गांधी जी का 150वां जयंती वर्ष उनकी शहादत का 70वां वर्ष भी है. ऐसे में गांधीजी के मृत्यु संबंधी विचारों पर बात करना एकदम प्रासंगिक है. ऐसा शायद ही कोई आयाम रहा हो जिस पर गांधीजी ने लिखा-बोला न हो.
मृत्यु के संबंध में भी उन्होंने काफी विस्तार से बात की है. अपने राजनीतिक जीवन के एकदम शुरूआती दिनों से ही उन्होंने अभय पर बहुत जोर दिया था. वह निर्भयता उन्हें किसी भी प्रकार के भय से मुक्त करती थी इसलिए वह सबसे बड़े भय यानी मृत्यु के भय से भी स्वयं को मुक्त कर सके.
अपनी किताब दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास में गांधी ने लिखा है कि मृत्यु के सम्बन्ध में सभी को 'ईश्वर में बेहिचक आस्था रखनी चाहिए.' जीवन और मृत्यु के अंतर्संबंध को खालिस भारतीय परंपरा में व्याख्यायित करते हुए वो लिखते हैं कि मृत्यु के सामने आने पर उस तरह आनंदित होना चाहिए 'जैसे कोई युगों से बिछड़े किसी मित्र से मिलने पर आनंदित होता है.'
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यानी गांधी जी दक्षिण अफ्रीका के दिनों से ही मृत्यु को एक 'बिछड़ा हुआ दोस्त' मानने लगे थे. 30 दिसम्बर 1926 को उन्होंने यंग इंडिया में इसी सन्दर्भ में यहां तक कहा कि 'मृत्यु कोई शत्रु (Fiend) नहीं है, यह सबसे सच्ची मित्र है.'
इस तरह मृत्यु उनके लिए कोई ऐसी घटना नहीं थी जिसके बारे में सोचकर भयभीत हुआ जाए. इसी तरह एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा था कि 'मृत्यु किसी भी क्षण एक सौभाग्य है.' लेकिन 'एक योद्धा के लिए यह सौभाग्य दोगुना हो जाता है, जो अपने उद्देश्य और सत्य के लिए मारा जाए.'
यहां वो सत्य की अवधारणा को अभय के साथ इस तरह जोड़ देते हैं, जिसे अलग नहीं किया जा सकता.
यही वजह है कि गांधीजी अपने सत्य की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए हरदम तैयार रहते हैं. आचार्य जे. बी. कृपलानी जोकि गांधीजी की रणनीति को बारीकी से समझते हैं, वह लिखते हैं कि जब कभी गांधीजी के लिए शहादत के मौके कम पड़ने लगते थे तो वो नए मौके पैदा करने की कोशिश में जुट जाते थे. इसीलिए उनकी हत्या की तमाम कोशिशें 30 जनवरी 1948 के पहले भी की गईं.
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दक्षिण अफ्रीका के समय तो उन्हें पीट-पीटकर मारने तक का प्रयास किया गया. किसी तरह उनकी एक अंग्रेज मित्र की मदद से जान बची. उसके बाद भारत में 1934 के बाद से लगातार उन्होंने अपने प्राण दांव पर लगाए रखे.
अपनी हत्या के कुछ समय पूर्व वो समझ गए थे कि अब भारतीय राष्ट्र को उनके जीवन की नहीं उनके प्राणों की जरूरत है. महज एक साल पहले तक 125 वर्ष तक जीने की इच्छा रखने वाले गांधीजी अपने ऊपर 1944 के बाद से लगातार हो रहे हमलों के बावजूद किसी भी तरह की सुरक्षा के बारे में कभी नहीं सोचते थे.
इस तरह देखा जाए तो गांधीजी ने मृत्यु के भय से अपने को बहुत पहले ही उबार लिया था. यही अभय उन्हें अलोकप्रिय मुद्दों को भी अपना सत्य मानकर आगे बढ़ने का साहस देता था. चाहे वह हरिजन यात्रा का निर्णय हो या 1946 के बाद साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष- गांधीजी अकेले चलने से एक क्षण भी नहीं हिचके.
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नोआखाली के गांवों में अपने छोटे-से दल के साथ हिन्दुओं की रक्षा के लिए घूमते गांधीजी उन इलाकों में कोई लोकप्रिय नेता नहीं थे. लेकिन उनका नैतिक प्रभाव समाज पर ऐसा था कि लोग न तो उन्हें नजरअंदाज कर सकते थे, न ही उनकी बात टाल सकते थे. इन्हीं अर्थों में गांधीजी एक महात्मा थे जिन्होंने जीवन और मृत्यु को एक शाश्वत नियम मानकर स्वयं को भयमुक्त कर लिया था.
सौरभ बाजपेयी का आलेख
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में इतिहास के सहायक व्याख्याता (lecturer) भी हैं. सौरभ बाजपेयी राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट के संयोजक भी हैं. ये फ्रंट स्वाधीनता संघर्ष का प्रतिनिधि संगठन रहा है.)
ये लेखक के निजी विचार हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.