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विशेष : गांधी का सपना गांवों में अदालत, इसके जरिये मिलेगा ग्रामीण न्याय

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Published : Feb 12, 2020, 9:43 PM IST

Updated : Mar 1, 2020, 3:35 AM IST

भारत में गांव और उसके कानून का सुझाव लंबे समय से था. राछाबंदा या गांव के विवादों को, गांव के बुजुर्गों द्वारा सुलझाये जाने की परंपरा लंबे समय से चली आ रही थी. इसके चलते गांव के लोग अदालतों के चक्कर लगाने से बच जाते थे. चालीस साल पहले, गांवों को न्याय देने के लिये 30,000 कानूनी पैनलों की स्थापना की गई थी. तीन दशक पहले, जब एनटीआर सरकार ने मंडल प्रजा परिषद बिल को पेश किया था तो कांग्रेस ने इसका विरोध किया था. एनटीआर ने इस बिल को पास तो करा लिया था लेकिन साल भर के अंदर ही यह दोबारा गिर गया.

डिजाइन फोटो
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महात्मा गांधी का मानना था कि, देश की आजादी की कुंजी उसके गांवों के विकास में है. भारतीय गणतंत्र के 70 सालों में, विकेंद्रीयकरण का भाव कहीं नजर नहीं आता है. हालांकि, ग्राम न्यायालय एक्ट, 2009 ग्रामीणों को जल्द न्याय दिलाने के लिये लाया जा चुका है, लेकिन इसके सही तरह से लागू होने का इंतजार है. नेशनल प्रॉडक्टिविटी काउंसिल के मुताबिक़, 2009-18 के बीच, ग्रामीण कोर्ट बनाने के संबंध में केवल 11 राज्यों ने ही जरूरी नोटिफिकेशन जारी किये हैं.

पिछले साल ही, नेशनल फेडरेशन ऑफ सोसाइटीस फ़ॉर फास्ट जस्टिस ने एक पीआईएल जारी कर यह कहा था कि, घोषित 320 में से केवल 204 ग्रामीण न्यायालय ही काम कर रहे हैं. सर्वोच्च प्राधिकरण ने ग्रामीण अदालतों के खिलाफ़ दायर याचिकाओं के मद्देनजर कई दिशा-निर्देश जारी किये हैं. यह आरोप है कि, यह आदालतें संविधान के आर्टिकल 39-A के नियमों के तहत नही बने हैं और मौजूदा न्याय प्रणाली से गरीब तपके के लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.

एन वी रमन्ना, संजीव खन्ना और कृष्णा मुरारी वाली तीन सदसीय बेंच ने यह आदेश दिये थे कि जिन राज्यों ने ग्रामीण अदालतों के गठन के लिये कदम नहीं उठाये हैं, वो चार हफ्तों में ऐसा करें. बेंच ने यह साफ किया कि, राज्य हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, राज्य सरकारों के साथ सलाह कर ऐसी ग्राणीण अदालतों की स्थापना और भर्ती में तेजी लाने में मदद करें. पिछले दिशानिर्देशों के आधार पर कोर्ट ने, छत्तीसगढ़, गुजरात, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और ओडिशा द्वारा शपथ पत्र न दिये जाने को अवमानना करार दिया है. अब जबकि सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में दखल दिया है तो, आने वाले समय में ग्रामीण अदालतों की स्थापना की उम्मीद जगी है.

भारत में गांव और उसके कानून का सुझाव लंबे समय से था. राछाबंदा या गांव के विवादों को, गांव के बुजुर्गों द्वारा सुलझाये जाने की परंपरा लंबे समय से चली आ रही थी. इसके चलते गांव के लोग अदालतों के चक्कर लगाने से बच जाते थे. चालीस साल पहले, गांवों को न्याय देने के लिये 30,000 कानूनी पैनलों की स्थापना की गई थी. तीन दशक पहले, जब एनटीआर सरकार ने मंडल प्रजा परिषद बिल को पेश किया था तो कांग्रेस ने इसका विरोध किया था. एनटीआर ने इस बिल को पास तो करा लिया था लेकिन साल भर के अंदर ही यह दोबारा गिर गया.

मनमोहन सिंह सरकार ने समाज के सभी वर्ग के लोगों तक न्याय पहुंचाने के लिये ग्रामीण अदालतों की बात कही थी. हालांकि, पहले दौर में 5,000 ग्रामीण अदालतों की स्थापना की बात कही गई थी, लेकिन आंध्र प्रदेश के तत्तकालीन मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी ने इसका विरोध किया था. आखिरकार तेलंगाना में 55 और आंध्र प्रदेश में 82 ग्रामीण अदालतें स्थापित हो चुकी हैं, लेकिन इसके बाद की तस्वीर अच्छी नहीं. अगर न्यायिक प्रक्रियाओं का विकेंद्रीयकरण सही तरह से होता है, तो ही ग्रामीण आबादी को इसका फायदा मिलेगा.

जुलाई 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने 1979 में दायर दूध में मिलावट के एक मामले को खारिज कर दिया. यह मामला सबसे पहले मेजिस्ट्रेट कोर्ट में, उसके बाद सेशन कोर्ट और हाई कोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था. इसके चलते इस केस में फ़ैसला आते आते चालीस साल लग गये. देश की अदालतों में ऐसे हजारों मामले लंबित चल रहे हैं क्योंकि अदालतों में, और खासतौर पर निचली अदालतों में कर्मचारियों की भारी कमी है. भारतीय न्याय प्रणाली इस तरह काम करती है कि मामले की सुनवाई होते होते याचिकाकर्ता के पैसे और संसाधन खत्म हो जाते हैं.

देश में 70% ग्रामीण आबादी और उसमें से भी अधिकतर गरीब तपके से होने के कारण न्याय एक मृग तृष्णा जैसा बन गया है. कानून कहता है कि, कानूनी दायरे में काम करते हुए अदालतों को सिविल मामलों में सबूतों पर जोर न देते हुए इन्हें छह महीने में निपटा लेना चाहिये. 1986 में लॉ कमीशन की रिपोर्ट में यह कहा गया था कि, अधिकार क्षेत्र के आधार पर अदालतों की स्थापना से बड़ी अदालतों के काम के बोझ को कम किया जा सकता है.

देश के 50,000 ब्लॉकों में अगर अदालतों का गठन हो जाता है तो ग्रामीण और शहरी आबादी के लिये काफ़ी राहत होगी. सुप्रीम प्राधिकरण ने यह बात भी कही है कि ऐसी अदालतों के गठन पर होने वाले खर्च का दोबारा अनुमान लगाना चाहिये और इसका वहन केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर करना चाहिये. न्याय का अधिकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों में शामिल है और इसलिये सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का स्वागत होना चाहिये.

महात्मा गांधी का मानना था कि, देश की आजादी की कुंजी उसके गांवों के विकास में है. भारतीय गणतंत्र के 70 सालों में, विकेंद्रीयकरण का भाव कहीं नजर नहीं आता है. हालांकि, ग्राम न्यायालय एक्ट, 2009 ग्रामीणों को जल्द न्याय दिलाने के लिये लाया जा चुका है, लेकिन इसके सही तरह से लागू होने का इंतजार है. नेशनल प्रॉडक्टिविटी काउंसिल के मुताबिक़, 2009-18 के बीच, ग्रामीण कोर्ट बनाने के संबंध में केवल 11 राज्यों ने ही जरूरी नोटिफिकेशन जारी किये हैं.

पिछले साल ही, नेशनल फेडरेशन ऑफ सोसाइटीस फ़ॉर फास्ट जस्टिस ने एक पीआईएल जारी कर यह कहा था कि, घोषित 320 में से केवल 204 ग्रामीण न्यायालय ही काम कर रहे हैं. सर्वोच्च प्राधिकरण ने ग्रामीण अदालतों के खिलाफ़ दायर याचिकाओं के मद्देनजर कई दिशा-निर्देश जारी किये हैं. यह आरोप है कि, यह आदालतें संविधान के आर्टिकल 39-A के नियमों के तहत नही बने हैं और मौजूदा न्याय प्रणाली से गरीब तपके के लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.

एन वी रमन्ना, संजीव खन्ना और कृष्णा मुरारी वाली तीन सदसीय बेंच ने यह आदेश दिये थे कि जिन राज्यों ने ग्रामीण अदालतों के गठन के लिये कदम नहीं उठाये हैं, वो चार हफ्तों में ऐसा करें. बेंच ने यह साफ किया कि, राज्य हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, राज्य सरकारों के साथ सलाह कर ऐसी ग्राणीण अदालतों की स्थापना और भर्ती में तेजी लाने में मदद करें. पिछले दिशानिर्देशों के आधार पर कोर्ट ने, छत्तीसगढ़, गुजरात, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और ओडिशा द्वारा शपथ पत्र न दिये जाने को अवमानना करार दिया है. अब जबकि सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में दखल दिया है तो, आने वाले समय में ग्रामीण अदालतों की स्थापना की उम्मीद जगी है.

भारत में गांव और उसके कानून का सुझाव लंबे समय से था. राछाबंदा या गांव के विवादों को, गांव के बुजुर्गों द्वारा सुलझाये जाने की परंपरा लंबे समय से चली आ रही थी. इसके चलते गांव के लोग अदालतों के चक्कर लगाने से बच जाते थे. चालीस साल पहले, गांवों को न्याय देने के लिये 30,000 कानूनी पैनलों की स्थापना की गई थी. तीन दशक पहले, जब एनटीआर सरकार ने मंडल प्रजा परिषद बिल को पेश किया था तो कांग्रेस ने इसका विरोध किया था. एनटीआर ने इस बिल को पास तो करा लिया था लेकिन साल भर के अंदर ही यह दोबारा गिर गया.

मनमोहन सिंह सरकार ने समाज के सभी वर्ग के लोगों तक न्याय पहुंचाने के लिये ग्रामीण अदालतों की बात कही थी. हालांकि, पहले दौर में 5,000 ग्रामीण अदालतों की स्थापना की बात कही गई थी, लेकिन आंध्र प्रदेश के तत्तकालीन मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी ने इसका विरोध किया था. आखिरकार तेलंगाना में 55 और आंध्र प्रदेश में 82 ग्रामीण अदालतें स्थापित हो चुकी हैं, लेकिन इसके बाद की तस्वीर अच्छी नहीं. अगर न्यायिक प्रक्रियाओं का विकेंद्रीयकरण सही तरह से होता है, तो ही ग्रामीण आबादी को इसका फायदा मिलेगा.

जुलाई 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने 1979 में दायर दूध में मिलावट के एक मामले को खारिज कर दिया. यह मामला सबसे पहले मेजिस्ट्रेट कोर्ट में, उसके बाद सेशन कोर्ट और हाई कोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था. इसके चलते इस केस में फ़ैसला आते आते चालीस साल लग गये. देश की अदालतों में ऐसे हजारों मामले लंबित चल रहे हैं क्योंकि अदालतों में, और खासतौर पर निचली अदालतों में कर्मचारियों की भारी कमी है. भारतीय न्याय प्रणाली इस तरह काम करती है कि मामले की सुनवाई होते होते याचिकाकर्ता के पैसे और संसाधन खत्म हो जाते हैं.

देश में 70% ग्रामीण आबादी और उसमें से भी अधिकतर गरीब तपके से होने के कारण न्याय एक मृग तृष्णा जैसा बन गया है. कानून कहता है कि, कानूनी दायरे में काम करते हुए अदालतों को सिविल मामलों में सबूतों पर जोर न देते हुए इन्हें छह महीने में निपटा लेना चाहिये. 1986 में लॉ कमीशन की रिपोर्ट में यह कहा गया था कि, अधिकार क्षेत्र के आधार पर अदालतों की स्थापना से बड़ी अदालतों के काम के बोझ को कम किया जा सकता है.

देश के 50,000 ब्लॉकों में अगर अदालतों का गठन हो जाता है तो ग्रामीण और शहरी आबादी के लिये काफ़ी राहत होगी. सुप्रीम प्राधिकरण ने यह बात भी कही है कि ऐसी अदालतों के गठन पर होने वाले खर्च का दोबारा अनुमान लगाना चाहिये और इसका वहन केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर करना चाहिये. न्याय का अधिकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों में शामिल है और इसलिये सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का स्वागत होना चाहिये.

Last Updated : Mar 1, 2020, 3:35 AM IST
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