जेएनयू का पतन काफी तेज रफ़्तार से हो रहा है. जेएनयू अपने कैंपस से छात्र हिंसा को दूर रखने और, उच्च शैक्षिक मापदंड रखने के लिये जाना जाता है. इसके साथ ही यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनावों को देशभर में सम्मान दिया जाता रहा है. इसी जेएनयू ने, 5 जनवरी को अपने परिसर में हिंसा और बर्बरता का घिनौना नाच देखा. इन सबके बीच कैमरों पर भयानक चीखें और दृश्य कैद हुए, जिन्हें देश दुनिया के समाचार चैनलों ने दिखाया. इन सभी घटनाओं ने मोदी सरकार की अप्रिय नीतियों के खिलाफ विरोध के सुरों को और बड़े पैमाने पर दिखाया है.
इसके साथ ही कई बॉलीवुड कलाकारों के जेएनयू के समर्थन में आना किसी भी सरकार को परेशान कर देता. इसमें सबसे ख़ास रहा फ़िल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का जेएनयू पहुंचकर घायल छात्रसंघ अध्यक्षा, आईशी घोष से मिलना और छात्रों के साथ खड़ा होना. लेकिन, ऐसा लगता है कि यह सरकार ज़्यादा कठोर तत्वों से बनी है क्योंकि सरकार ने अपने किसी भी फ़ैसले पर पुनर्विचार करने से मना कर दिया है.
जानकारों ने कुछ दिनों पहले ही जामिया में छात्र विरोध पर दिल्ली पुलिस की तत्परता और जोर को भी अंकित किया, वहीं, जेएनयू में मानो दिल्ली पुलिस जानबूझकर एक्शन लेने में देरी करती रही. यह दिलचस्प है कि किस तरह से जामिया में छात्रों को हाथ ऊपर कर उन्हीं के कॉलेजों से निकाला था, वहीं, जेएनयू में नकाबधारी दंगाईयों को उपद्रव मचाने के बाद बिना रोकटोक मुख्य गेट से निकलने दिया गया.
स्वाराज पार्टी के योगेंद्र यादव के साथ उस समय हाथापाई की गई जब वो घायल छात्रों से मिलने कैंपस के अंदर जा रहे थे. यादव का कहना है कि जेएनयू पर लंबे समय तक बौद्धिक हमले होते रहे हैं और इसके बाद विश्वविद्यालय को बदनाम करने के लिये उसपर राजनीतिक हमले किये गये, जिनमें देशद्रोह का मामला प्रमुख था. यह अब बढ़कर शारीरिक हिंसा का रूप ले चुका है.
जेएनयू पर, पहला हमला बीजेपी से जुड़े अंग्रेज़ी भाषी बुद्धिजीवियों से आया. इनमें स्वपनदास गुप्ता और तब बीजेपी के सदस्य रहे चंदन मित्रा शामिल थे. जेएनयू पर ज़्यादा यह आरोप लगता था कि वहां लेफ़्ट विचारधारा ने कभी दक्षिणपंथी विचाधारा वाले बुद्धिजीवियों को पनपने नहीं दिया. एक पल के लिये यह मान लेते हैं कि इस तर्क में सच्चाई है. अब सवाल यह खड़ा होता है कि, जेएनयू में बड़े पैमाने पर पसरी लेफ़्ट विचारधारा को देशभक्ति, खुले बाज़ार, पर्यावरण बदलाव और मोदी की विचारधारा जैसे मुद्दों पर बहस में चुनौती देने के लिये जेएनयू में दक्षिणपंथी विचारधारा के बुद्धिजीवी हैं कहां? हालांकि ऐसा लगता है कि बीजेपी को बौद्धिक विचारधारा से पूरी तरह असहजता है और यहीं से जेएनयू पर राजनीतिक हमले का आधार बनता है. यहां विडंबना यह है कि एक तरफ़ जेएनयू की बौद्धिक शक्ति पर हमला होता है और दूसरी तरफ़ यह कहा जाता है कि यहां पढ़ाई लिखाई होती ही नहीं है.
जेएनयू जिस तरह सत्तापक्ष को उत्तेजित कर रहा है, उससे यह बात साफ़ है कि विश्वविद्यालय में कुछ तो सही हो रहा है. जेएनयू के मौजूदा वीसी, प्रोफ़ेसर मामीडाला जगदीश कुमार के कार्यकाल और पिछले चार सालो में जेएनयू पर हो रहे हमले समांतर रहे हैं, लेकिन अब यह बर्बर हो गये हैं. पिछले 70 दिनों से सामान्य पढ़ाई लिखाई नहीं हो पाई है और वीसी की तरफ़ से इन हालातों को बदलने के लिये कोई संजीदा कदम नहीं उठाया गया है. पिछले दिसंबर में इन हालातों के समाधान का एक मौक़ा तब आया था जब, जेएनयू के छात्र रह चुके उच्च शिक्षा सचिव, आर सुब्रह्मण्यम ने इस दिशा में कोशिशें कीं. लेकिन, इन सबके बीच, समाधान आने से कुछ समय पहले ही अचानक उनका तबादला कर दिया गया.
जेएनयू के कुलपति के पास अपने अब तक के कार्यकाल में कोई नैतिक अधिकार नहीं रहा है और अब कैंपस में हुई हिंसा के बाद यह नहीं लगता कि उनकी विश्वसनीयता और निचले स्तर पर जा सकती है. कैंपस में हिंसा होने के दो दिनों तक कुलपति के मौन के चलते उन्हें लोगों की आलोचना का सामना करना पड़ा और दीपिका पादुकोण के कैंपस आने पर कुलपति का 'महान शख्सियत' वाला बयान उनकी सोच और प्राथमिकताओं के बारे में काफ़ी कुछ कहता है. नैतिकता के आधार पर उनसे इस्तीफ़े की उम्मीद करना बेमानी होगा.
कुलपति के आलोचकों का मानना है कि वो विश्वविद्यालय को चलाना नहीं बल्कि बरबाद करने पर उतारू हैं. वहीं उनके समर्थकों का मानना हैं कि वो जेएनयू को साफ़ करने के काम में लगे हैं, लेकिन अगर कुलपति के क्षेत्राधिकार में आने वाले, शिक्षकों की नियुक्ति को देखें तो कई मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इसका स्तर गिरता ही जा रहा है. कुलपति के हैरान करने वाले फ़ैसलों की फेहरिस्त में सबसे ऊपर वो फैसला है जिसमें, जेएनयू में विवाद के कारण उन्होंने पिछले सत्र की परीक्षाओं को छात्रों को ईमेल पर सवाल भेज करवाने को कहा. छात्रों को परीक्षा के जवाब ईमेल या व्हॉट्सएप के ज़रिये भेजने थे. खुशकिस्मती से बड़ी संख्या में शिक्षकों ने इसका विरोध किया.
आख़िरकार, कुलपति के कार्यकाल का सबसे बुरा हिस्सा था 'टुकड़े टुकड़े गैंग' मुहावरे का रचा जाना. टीवी के अपरिपक्व और शोर मचाने वाले एंकर अर्नब गोस्वामी ने इस मुहावरे को जेएनयू से जोड़कर यूनिवर्सिटी के ख़िलाफ़ नफरत का माहौल बनाने का काम किया. जेएनयू के कुलपति ने कभी भी इस मुहावरे को यूनिवर्सिटी से जोड़े जाने का विरोध नहीं किया. किस विश्वविद्यालय के कुलपति से ऐसी उम्मीद की जा सकती है?
(लेखक- आमिर अली, सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज़, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)