वर्ष 1988 का समय था. आरके यादव खुफिया विभाग में कार्यरत थे. वह असम में तैनात थे. उन्होंने एक खुफिया एजेंसी ऑपरेशन को करीब से देखा, जिसमें बोडो युवाओं को हथियार और ट्रेनिंग दिए जा रहे थे.
उन्होंने इसका विरोध किया. बाद में उन्हें ही सेवा से निकाल दिया गया. इसका उल्लेख खुद यादव ने अपनी एक किताब में किया है. असम के एक राज्यसभा सांसद नागेन सैकिया ने भी इस मुद्दे को सदन के पटल पर रखा था. सैकिया 1986-1992 तक राज्यसभा के सदस्य रहे और 1990-1992 तक इसी सदन के उपाध्यक्ष भी रहे.
इन प्रशिक्षित युवाओं ने बाद में एक खतरनाक आतंकवादी संगठन बोडो लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) का गठन किया. इसने आईईडी के उपयोग में महारत हासिल कर ली थी. तब से, पश्चिमी असम में बोडो सशस्त्र संगठनों की संख्या में काफी इजाफा हुआ. भले ही हर संगठन की मांग अलग-अलग होती थी.
मंगोलोइड प्रजाति से संबंध रखने वाले बोडोस असम के सबसे पुराने निवासियों में से एक हैं. उनकी भाषा तिब्बती-बर्मी है.
ऐसा माना जाता है कि असम गण परिषद के बढ़ते प्रभाव को काउंटर करने के लिए बोडोस को कथित तौर पर सरकार ने समर्थन दिया था.
मंडे पैक्ट
बोडो आंदोलन के इतिहास में 27 जनवरी 2020 बहुत ही महत्वपूर्ण दिन साबित हुआ. सशस्र बोडो संगठनों में से प्रमुख नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड ने सरकार के साथ त्रिपक्षीय समझौता कर लिया. यह समझौता पहले के दो अन्य समझौतों की तार्किक परिणति थी. 1993 में एबीएसयू के साथ समझौते से बोडोलैंड स्वायत्त परिषद का निर्माण हुआ. 2003 में बीएलटी के साथ समझौते से बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) का निर्माण हुआ और उसे पहले के मुकाबले अधिक राजनीतिक शक्तियां दी गईं.
लगभग तीन दशक पुराने बोडो आंदोलन के दौरान लगभग 4,000 लोगों की जानें चली गईं. 30 जनवरी को एक औपचारिक समारोह में 1,500 से अधिक एनडीएफबी आतंकवादी अपने हथियारों का आत्मसमर्पण करेंगे. कुछ दिनों पहले एनडीएफबी कैडर म्यांमार से भारत (मणिपुर के मोरेह और नागैलैंड के लोंगवा) की ओर आ गए थे.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में सोमवार को हुए तीन पक्षों के समझौते में केंद्रीय गृह मंत्रालय, असम सरकार और बोडो प्रतिनिधि शामिल थे. इसमें एनडीएफबी, ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन और यूनाइटेड बोडो पीपुल्स ऑर्गनाइजेशन शामिल थे.
आपको बता दें कि एबीएसयू ने सत्तर के दशक की शुरुआत से बोडो के लिए एक अलग राज्य की मांग का नेतृत्व किया. यूबीपीओ मुख्य रूप से बोडो संस्कृति तथा आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों के संरक्षण को लेकर संघर्षरत रहा है. सोमवार को हुए समझौते में इसका पूरा ख्याल रखा गया है. हां, अलग राज्य की मांग नहीं मानी गई.
लंबे समय से की जा रही है मांग
असम के सबसे बड़े आदिवासी समुदाय बोडो की लंबे समय से कई मांगें थीं. ब्रह्मुपत्र घाटी में बांग्ला भाषियों के खिलाफ उनकी मांगें थीं. बांग्लादेश से आने वाले प्रवासियों (मुख्य रूप से मुस्लिमों) के खिलाफ भी उनकी शिकायतें थीं. उनमें अलगाव की भावना घर कर गई. उन्हें लगता था कि उनके साथ गलत हुआ है.
दरअसल, पश्चिमी असम के बड़े क्षेत्र में बोडो किसानों की जमीनें थीं. वे पारंपरिक तरीके से शिफ्टिंग कल्टीवेशन करते थे. गैर बोडो लोग इस जमीन को देखकर अपने को रोक नहीं सके. यहां आकर बसने लगे.
नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और मिजोरम को असम से काटकर बनाया गया. वहां की स्थानीय जनजातीय आबादी की मांगें मान ली गईं. लेकिन बोडो की मांगों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया.
लेकिन बोडो जिस क्षेत्र पर बसे हुए हैं, वह बहुत ही महत्वपूर्ण है. 22 किसी के चौड़े चिकन नेक इलाके में उनका दबदबा है. यह क्षेत्र भारत की मुख्य भूमि को उत्तर पूर्व इलाके से जोड़ता है. इसे पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार भी कहते हैं. इस इलाके के उत्तर में भूटान और दक्षिण में बांग्लादेश का क्षेत्र है.
राजनीतिक प्रभाव
2001 से बोडोस ने हमेशा केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के साथ तालमेल बनाकर रखा है. अभी भी यह ट्रेंड जारी है. वैसे भी असम में 2021 में चुनाव होने वाले हैं. नागरिकता संशोधन कानून को लेकर राज्य के कई इलाकों में असंतोष की भावना है. भाजपा और कोई जोखिम नहीं लेना चाहेगी. बोडोलैंड वाले इलाके में विधानसभा की 16 सीटें हैं. असम में कुल 126 विधानसभा की सीटें हैं.
मोदी सरकार एक्ट ईस्ट नीति पर भी जोर दे रही है. ऐसे में जाहिर है कि इस इलाके में जो भी विवाद हैं, सरकार उसे जरूर निपटाना चाहेगी, ताकि वे अपनी नीतियों को अंजाम दे सकें. द. पूर्व एशिया के साथ आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंधों को सरकार जरूर प्रगाढ़ करना चाहेगी. यह कदम उसमें मददगार हो सकता है.
हकीकत ये भी है कि बोडोलैंड का विरोध लंबे समय से चल रहा है. इस आंदोलन की गति भी अब मंद पड़ने लगी थी. इन्हें भी एक फेस सेविंग समझौता चाहिए था. दूसरी ओर केन्द्र और असम सरकार को भी अपनी एक उपलब्धि दिखानी थी. असम का और बंटवारा संभव नहीं है. लिहाजा, उन्हें समझौते के लिए मनाया गया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को ट्वीट किया, 'आज बोडो समझौते की कई वजहें सामने आई हैं. यह सफलतापूर्वक एक फ्रेमवर्क के तहत अग्रणी हितधारकों को एक साथ लाता है, जो पहले सशस्त्र प्रतिरोध समूहों से जुड़े थे, वे अब मुख्यधारा में प्रवेश करेंगे और हमारे देश की प्रगति में योगदान देंगे.'
समझौते के प्रावधान
समझौते के प्रावधानों के तहत बोडो के लिए भौगोलिक रूप से सन्निहित क्षेत्र की स्थापना करने की कोशिश की गई है. साथ ही गैर-बोडो क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हित का भी ध्यान रखा गया है. नवगठित बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन के लिए फंडिंग की मुख्य जिम्मेवाही केन्द्र सरकार की है, ना कि राज्य सरकार की. सभी अधिकारियों और सार्वजनिक नियुक्तियों, पोस्टिंग और ट्रांसफर का फैसला बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल करेगी. बीटीआर में कौन होगा, इसका भी फैसला काउंसिल ही करेगा. वित्तीय पैकेज आवंटित करने के अलावा, इनकी प्राथमिकताओं में भूमि अधिकार, बोडो संस्कृति का संरक्षण और बोडो भाषा को बढ़ावा देना भी है.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, 'इस समझौते से बोडो क्षेत्रों के सर्वांगीण विकास में मदद मिलेगी, उनकी भाषा और संस्कृति असम की क्षेत्रीय अखंडता से समझौता किए बिना सुरक्षित रहेगी.'
दूसरे शब्दों में, बीटीआर के विकास की जिम्मेवारी बोडो को दी गई है. केन्द्र की निगरानी और उसके समन्वय में पूरी प्रक्रिया आगे बढ़ेगी. राज्य की भूमिका काफी हद तक कम हो गई है. हालांकि, अलग राज्य या केन्द्र शासित प्रदेश की मांग नहीं मानी गाई.
(संजीव बरूआ)