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विशेष लेख : ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे के बावजूद, हम हैं गलत राह पर - global carbon footprint

वातावरण में हो रहे खतरनाक बदलाव इस तरफ साफ इशारा करते हैं कि आने वाले समय में दुनिया के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी होने वाली है. चार साल पहले 2015 में हुई कॉन्फ्रेस ऑफ पार्टीज (सीओपी) 25 में तय किया गया था कि इस सदी के अंत तक, ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोका जाएगा. पेरिस समझौते को लागू करने वाले सभी देशों के लिए यह लक्ष्य रखा गया था.

editorial on global warming
प्रतीकात्मक फोटो
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Published : Dec 25, 2019, 11:51 PM IST

स्पेन के मैडरिड में यह सम्मेलन 2 से 13 दिसंबर तक, 12 दिनों के लिए चला था. लेकिन पेरिस समझौते को इस सम्मेलन से झटका लगा था, क्योंकि यहां किसी बड़े मसले पर समझौता नहीं हो सका. पिछले 10 वर्षों में, औसतन सालाना 1.5% ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन हुआ है. ग्लोबल वॉर्मिंग को बड़ाती हुई करीब 55.3 गीगा टन कार्बन मोनोऑक्साइड भी वातावरण में छोड़ी गई है. सीओपी 25 की शुरुआत से पहले, यूएनओ ने 195 सदस्य देशों से ग्लोबल वॉर्मिंग के समाधान के लिए एक एक्शन प्लान बनाने का आह्वान किया था.

बातचीत के दौरान, विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद आने से यहां मामला अटक गया. सम्मेलन में बोलते हुए, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा था कि सदस्य देशों को नेशनल डिटरमिनेशन एंड कॉपरेशन के जरिए अगले साल तक पर्यावरण संबंधी नतीजों को हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए. उन्होंने 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को खत्म करने पर भी जोर दिया. अगर मौजूदा ग्लोबल वॉर्मिंग इस दर से ही बड़ती रही, तो दुनिया के देश 2030 के अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकेंगे.

तेज हो रही है ग्लोबल वॉर्मिंग

दुनिया के तापमान में 1.5 डिग्र के इजाफे के कारण, प्राकृतिक आपदाओं से जान और माल का खासा नुकसान हो रहा है. इन हादसों का असर विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था पर सीधे-सीधे दिखाई दे रहा है. 2020-2030 के बीच में प्रति वर्ष 7% की दर से कार्बन उत्सर्जन को कम करना देशों के सामने सबसे बड़ा लक्ष्य है. चेताया जा रहा है कि 2100 तक धरती का तापमान 3.2 डिग्री तक बड़ जाएगा, और यह चिंत्ता की बड़ी बात है. दुनियाभर में हो रहे ग्रीन गैस उत्सर्जन का 78% अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, रूस, जापान, कोरिया, चीन, भारत, मैक्सिको, ब्राजील, अर्जेंटीना, और कुछ ईयू के देशों द्वारा होता है.

G-20 देशों के समूह मे से 7 देशों को अभी अपने यहां, उत्सर्जन को कम करने लिए कदम उठाने की शुरुआत करनी है, यह इन देशों की गंभीरता पर सवाल खड़ा करने के लिए काफी है. पेरिस समझौते को लागू करने के लिए किसी रणनीति की कमी के कारण, 2020 सम्मेलन के बाद कार्बन उत्सर्जन और ग्लोबल वॉर्मिग पर नकेल कसने में दिक्कतें आ रही हैं. विश्व के कार्बन उत्सर्जन के 15% हिस्सेदारी वाले अमरीका ने अपने को पैरिस समझौते से अलग कर लिया है, यह दुनिया के ताकतवर और विकससित देशों का अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर नजरिया साफ करता है.

वैसे ही, चीन जो उत्सर्जन के 28% का भागीदीर है, अपने यहां इसकी रोकथाम के लिए कारगर कदम उठाने में नाकामयाब रहा है. सदस्य देश, पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 पर बहस में उलझे हैं. इस अनुच्छेद में ग्लोबल वॉर्मिंग पर काबू पाने के लिए कदम उठाने पर बात कही गई है. क्योटो समझौते से लेकर पेरिस समझौते तक,क्लीन डेवेलेपमंट मेकेनिज्म के तहत, कार्बन उत्सर्जन आदि को रोकने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया जा रहा है. क्लीन डेवेलपमेंट मैकेनिज्म के तहत, विकासशील देशों में एक टन कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने पर एक क्रेडिट मिलता है. इन क्रेडिट की खरीद बिक्री का भी प्रवधान है.

औद्योगिक तौर पर विकसित देश इन क्रेडिट का इस्तेमाल कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने के लिए करते हैं. यह क्रेडिट प्रणाली, क्योटो प्रोटेकॉल में शामिल की गई थी. जिन देशों ने 2020 से पहले अपने यहां कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों को प्राप्त कर लिया उन पर कोई फैसला न होने के कारण विवाद खड़ा हो गया था. इसलिए पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 की अहमियत यहां बड़ जाती है.

पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6.2 (कार्बन उत्सर्जन के व्यापार) और अनुच्छेद 6.4 (कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने) पर सदस्य देशों के बीच कोई बराबरी न होने के कारण, तकनीकी सर्वसम्मत फैसला नहीं लिया जा सका. इसके कारण पेरिस समझौते के तहत विकासशील देशों की भागीदारी को लेकर अड़चने पैदा हो गईं. पेरिस समझौते को लेकर सबसे बड़ी परेशानी सदस्य देशों के बीच आर्थिक और तकनीकी साझेदारी को लेकर समझौता नहीं होना है.

भारत ने ग्लोबल वॉर्मिंग और कार्बन उत्सर्जन पर अपना पक्ष साफ कर दिया है. नए लक्ष्यों को नर्धारित करना पूरी तरह बेमानी है, जबकि 2020 तक के लक्ष्यों को पाने की तरफ ज्यादातर देशों ने कोई कदम नहीं उठाया है. भारत ने इस तरफ भी ध्यान खींचा कि बिना क्योटो प्रोटोकॉल को लागू किए, पेरिस समझौते को लागू करने की बात कारगर नहीं है. भारत ने यह भी कहा कि, विकासशील देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों को पाने के लिए समय सीमा को 2023 तक बड़ाने की जरूरत है. भारत अपनी तरफ से ही, कार्बन उत्सर्जन और पर्यावरण के बचाव के लिए कदम उठा रहा है. भारत ने जीडीपी के 21 प्रतिशत तक कार्बन उत्सर्जन कम कर दिया है. पेरिस समझौते के तहत, 35% के लक्ष्य को हासिल करने के लिए भी भारत रणनीति पर काम कर रहा है. भारत ने, विकसित देशों द्वारा उत्सर्जन के अपने लक्ष्यों से पीछे हटने पर नाराजगी भी जताई है. अगर विकसित और विकासशील देश, उत्सर्जन के अपने लक्ष्यों पर इस तरह ढिलाई बरतेंगे, तो आने वाले समय में विश्व के तापमान में 3.4% से 3.9% तक का इजाफा देखा जा सकता है.

वहीं यूरोपीय यूनियन संघ ने, 2050 तक अपने यहां कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने की तरफ काम करने की बात कही है. हालांकि यह साफ है कि पेरिस समझौते की कामयाबी इस बात पर निर्भर करती है कि इसके सदस्य देश अपने-अपने लक्ष्यों को पाने के लिए कितनी गंभीरता से काम करते हैं.

पढ़ें-विशेष लेख : जल संरक्षण पर ध्यान दें अन्यथा जल्द ही 'वाटर स्केयर्स' की श्रेणी में आ जाएगा भारत

यूएनडीपी (संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम) ने भी एक रिपोर्ट जारी कर के वातावरण में हो रहे खराब बदलावों के देशों की अर्थव्यवस्था पर होने वाले विपरीत असर का जिक्र किया है. ग्लोबल वॉर्मिंग और प्राकृतिक आपदाऐं बीमारियों के फैलने में मदद करने के साथ ही पौष्टिक खाने के स्रोतों को भी खराब करती हैं. इस समय की जरूरत है कि दुनिया के देश उत्सर्जन को लेकर एकजुट होकर काम करें. दुनियाभर में हवा को साफ करना और सर्व विकास के लक्ष्य को हासिल करना संभव है. व्यापार, निवेश, ईंधन और जमीन के उपयोग को बेहतर करने से कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्यों को हासिल करना मुमकिन है.

कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए विकासशील देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता प्रदान करके प्रतिबद्ध तरीके से काम कराना मुमकिन है. विश्व के देशों को जिद और जटिलता छोड़कर इस मसले पर साथ आकर काम करने की जरूरत है. अगर सभी देश एक नजरिए से एक लक्ष्य को पाने की तरफ काम करें तो पेरिस समझौते को लागू कराना आसान हो जाएगा.

स्पेन के मैडरिड में यह सम्मेलन 2 से 13 दिसंबर तक, 12 दिनों के लिए चला था. लेकिन पेरिस समझौते को इस सम्मेलन से झटका लगा था, क्योंकि यहां किसी बड़े मसले पर समझौता नहीं हो सका. पिछले 10 वर्षों में, औसतन सालाना 1.5% ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन हुआ है. ग्लोबल वॉर्मिंग को बड़ाती हुई करीब 55.3 गीगा टन कार्बन मोनोऑक्साइड भी वातावरण में छोड़ी गई है. सीओपी 25 की शुरुआत से पहले, यूएनओ ने 195 सदस्य देशों से ग्लोबल वॉर्मिंग के समाधान के लिए एक एक्शन प्लान बनाने का आह्वान किया था.

बातचीत के दौरान, विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद आने से यहां मामला अटक गया. सम्मेलन में बोलते हुए, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा था कि सदस्य देशों को नेशनल डिटरमिनेशन एंड कॉपरेशन के जरिए अगले साल तक पर्यावरण संबंधी नतीजों को हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए. उन्होंने 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को खत्म करने पर भी जोर दिया. अगर मौजूदा ग्लोबल वॉर्मिंग इस दर से ही बड़ती रही, तो दुनिया के देश 2030 के अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकेंगे.

तेज हो रही है ग्लोबल वॉर्मिंग

दुनिया के तापमान में 1.5 डिग्र के इजाफे के कारण, प्राकृतिक आपदाओं से जान और माल का खासा नुकसान हो रहा है. इन हादसों का असर विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था पर सीधे-सीधे दिखाई दे रहा है. 2020-2030 के बीच में प्रति वर्ष 7% की दर से कार्बन उत्सर्जन को कम करना देशों के सामने सबसे बड़ा लक्ष्य है. चेताया जा रहा है कि 2100 तक धरती का तापमान 3.2 डिग्री तक बड़ जाएगा, और यह चिंत्ता की बड़ी बात है. दुनियाभर में हो रहे ग्रीन गैस उत्सर्जन का 78% अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, रूस, जापान, कोरिया, चीन, भारत, मैक्सिको, ब्राजील, अर्जेंटीना, और कुछ ईयू के देशों द्वारा होता है.

G-20 देशों के समूह मे से 7 देशों को अभी अपने यहां, उत्सर्जन को कम करने लिए कदम उठाने की शुरुआत करनी है, यह इन देशों की गंभीरता पर सवाल खड़ा करने के लिए काफी है. पेरिस समझौते को लागू करने के लिए किसी रणनीति की कमी के कारण, 2020 सम्मेलन के बाद कार्बन उत्सर्जन और ग्लोबल वॉर्मिग पर नकेल कसने में दिक्कतें आ रही हैं. विश्व के कार्बन उत्सर्जन के 15% हिस्सेदारी वाले अमरीका ने अपने को पैरिस समझौते से अलग कर लिया है, यह दुनिया के ताकतवर और विकससित देशों का अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर नजरिया साफ करता है.

वैसे ही, चीन जो उत्सर्जन के 28% का भागीदीर है, अपने यहां इसकी रोकथाम के लिए कारगर कदम उठाने में नाकामयाब रहा है. सदस्य देश, पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 पर बहस में उलझे हैं. इस अनुच्छेद में ग्लोबल वॉर्मिंग पर काबू पाने के लिए कदम उठाने पर बात कही गई है. क्योटो समझौते से लेकर पेरिस समझौते तक,क्लीन डेवेलेपमंट मेकेनिज्म के तहत, कार्बन उत्सर्जन आदि को रोकने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया जा रहा है. क्लीन डेवेलपमेंट मैकेनिज्म के तहत, विकासशील देशों में एक टन कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने पर एक क्रेडिट मिलता है. इन क्रेडिट की खरीद बिक्री का भी प्रवधान है.

औद्योगिक तौर पर विकसित देश इन क्रेडिट का इस्तेमाल कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने के लिए करते हैं. यह क्रेडिट प्रणाली, क्योटो प्रोटेकॉल में शामिल की गई थी. जिन देशों ने 2020 से पहले अपने यहां कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों को प्राप्त कर लिया उन पर कोई फैसला न होने के कारण विवाद खड़ा हो गया था. इसलिए पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 की अहमियत यहां बड़ जाती है.

पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6.2 (कार्बन उत्सर्जन के व्यापार) और अनुच्छेद 6.4 (कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने) पर सदस्य देशों के बीच कोई बराबरी न होने के कारण, तकनीकी सर्वसम्मत फैसला नहीं लिया जा सका. इसके कारण पेरिस समझौते के तहत विकासशील देशों की भागीदारी को लेकर अड़चने पैदा हो गईं. पेरिस समझौते को लेकर सबसे बड़ी परेशानी सदस्य देशों के बीच आर्थिक और तकनीकी साझेदारी को लेकर समझौता नहीं होना है.

भारत ने ग्लोबल वॉर्मिंग और कार्बन उत्सर्जन पर अपना पक्ष साफ कर दिया है. नए लक्ष्यों को नर्धारित करना पूरी तरह बेमानी है, जबकि 2020 तक के लक्ष्यों को पाने की तरफ ज्यादातर देशों ने कोई कदम नहीं उठाया है. भारत ने इस तरफ भी ध्यान खींचा कि बिना क्योटो प्रोटोकॉल को लागू किए, पेरिस समझौते को लागू करने की बात कारगर नहीं है. भारत ने यह भी कहा कि, विकासशील देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों को पाने के लिए समय सीमा को 2023 तक बड़ाने की जरूरत है. भारत अपनी तरफ से ही, कार्बन उत्सर्जन और पर्यावरण के बचाव के लिए कदम उठा रहा है. भारत ने जीडीपी के 21 प्रतिशत तक कार्बन उत्सर्जन कम कर दिया है. पेरिस समझौते के तहत, 35% के लक्ष्य को हासिल करने के लिए भी भारत रणनीति पर काम कर रहा है. भारत ने, विकसित देशों द्वारा उत्सर्जन के अपने लक्ष्यों से पीछे हटने पर नाराजगी भी जताई है. अगर विकसित और विकासशील देश, उत्सर्जन के अपने लक्ष्यों पर इस तरह ढिलाई बरतेंगे, तो आने वाले समय में विश्व के तापमान में 3.4% से 3.9% तक का इजाफा देखा जा सकता है.

वहीं यूरोपीय यूनियन संघ ने, 2050 तक अपने यहां कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने की तरफ काम करने की बात कही है. हालांकि यह साफ है कि पेरिस समझौते की कामयाबी इस बात पर निर्भर करती है कि इसके सदस्य देश अपने-अपने लक्ष्यों को पाने के लिए कितनी गंभीरता से काम करते हैं.

पढ़ें-विशेष लेख : जल संरक्षण पर ध्यान दें अन्यथा जल्द ही 'वाटर स्केयर्स' की श्रेणी में आ जाएगा भारत

यूएनडीपी (संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम) ने भी एक रिपोर्ट जारी कर के वातावरण में हो रहे खराब बदलावों के देशों की अर्थव्यवस्था पर होने वाले विपरीत असर का जिक्र किया है. ग्लोबल वॉर्मिंग और प्राकृतिक आपदाऐं बीमारियों के फैलने में मदद करने के साथ ही पौष्टिक खाने के स्रोतों को भी खराब करती हैं. इस समय की जरूरत है कि दुनिया के देश उत्सर्जन को लेकर एकजुट होकर काम करें. दुनियाभर में हवा को साफ करना और सर्व विकास के लक्ष्य को हासिल करना संभव है. व्यापार, निवेश, ईंधन और जमीन के उपयोग को बेहतर करने से कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्यों को हासिल करना मुमकिन है.

कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए विकासशील देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता प्रदान करके प्रतिबद्ध तरीके से काम कराना मुमकिन है. विश्व के देशों को जिद और जटिलता छोड़कर इस मसले पर साथ आकर काम करने की जरूरत है. अगर सभी देश एक नजरिए से एक लक्ष्य को पाने की तरफ काम करें तो पेरिस समझौते को लागू कराना आसान हो जाएगा.

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