हैदराबाद : RCEP सौदे के लिए चल रही बातचीत के मद्देनजर, भारत के लिए व्यापार समझौते के कुछ संभावित सकारात्मक और नकारात्मक पहलू हैं. ईटीवी भारत के लिए एक विशेष साक्षात्कार में वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा ने वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार पूजा मेहरा से बात की. स्मिता ने थाईलैंड में होने वाले क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) शिखर सम्मेलन के संबंध में आसियान देशों के साथ बातचीत पर चर्चा की. भारत के लिए RCEP के संभावित परिणामों पर भी बात की गई.
सबसे पहले, नकारात्मक पहलू
मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) के लागू होने के बाद आमतौर पर ट्रेडिंग पार्टनर के साथ भारत का व्यापार संतुलन बिगड़ जाता है
आर्थिक सर्वेक्षण, 2017-18 ने भारत द्वारा हस्ताक्षरित मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) के प्रभाव का अध्ययन किया था. नीति आयोग द्वारा भारत के मौजूदा एफटीए का मूल्यांकन शिक्षाप्रद है. सर्वेक्षण ने निष्कर्ष निकाला कि एक एफटीए का औसत प्रभाव कुल व्यापार में लगभग चार वर्षों में लगभग 50 प्रतिशत की वृद्धि करना है. लेकिन व्यापार संतुलन की गुणवत्ता आमतौर पर भारत के लिए खराब हो जाती है. दूसरे शब्दों में, व्यापार घाटा बढ़ता है, या अधिशेष कम हो जाता है.
आसियान भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों में से एक है. आसियान के साथ व्यापक आर्थिक सहयोग करार (सीईपीए) 1 जनवरी, 2010 से शुरू हो गया था. जिसके बाद, 2009-10 में द्विपक्षीय व्यापार 43 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2018-19 में 97 बिलियन डॉलर हो गया. लेकिन आसियान के साथ भारत का व्यापार घाटा दुगने से ज्यादा हो गया, जोकि 2009-10 में 8 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2018-19 में $ 22 बिलियन से अधिक हो गया है.
ऐसा इसलिए है क्योंकि भारतीय निर्यात की तुलना में आसियान से आयात तेज गति से बढ़ रहा है. जहां तक एफ़टीए की बात है, भारत - आसियान के बीच 21 क्षेत्रों में से 13 में व्यापार संतुलन बिगड़ गया है. वो व्यापर के क्षेत्र जिनका नुक्सान हुआ है उनमें कपड़ा, रसायन, वनस्पति उत्पाद, आधार धातु, रत्न और आभूषण शामिल हैं. व्यापार अधिशेष क्षेत्रों में सुधार इतना मामूली था कि यह घाटे की भरपाई नहीं कर सका.
भारत के व्यापार संतुलन पर अधिकांश अन्य तरजीही व्यापार समझौतों का प्रभाव अलग नहीं है. भारत-कोरिया के बीच सीईपीए भी 1 जनवरी, 2010 से प्रभाव में आया था. तब से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 12 बिलियन डॉलर से बढ़कर 21.5 बिलियन डॉलर हो गया है. लेकिन फिर से, निर्यात की तुलना में आयात बहुत तेजी से बढ़ा. परिणामस्वरूप, कोरिया के साथ भारत का व्यापार घाटा लगभग तिगुना हो गया, जो 2009-10 में 5 बिलियन डॉलर से बढ़कर $ 12 बिलियन 2018-19 हो गया.
भारत-जापान सीईपीए 1 अगस्त, 2011 से लागू हो गया था. इसके बाद भारत का व्यापार घाटा वास्तव में भारत के विश्व भर से व्यापार घाटे की तुलना में कहीं अधिक तेजी से बढ़ गया है.
एकमात्र अपवाद जहां एक तरजीही व्यापार समझौते ने भारत के लिए व्यापार की गुणवत्ता में सुधार किया है, व्यापारिक साझेदार के माध्यम से साफ्टा(दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र) है जो 1 जनवरी 2006 से चालू हो गया था. 2005-06 से 2018-19 तक, साफ्टा अर्थव्यवस्थाओं के साथ भारत का व्यापार अधिशेष $ 4 बिलियन से बढ़कर 21 बिलियन डॉलर हो गया है.
मौजूदा एफटीए का अंतर्विभाग
भारत का व्यापार संतुलन अपने एफटीए साझेदारों के साथ खराब हो जाता है क्योंकि भारतीय निर्यातक तरजीही मार्गों का लाभ उठाने में विफल रहते हैं जितना कि व्यापारिक भागीदारों के निर्यातक करते हैं. वास्तव में, एफटीए के माध्यम से भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रतिशत बहुत कम है. एशियन डेवलपमेंट बैंक के अनुसार, एफटीए की उपयोग दर 25 प्रतिशत से कम है, जो एशिया में सबसे कम है.
मौजूदा एफटीए के कम इस्तेमाल का मुख्या कारण है कि भारतीय निर्यात क्षेत्र कम क्षमता के कारण बिखरा हुआ है जिससे मूल देश के मानदंडों के जटिल नियमों का पता लगाने के लिए आवश्यक अनुपालन लागत का पता नहीं लगा पाते हैं. निर्यातक सामान्य मार्ग का उपयोग करना ज्यादा पसंद करते हैं. मूल देश के कठोर नियमों के अलावा, दोषपूर्ण प्रतिबद्धताओं और जागरूकता की कमी भी महत्वपूर्ण सीमित कारक हैं. जो 1 अगस्त, 2011 को लागू हुए, भारत-जापान व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते (सीईपीए) का एक विशलेषण है जिसे भारतीय आर्थिक अनुसंधान परिषद (आईसीआरआईआर) के शोधकर्ता अर्पिता मुखर्जी, अंगना पराशर शर्मा और सोहम सिन्हा और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस एंड फाइनेंस की अनुसारी पॉल द्वारा किया गया है जो काफी व्यवहारिक है.
जापान जो कि एक प्रमुख वैश्विक परिधानों का आयातक है, यह दर्शाता है कि कैसे भारतीय निर्यातक शून्य टैरिफ होने के बावजूद उसके बड़े बाजार का हिस्स नहीं पा सकते हैं. भारत-जापान के बीच हुए आर्थिक भागीदारी समझौते के तहत, दोनों देशों ने परिधानों पर शुल्क शून्य कर दिया था. इसके बावजूद, जापान अभी भी भारत के शीर्ष परिधान निर्यात बाजारों में से एक नहीं है.
जापान के लिए परिधान निर्यात कुछ समय के लिए शुरुआती दौर के बाद से स्थिर रहा. हालाँकि, जापान में परिधानों का अपेक्षाकृत बड़ा और सकारात्मक व्यापार संतुलन बना हुआ है, जापानी बाजार में भारत की हिस्सेदारी बमुश्किल 0.09 प्रतिशत है. भारत के प्रतिद्वंद्वियों में चीन की सबसे बड़ी हिस्सेदारी 6.46 प्रतिशत है, इसके बाद वियतनाम (1.17 प्रतिशत) और बांग्लादेश (0.34 प्रतिशत) हैं.
घरेलू अड़चनें
भारतीय निर्यातकों को ज्यादा लेनदेन की लागत का सामना करना पड़ता है जिससे वे वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते हैं. ऊर्जा की कमी और सञ्चालन और क्रियांवन की लागत जैसे आपूर्ति पक्ष की बाधाओं से उनकी कीमत लचीली नहीं हो सकती हैं. नीति आयोग के विश्लेषण के अनुसार, भारत में लॉजिस्टिक्स की लागत विकसित देशों से लगभग दोगुनी है. भारत में औसत रसद लागत सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 15 प्रतिशत है जबकि विकसित देशों में ऐसी लागत लगभग 8 प्रतिशत है.
चीन के साथ व्यापार में घाटा
अभी कुछ हफ़्ते पहले भारत ने अगरबत्ती जैसी वस्तुओं पर आयात शुल्क बढ़ाया था क्योंकि वियतनाम और चीन के निर्माता भारत की तुलना में अधिक प्रतिस्पर्धी उत्पादन करने में सक्षम हैं. लेकिन आरसीईपी में शामिल होने के लिए, भारत को आसियान, जापान और दक्षिण कोरिया की लगभग 90 प्रतिशत वस्तुओं और चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के 74 प्रतिशत से अधिक टैरिफ को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध होना होगा.
लौह और इस्पात, डेयरी, समुद्री उत्पाद, इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद, रसायन और फार्मास्यूटिकल्स और कपड़ा सहित कई उद्योगों ने चिंता व्यक्त की है कि आरसीईपी के तहत प्रस्तावित टैरिफ उन्मूलन उन्हें अप्रतिस्पर्धी बना देगा.
आरसीईपी पर हस्ताक्षर के बाद, सस्ते चीनी आयात भारतीय बाजार में बाढ़ ला सकते हैं. वैसे भी, चीन के साथ भारत का समग्र व्यापार घाटा पिछले एक दशक में तेरह गुना बढ़ गया है. पड़ोसी देश अब भारत के व्यापार घाटे के आधे हिस्से का ज़िम्मेदार है. व्यापार विषमता माल प्रवाह की प्रकृति से और भी ज्यादा जटिल बन जाती है. भारत प्राथमिक उत्पादों जैसे अयस्क, खनिज और कपास का निर्यात करता है. भारत में चीनी निर्यात ज्यादातर उच्च गुणवत्ता वाले परिष्कृत उत्पादों की एक विस्तृत विविधता है जो यहां अधिक लाभ का आनंद लेते हैं और वहां अधिक नौकरियां पैदा करते हैं.
और, सकारात्मक पहलू
ऊपर सूचीबद्ध सभी कारणों के लिए, नीति आयोग अनुशंसा करता है कि आरसीईपी पर अंतिम बार विचार करते समय न केवल भारत को सावधानीपूर्वक अपने हितों और तुलनात्मक लाभों की रक्षा करनी चाहिए, भारत-आसियान के बीच एफ़टीए और कोरिया और जापान के साथ सीईपीए के प्रतिकूल प्रावधान पर भी समीक्षा होनी चाहिए. हालांकि, कुछ ऐसे अहम कारण हैं जो भारत को एफ़टीए पर हस्ताक्षर कार्नर लिए बाध्य बनाते हैं.
जीरो टैरिफ बनाम उच्च टैरिफ दरें
भारत ने अपने परिधान निर्यात के लिए प्रमुख बाजारों के साथ एफटीए में प्रवेश नहीं किया है, जैसे कि यूरोपीय संघ, अमेरिका और यूएई. इससे भारत नुकसानदेह स्थिति में रहता है, अपने उन प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले, जिनके पास वास्तव में इन देशों के साथ तरजीही व्यापार समझौते हैं. परिणामस्वरूप, भारत के परिधान निर्यात में गतिहीनता आई है. वित्त वर्ष 2017-18 में भारत से परिधान का निर्यात 3.8 प्रतिशत घट गया. भारत के प्रतिद्वंदी, जैसे कि दक्षिण कोरिया, के साथ यूरोपीय संघ या अमेरिका या दोनों के साथ व्यापार समझौते हैं.
भारत का शीर्ष परिधान निर्यात मद टी-शर्ट है, जिस पर अमेरिका 32 प्रतिशत टैरिफ दर लगाता है. लेकिन भारत के कई प्रतिद्वंदी जो अमेरिका में तरजीही व्यापार का आनंद लेते हैं, उन्हें शून्य टैरिफ पर टी-शर्ट निर्यात करते हैं. भारतीय रेशम के शॉल में अत्यधिक प्रतिस्पर्धी है, जिस पर अमेरिका 11.3 प्रतिशत की ऊंची दर लगाता है. भारत के प्रतियोगियों, जिनके पास अमेरिका के साथ एफटीए हैं, वे शून्य टैरिफ पर व्यापार करते हैं.
विश्व स्तर पर लोकलुभावनवाद का उदय
संरक्षणवादी उपायों की बढ़ती प्रवृत्ति और न केवल अमेरिका, बल्कि यूरोप में भी ऊँचे टैरिफ के खतरे से भारतीय निर्यात प्रतिस्पर्धात्मक धार को और कुंद सकते हैं. भारत के उन प्रतिद्वंद्वी जिनके पास तरजीही व्यापार के समझौते हैं, उन शर्तों के तहत टैरिफ बढ़ोतरी या व्यापार के लिए बढ़ी हुई बाधाओं के खिलाफ क्षतिपूर्ति का दावा कर सकते हैं. लेकिन एफटीए के बिना भारत ऐसा नहीं कर पाएगा.
श्रम का आवागमन
भारत का तुलनात्मक लाभ इसका कुशल श्रम है और प्रवासी भारतीयों द्वारा विदेश से भेजी जाने वाली निधि है. आरसीईपी सौदा से भारत के दृष्टिकोण से एक जीत होगी, अगर अन्य अर्थव्यवस्थाएं श्रमिकों की आवाजाही को आसान बनाने के क्षेत्र में सेवाओं में व्यापार करने के लिए अपने खुलेपन को बढ़ाने की पेशकश करती हैं, जिसका मतलब है कि काम का मिलना आसान और अधिक से अधिक संख्या में काम के लिए वीजा का मिलना आसान हो जायेगा. आप्रवासियों के प्रतिरोध की बढ़ती प्रवृत्ति भारत जैसे आबादी वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिए श्रम की गतिशीलता में वृद्धि का महत्व बढ़ाती है.
पूजा मेहरा दिल्ली की एक पत्रकार और द लॉस्ट डिकेड (2008-18): हाउ द इंडिया ग्रोथ स्टोरी देवोल्वड इन्टू ग्रोथ विथआउट अ स्टोरी की लेखिका हैं.