नई दिल्ली: समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन की दीवार दरक चुकी है. बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव दोनों ने साफ-साफ संकेत दे दिए हैं. आने वाले उपचुनाव में दोनों पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ मैदान में उतरेंगी. इसका ऐलान कर दिया गया है. हां, गठबंधन तोड़े जाने का औपचारिक ऐलान बाकी जरूर है.
जाहिर है, ऐसे में सवाल उठता है कि गठबंधन बनाने की वजह क्या थी. महज एक चुनाव को साधना ? क्या दोनों पार्टियों के बीच सैद्धान्तिक आधार का अभाव था ? क्या दोनों के बीच जो दिखाया जा रहा था, वह और कुछ नहीं बल्कि मृग मरीचिका थी ? क्या गठबंधन ने पीएम मोदी की उस भविष्यवाणी को सही कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि चुनाव परिणाम निकलते ही दोनों पार्टियां एक दूसरे को कोसेंगी. उनका गठबंधन टूट जाएगा.
सपा-बसपा गठबंधन का 'इंटरवल', The End का इंतजार
आखिर वही हुआ, जिसकी आशंका पहले से थी. उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन टूट चुका है. औपचारिक ऐलान बाकी रह गया है. दोनों ने अलग-अलग जाने का मन बना लिया है. आखिर क्या है वजह कि मायावती और अखिलेश ने अलग रूख अपना लिया. क्या ये गठबंधन राजनीतिक हकीकत को समझने में नाकामयाब रहा? एक नजर.
नई दिल्ली: समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन की दीवार दरक चुकी है. बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव दोनों ने साफ-साफ संकेत दे दिए हैं. आने वाले उपचुनाव में दोनों पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ मैदान में उतरेंगी. इसका ऐलान कर दिया गया है. हां, गठबंधन तोड़े जाने का औपचारिक ऐलान बाकी जरूर है.
जाहिर है, ऐसे में सवाल उठता है कि गठबंधन बनाने की वजह क्या थी. महज एक चुनाव को साधना ? क्या दोनों पार्टियों के बीच सैद्धान्तिक आधार का अभाव था ? क्या दोनों के बीच जो दिखाया जा रहा था, वह और कुछ नहीं बल्कि मृग मरीचिका थी ? क्या गठबंधन ने पीएम मोदी की उस भविष्यवाणी को सही कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि चुनाव परिणाम निकलते ही दोनों पार्टियां एक दूसरे को कोसेंगी. उनका गठबंधन टूट जाएगा.
आखिर वही हुआ,जिसकी आशंका पहले से की जा रही थी. उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन टूट चुका है. औपचारिक ऐलान बाकी रह गया है. दोनों ने अलग-अलग जाने का मन बना लिया है. आखिर क्या है वजह कि मायावती और अखिलेश ने अलग रूख अपना लिया. क्या ये गठबंधन राजनीतिक हकीकत को समझने में नाकामयाब रहा. एक नजर.
सपा-बसपा गठबंधन का 'इंटरवल', The End का इंतजार
नई दिल्ली: समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन की दीवार दरक चुकी है. बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव दोनों ने साफ-साफ संकेत दे दिए हैं. आने वाले उपचुनाव में दोनों पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ मैदान में उतरेंगी. इसका ऐलान कर दिया गया है. हां, गठबंधन तोड़े जाने का औपचारिक ऐलान बाकी जरूर है.
जाहिर है, ऐसे में सवाल उठता है कि गठबंधन बनाने की वजह क्या थी. महज एक चुनाव को साधना ? क्या दोनों पार्टियों के बीच सैद्धान्तिक आधार का अभाव था ? क्या दोनों के बीच जो दिखाया जा रहा था, वह और कुछ नहीं बल्कि मृग मरीचिका थी ? क्या गठबंधन ने पीएम मोदी की उस भविष्यवाणी को सही कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि चुनाव परिणाम निकलते ही दोनों पार्टियां एक दूसरे को कोसेंगी. उनका गठबंधन टूट जाएगा.
आज मायावती ने साफ कर दिया है कि उनकी पार्टी आने वाले उपचुनावों में अकेले लड़ेगी. उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी यादव वोट को भी एकजुट कायम नहीं रख सकी. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अखिलेश यादव कन्नौज से डिंपल यादव और फिरोजाबाद से अक्षय यादव को जीत नहीं दिला सके, जबकि दोनों सीटें यादव बाहुल्य हैं. लिहाजा हम सोचने पर मजबूर हैं. उन्होंने पूछा कि क्या अखिलेश सपा के गठबंधन में बदलाव ला सकते हैं. अगर लाया, तो हम साथ चलेंगे, वरना हमारी राहें जुदा हैं.
जवाब में अखिलेश ने भी कहा कि अगर रास्ते अलग हैं तो हम भी लोगों का स्वागत करेंगे. हम भी अपने संसाधन और अपनी शक्ति के आधार पर आगे की रणनीति बनाएंगे.
आपको याद होगा कि लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान जब भी इस तरह के सवाल पूछे जाते थे, तो दोनों पार्टियां एक साथ चलने की बार-बार बातें करती थीं. उनकी ओर से बयान जारी किया जाता था कि गठबंधन आगे भी जारी रहेगा. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. एक झटका (लोकसभा चुनाव 2019) लगा और दोनों के रास्ते अलग-अलग हो गए.
राजनीतिक विश्लेषक इसे इतिहास का दोहराना जैसा बता रहे हैं. पहले भी सपा और बसपा का गठबंधन (1993 में) हुआ था. लेकिन गेस्ट हाउस कांड (1995) के बाद दोनों पार्टियों के रास्ते अलग-अलग हो गए.
1996 में बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था. लेकिन चुनाव में उम्मीद के अनुसार सफलता नहीं मिली. तब मायावती ने आरोप लगाया था कि हमारा वोट कांग्रेस को चला गया, लेकिन उनका वोट हमें नहीं मिला.
2007-12 तक बसपा और 2012-17 तक सपा यूपी में सत्ता में रही. 2014 लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी. 2017 विधानसभा चुनाव में सपा ने कांग्रेस से हाथ मिलाया, पर अपेक्षित परिणाम नहीं मिले. बसपा को भी कोई खास सफलता नहीं मिली. इसके बाद लोकसभा उपचुनाव में मिली जीत से सपा और बसपा उत्साहित हो गए. दोनों ने एक साथ आने का फैसला कर लिया.
सालों की राजनीतिक 'दुश्मनी' दोस्ती में बदल गई. मुलायम सिंह यादव और मायावती एक मंच पर आए. डिंपल ने सार्वनजिक मंच पर मायावती के पैर छुए. ऐसा लगा ये रिश्ता लंबा खिंचेगा. पर लोकसभा चुनाव परिणाम ने सब कुछ तार-तार कर दिया. अब मायावती कह रही हैं कि राजनीतिक मजबूरियां हैं, इसलिए वह इस तरह के फैसले ले रही हैं. अखिलेश ने भी ऐसा ही जवाब दिया है.
दोनों ही पार्टियों ने हकीकत को एक तरीके से ऩजरअंदाज कर दिया है और उस पर विचार करने को तैयार नहीं हैं.
इस बार के लोकसभा चुनाव परिणाम बताते हैं कि 131 आरक्षित सीटों में से सबसे ज्यादा 77 सीटें भाजपा के खाते में गई है. पिछली बार यानि 2014 में भाजपा को 67 सीटें मिली थी. इसका मतलब है कि भाजपा ने दलितों और आदिवासियों के बीच अपनी लोकप्रियता बढ़ाई है.
एससी के लिए आरक्षित सीटों में से बसपा को मात्र दो सीटें मिलीं. लोकसभा में 84 सीटें एससी के लिए आरक्षित है. भाजपा को 46 सीटें मिलीं. अकेले यूपी से 14 सीटें मिलीं.
बदलते समय के साथ राजनीति भी बदलनी होती है. क्या जाति और धर्म की राजनीति दरक रही है या जो भी कुछ दिख रहा है, वह बस अस्थायी है, कहना मुश्किल है, इन सारे सवालों का जवाब आने वाला समय ही दे पाएगा.
Conclusion: