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विशेष : महामारियां, सिनेमा और उनका कड़वा सच

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Published : Apr 14, 2020, 2:44 PM IST

महामारी पर बनी फिल्मों से मिलने वाले सबक स्पष्ट है. महामारी एक अदृश्य दुश्मन से कोई अकेले नहीं लड़ सकता. इसके लिए टीम वर्क और सहयोग की जरूरत है. संदर्भ के बगैर नीति अर्थहीन है. यदि बीमारी ठीक हो जाती है, लेकिन लोग भुखमरी से मर जाते हैं तो यह मानवीय भावना की जीत नहीं है, बल्कि उन सभी की हार है जो महान और मानवीय हैं.

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कोरोना वायरस और कड़वा सच

जब 2011 में कोंटाजिओन फिल्म परदे पर दिखाई गई, तो उसके काले पहले दृश्य और काली खांसी से ऐसा लगा मानों स्टीवन सोडरबर्ग की कल्पना ने अपनी उड़ान पूरी कर ली. अमेरिका पर 9/11 को हुए आतंकी हमले के दस साल बाद नौ सितंबर को रिलीज हुई इस फिल्म में चीन से एक स्पर्श से फैले त्वरित संक्रमण के कारण खाली हवाईअड्डे, कूड़े-कचरे से भरी सड़कें, दुकानों में घबराहट के दृश्य देखने को मिले. यह एक डरावना सपना जैसा था जिसमें मां का प्यार भरा आलिंगन जहरीला बन जाता है और एक प्रेमी का चुंबन मृत्यु का चुंबन.

लेकिन आज जब आप किसी को फोन करें तो सामने से काली खांसी की आवाज रिंग टोन आपका स्वागत करती है. अगर चेतावनी नहीं दी गई होती तो किसी भी किराने की दुकान पर आपको लोग रोज मर्रा का सामान खरीदने के लिए एक दूसरे पर गिरे दिखते. जहां तक हवाई अड्डों की बात है तो हाल में सबने वह देखा है? और हां, इस बीमारी का वैक्सीन भी नहीं है और इसके इलाज का तरीका भी मालूम नहीं है.

लेकिन जब हॉलीवुड की बात आती है, तो रुपहले परदे की दुनिया हमेशा वास्तविकता से आगे रही है. 1995 में सिनेमा के इसी रुपहली परदे पर डस्टिन हॉफमैन और मॉर्गन फ्रीमैन को एक घातक फ्लू से एक शहर के मनुष्यों को बचाने के लिए युद्ध में जाना पड़ा. 2015 में 'मैड मैक्स: फ्यूरी रोड' में एक जलविहीन डिस्टोपिया को दिखाया गया, तब तक मौसम परिवर्तन दुनिया पर असर करते दिखाई देने लगा. और इसने 2016 में मार्गरेट एटवुड की 'द हैण्ड मैड'स टेल' में एक ऐसे स्त्रीविरोधी राष्ट्रपति को चित्रित किया, जो खुशी से संविधान को निलंबित कर सकता है.

यह हमारे गहरे डर और हमारी सबसे डरावनी कल्पनाओं को जीवंत करती है. इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हॉलीवुड के पास 42 बिलियन डॉलर से अधिक का वैश्विक राजस्व है और 30 बिलियन डॉलर से अधिक का राजस्व अमेरिका के बाहर से आता है, जिससे यह वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय महाशक्ति बन जाता है.

हमारी अंतरंग चिंताओं को उच्च कला द्वारा विस्तार करने की इसकी क्षमता अति विशाल है. मैक्सिकन अल्फोंसो क्यूरोन द्वारा निर्देशित 'चिल्ड्रन ऑफ मेन' (2016) को लें. यह एक ऐसी दुनिया की कहानी है, जहां एक वायरस ने महिलाओं को बांझ कर दिया है, और कोई उम्मीद नहीं बची है - सिवाय एक युवा महिला के जो गर्भवती हो जाती है और उसे उग्र भीड़ के बीच सुरक्षित स्थान पर ले जाना पड़ता है.

'28 डेज लेटर' (2002) में कल की डायस्टोपियन दुनिया में क्रोध का एक प्रमुख रूपांकन है, चाहे वह पोस्ट एपोकैलिप्टिक दुनिया हो, सिलियन मर्फी का 'मैन इन अ कोमा' एक क्रोध वायरस द्वारा मनुष्यों को संक्रमित करता है. 'ब्लाइंडनेस' (2008) में क्रोध सतह के नीचे बुलबुलाता है जो जोस सारामागो के अंधा कर देने वाले वायरस से संक्रमित दुनिया के बारे में शानदार उपन्यास पर आधारित है. यहां भी, महिलाओं को सेक्स का अंतिम बलिदान करना पड़ता है - भोजन के प्रभारी अंधे पुरुष इसे केवल सेक्स के बदले में देंगे.

मानवता हाल के दिनों में सबसे खराब स्थिति में है. सहानुभूतिहीन चुने हुए नेता जो पहचान के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव करते हैं चाहे यह पहचान धर्म, लिंग या जाति के आधार पर हो. यह जन समुदायों से कटे हुए है और उन गिने-चुने गुटों में बटे हैं जहां प्रत्येक व्यक्ति स्वकेंद्रित है. इसलिए फिल्मी खलनायक भी तेजी से रूपांतरित हो गए हैं. फिल्मों ने भी इस बात को जाना कि हमारे सबसे बड़े डर अपने भीतर हैं जो युद्ध करने वाली बड़ी सरकारों से लेकर मौत को अंजाम देने वाले आतंकवादी संगठनों को पता है.

लेकिन महामारी पर बनी फिल्मों से मिलने वाले सबक स्पष्ट है. महामारी हमें सामाजिक दूरी को बनाए रखते हुए जहां एक-दूसरे का दुश्मन बनाती है, वहीं यह हमें साथ भी लाती है. एक अदृश्य दुश्मन से कोई अकेले नहीं लड़ सकता. इसके लिए टीम वर्क और सहयोग की जरूरत है. संदर्भ के बगैर नीति अर्थहीन है. यदि बीमारी ठीक हो जाती है, लेकिन लोग भुखमरी से मर जाते हैं तो यह मानवीय भावना की जीत नहीं है, बल्कि उन सभी की हार है जो महान और मानवीय हैं.

जैसा कि भारत के प्रमुख वायरलॉजिस्टों में से एक शाहिद जमील कहते हैं: 'यह वायरस अमीर और गरीब, शाही और सामान्य के बीच भेद नहीं करता. यह सबको एक समान बना देता है. यह समावेशी है - यह धर्म, जाति, आर्थिक स्थिति, लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता है.'

आशिक अबू की मलयालम फिल्म वायरस (2019), जिसमें उस क्षेत्र के बेहतरीन सितारे थे, एक मेडिकल थ्रिलर है जो 2018 के निप्पा प्रकोप पर आधारित है. केएस शैलजा टीचर (फिल्म में वह सीके प्रमेला बन जाती है और रेवती द्वारा निभाई जाती है) से कोझिकोड अस्पताल के डॉक्टरों और नर्सों तक पहुंची छूत की बिमारी, जहां पहली बार राज्य के नौकरशाहों को इस संक्रमण के बारे में पता चला, यह फिल्म दर्शाती है कि कैसे आपातकाल में एक अलर्ट पब्लिक हेल्थ सिस्टम चुनौती का सामना कर सकता है. इस फिल्म ने एक साथ काम करने की ताकत को भी दिखाया, जिसका कुछ एहसास देर से ही सही समूचे देश को आज हो रहा है. विपत्ति के समय कैसे राज्य सरकारें गैर-सरकारी संगठन, परोपकारी कंपनिया और उदार व्यक्ति साथ मिलकर काम करते हैं.

जब दीपा मेहता पिछले साल नेटफ्लिक्स की मिनी सीरीज लीला को प्रमोट कर रही थीं, जिसमें से वे क्रिएटिव डायरेक्टर थीं, तब उन्होंने कहा, 'हम सब अब शालिनी हैं.' मुख्य नायक की तरह, जो चारदीवारी के भीतर एक आरामदायक मध्यम वर्ग का जीवन जीते है, बाहरी दुनिया को हो रही पीने के पानी की किल्लत से बेखबर क्योंकि हम एवियन पानी पीते हैं और वोग्मास्क पहनते हैं. यह एक डायस्टोपिया था, जो प्रयाग अकबर की किताब पर आधारित थी, जो वास्तविक थी, जो महिलाओं के गर्भ से युद्ध और प्रकृति से युद्ध का सम्मिश्रण थी.

लीला में दुनिया फिर कभी वापस नहीं आती जब कि ब्रह्मांड के पास अभी भी समय है.

(लेखक- कावेरी बामजाई)

जब 2011 में कोंटाजिओन फिल्म परदे पर दिखाई गई, तो उसके काले पहले दृश्य और काली खांसी से ऐसा लगा मानों स्टीवन सोडरबर्ग की कल्पना ने अपनी उड़ान पूरी कर ली. अमेरिका पर 9/11 को हुए आतंकी हमले के दस साल बाद नौ सितंबर को रिलीज हुई इस फिल्म में चीन से एक स्पर्श से फैले त्वरित संक्रमण के कारण खाली हवाईअड्डे, कूड़े-कचरे से भरी सड़कें, दुकानों में घबराहट के दृश्य देखने को मिले. यह एक डरावना सपना जैसा था जिसमें मां का प्यार भरा आलिंगन जहरीला बन जाता है और एक प्रेमी का चुंबन मृत्यु का चुंबन.

लेकिन आज जब आप किसी को फोन करें तो सामने से काली खांसी की आवाज रिंग टोन आपका स्वागत करती है. अगर चेतावनी नहीं दी गई होती तो किसी भी किराने की दुकान पर आपको लोग रोज मर्रा का सामान खरीदने के लिए एक दूसरे पर गिरे दिखते. जहां तक हवाई अड्डों की बात है तो हाल में सबने वह देखा है? और हां, इस बीमारी का वैक्सीन भी नहीं है और इसके इलाज का तरीका भी मालूम नहीं है.

लेकिन जब हॉलीवुड की बात आती है, तो रुपहले परदे की दुनिया हमेशा वास्तविकता से आगे रही है. 1995 में सिनेमा के इसी रुपहली परदे पर डस्टिन हॉफमैन और मॉर्गन फ्रीमैन को एक घातक फ्लू से एक शहर के मनुष्यों को बचाने के लिए युद्ध में जाना पड़ा. 2015 में 'मैड मैक्स: फ्यूरी रोड' में एक जलविहीन डिस्टोपिया को दिखाया गया, तब तक मौसम परिवर्तन दुनिया पर असर करते दिखाई देने लगा. और इसने 2016 में मार्गरेट एटवुड की 'द हैण्ड मैड'स टेल' में एक ऐसे स्त्रीविरोधी राष्ट्रपति को चित्रित किया, जो खुशी से संविधान को निलंबित कर सकता है.

यह हमारे गहरे डर और हमारी सबसे डरावनी कल्पनाओं को जीवंत करती है. इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हॉलीवुड के पास 42 बिलियन डॉलर से अधिक का वैश्विक राजस्व है और 30 बिलियन डॉलर से अधिक का राजस्व अमेरिका के बाहर से आता है, जिससे यह वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय महाशक्ति बन जाता है.

हमारी अंतरंग चिंताओं को उच्च कला द्वारा विस्तार करने की इसकी क्षमता अति विशाल है. मैक्सिकन अल्फोंसो क्यूरोन द्वारा निर्देशित 'चिल्ड्रन ऑफ मेन' (2016) को लें. यह एक ऐसी दुनिया की कहानी है, जहां एक वायरस ने महिलाओं को बांझ कर दिया है, और कोई उम्मीद नहीं बची है - सिवाय एक युवा महिला के जो गर्भवती हो जाती है और उसे उग्र भीड़ के बीच सुरक्षित स्थान पर ले जाना पड़ता है.

'28 डेज लेटर' (2002) में कल की डायस्टोपियन दुनिया में क्रोध का एक प्रमुख रूपांकन है, चाहे वह पोस्ट एपोकैलिप्टिक दुनिया हो, सिलियन मर्फी का 'मैन इन अ कोमा' एक क्रोध वायरस द्वारा मनुष्यों को संक्रमित करता है. 'ब्लाइंडनेस' (2008) में क्रोध सतह के नीचे बुलबुलाता है जो जोस सारामागो के अंधा कर देने वाले वायरस से संक्रमित दुनिया के बारे में शानदार उपन्यास पर आधारित है. यहां भी, महिलाओं को सेक्स का अंतिम बलिदान करना पड़ता है - भोजन के प्रभारी अंधे पुरुष इसे केवल सेक्स के बदले में देंगे.

मानवता हाल के दिनों में सबसे खराब स्थिति में है. सहानुभूतिहीन चुने हुए नेता जो पहचान के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव करते हैं चाहे यह पहचान धर्म, लिंग या जाति के आधार पर हो. यह जन समुदायों से कटे हुए है और उन गिने-चुने गुटों में बटे हैं जहां प्रत्येक व्यक्ति स्वकेंद्रित है. इसलिए फिल्मी खलनायक भी तेजी से रूपांतरित हो गए हैं. फिल्मों ने भी इस बात को जाना कि हमारे सबसे बड़े डर अपने भीतर हैं जो युद्ध करने वाली बड़ी सरकारों से लेकर मौत को अंजाम देने वाले आतंकवादी संगठनों को पता है.

लेकिन महामारी पर बनी फिल्मों से मिलने वाले सबक स्पष्ट है. महामारी हमें सामाजिक दूरी को बनाए रखते हुए जहां एक-दूसरे का दुश्मन बनाती है, वहीं यह हमें साथ भी लाती है. एक अदृश्य दुश्मन से कोई अकेले नहीं लड़ सकता. इसके लिए टीम वर्क और सहयोग की जरूरत है. संदर्भ के बगैर नीति अर्थहीन है. यदि बीमारी ठीक हो जाती है, लेकिन लोग भुखमरी से मर जाते हैं तो यह मानवीय भावना की जीत नहीं है, बल्कि उन सभी की हार है जो महान और मानवीय हैं.

जैसा कि भारत के प्रमुख वायरलॉजिस्टों में से एक शाहिद जमील कहते हैं: 'यह वायरस अमीर और गरीब, शाही और सामान्य के बीच भेद नहीं करता. यह सबको एक समान बना देता है. यह समावेशी है - यह धर्म, जाति, आर्थिक स्थिति, लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता है.'

आशिक अबू की मलयालम फिल्म वायरस (2019), जिसमें उस क्षेत्र के बेहतरीन सितारे थे, एक मेडिकल थ्रिलर है जो 2018 के निप्पा प्रकोप पर आधारित है. केएस शैलजा टीचर (फिल्म में वह सीके प्रमेला बन जाती है और रेवती द्वारा निभाई जाती है) से कोझिकोड अस्पताल के डॉक्टरों और नर्सों तक पहुंची छूत की बिमारी, जहां पहली बार राज्य के नौकरशाहों को इस संक्रमण के बारे में पता चला, यह फिल्म दर्शाती है कि कैसे आपातकाल में एक अलर्ट पब्लिक हेल्थ सिस्टम चुनौती का सामना कर सकता है. इस फिल्म ने एक साथ काम करने की ताकत को भी दिखाया, जिसका कुछ एहसास देर से ही सही समूचे देश को आज हो रहा है. विपत्ति के समय कैसे राज्य सरकारें गैर-सरकारी संगठन, परोपकारी कंपनिया और उदार व्यक्ति साथ मिलकर काम करते हैं.

जब दीपा मेहता पिछले साल नेटफ्लिक्स की मिनी सीरीज लीला को प्रमोट कर रही थीं, जिसमें से वे क्रिएटिव डायरेक्टर थीं, तब उन्होंने कहा, 'हम सब अब शालिनी हैं.' मुख्य नायक की तरह, जो चारदीवारी के भीतर एक आरामदायक मध्यम वर्ग का जीवन जीते है, बाहरी दुनिया को हो रही पीने के पानी की किल्लत से बेखबर क्योंकि हम एवियन पानी पीते हैं और वोग्मास्क पहनते हैं. यह एक डायस्टोपिया था, जो प्रयाग अकबर की किताब पर आधारित थी, जो वास्तविक थी, जो महिलाओं के गर्भ से युद्ध और प्रकृति से युद्ध का सम्मिश्रण थी.

लीला में दुनिया फिर कभी वापस नहीं आती जब कि ब्रह्मांड के पास अभी भी समय है.

(लेखक- कावेरी बामजाई)

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