी भारत संवाददाता को दिखाते हुए कृष्ण भट्टाचार्य ने पूजा और उसकी कथा बताई.
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