दुनिया की अधिकांश जगहों पर ज्यादातर लोग निश्चित ही ईमानदार हैं. हालांकि इसके बावजूद ईमानदारी की ओर अक्सर हमारा ध्यान आकर्षित हो जाता है. उदाहरण के लिए आइजोल से 65 किलोमीटर दूर सेलिंग के राजमार्ग के पास, स्थानीय समुदाय ने स्वदेशी रूप से एक जमीनी स्तर का काम शुरू किया है. इसे 'नगहा लो डावर संस्कृति' के रूप में जाना जाता है, जो ईमानदारी पर आधारित है.
बांस की झोपड़ियों में मानव निर्मित दुकानों की संख्या भी दोगुनी हो गई हैं. इनमें टंगे साइनबोर्ड पर वस्तुओं के नाम और कीमतों का जिक्र होता है. इन सामानों में सब्जियां, फल, फूल, फलों के रस की छोटी बोतलें, छोटी सूखी मछली और यहां तक कि ताजे पानी के घोंघे भी शामिल होते हैं. साइन बोर्ड पर चारकोल या चाक का उपयोग करके लिखा जाता है. ग्राहक बस चीजों को उठाते हैं और उसमें रखे कंटेनर में पैसा डाल देते हैं.
जरूरत पड़ने पर ग्राहक इन्हीं डब्बों से दुकानदार से अपने बचे हुए पैसे वापस लेते हैं. बस 'विश्वास' का सिद्धांत काम करता है ! दुकान के मालिक छोटे झूम (खेती को स्थानांतरित करना) के लिए खेतों और बगीचों में चले जाते हैं. इनके पास ऐसा कोई नहीं बचता जिसे दुकानदार के रूप में दुकान में ही रहने के लिए छोड़ा जा सके.
माय होम इंडिया' नामक एक एनजीओ द्वारा एक ट्वीट किए जाने के बाद मिजोरम के न्हाहा लो डावर (Nghah Lou Dawr) को खबरों में जगह मिली. इसे मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथांगा ने भी ट्वीट किया था. जोरमथांगा ने कहा था, 'इससे यह दिखता है कि कई विक्रेताओं और खरीदारों के लिए सुरक्षित सामाजिक संतुलन बनाए रखना आसान है.'
बिना दुकानदारों की ऐसी दुकानों के उदाहरण कई जगहों पर फैले हुए हैं. नागालैंड के लेशेमी गांव के कुछ किसानों और काश्तकारों ने भी इसका अभ्यास किया है. बेंगलुरु में 'ट्रस्ट शॉप' चेन ने ग्राहकों को 24x7 ताजा दक्षिण भारतीय भोजन की पेशकश की है. इनमें इडली / डोसा बैटर, गेहूं की चपातियां और मालाबार पराठे जैसे विकल्प शामिल किए गए हैं. कुछ मामलों में लगभग 90% सामान बिक जाता है, तो कई दिनों में यह पूरी तरह खत्म भी हो जाता है, इसका अर्थ है लगभग 100% बिक्री.
तमिलनाडु के पापनासम बस स्टैंड में पिछले 20 वर्षों से हर साल गांधी जयंती पर एक मानवरहित दुकान लगती है. यह रोटरी क्लब पापनासम द्वारा कार्यान्वित किया गया है. यहां बस स्टॉप को घरेलू सामान, लेखन सामग्री और स्नैक्स के साथ एक अस्थायी दुकान में परिवर्तित किया जाता है. टेबलों पर रखे इन सामानों के लिए मूल्य टैग सामान के साथ ही प्रदर्शित किए जाते हैं. पैसे ड्रॉप करने और खुदरा या बचे हुए पैसे वापस लेने के लिए कैश बॉक्स लगाए जाते हैं.
केरल के एझिकोड में एक तटीय गांव है- वांकुलथुवय्याल (Vankulathuvayal). इस गांव में एक एनजीओ जनशक्ति चेरिटेबल ट्रस्ट है. यह एनजीओ भी अलग-अलग लोगों के लिए कल्याणकारी गतिविधियों को संचालित करती है. वांकुलथुवय्याल में जनशक्ति चैरिटेबल ट्रस्ट ने भी एक स्वयंसेवा दुकान स्थापित की है. दुकान पर किसी भी तरह की अप्रिय गतिविधियों को रोकने के लिए यहां सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं.
चंडीगढ़ के सरकारी मॉडल सीनियर सेकेंडरी स्कूल, धनास में कोई दुकानदार या सीसीटीवी कैमरा नहीं लगाया गया है. यहां बस एक साइनबोर्ड लगाया गया है, जिस पर लिखा है, 'खुद सर्व करें, ईमानदारी से भुगतान करें.' स्कूल में बनाई गई इस दुकान में नोटबुक, पेन, पेंसिल आदि उपलब्ध कराए जाते हैं.
जापान के तटीय गांवों के दुकानदारों ने भी ऐसी ही कई छोटी दुकानें खोली हैं. टोक्यो के दक्षिण में तटीय इलाका है कनागावा परफ़ेक्चर. यहां यामाडा परिवार द्वारा संचालित दुकान में ग्राहकों की मदद के लिए एक लकड़ी का मनी-बॉक्स और पैसों की गणना में मदद करने के लिए एक कैलकुलेटर भी रखा है.
स्विटजरलैंड के एक गांव गिम्मेलवाल्ड में इस तरह की एक खाली दुकान से वहां के होटल मालिक डेविड वाटरहाउस प्रेरित हुए. उन्होंने उस कॉन्सेप्ट को लंदन में आजमाया. लंदन में उन्होंने इसे 'द ऑनेस्टी शॉप' या 'ट्रस्टी' के रूप में स्थापित किया. यह वास्तव में लंदन की टॉवर के पास एक डबल डेकर बस में शुरु किया गया था. अधिकांश उत्पादों को 20 पाउंड से कम में बेचा जाता था. यहां हर सुबह-शाम सामानों का जायजा लिया जाता था, जिसमें से कुछ भी गायब नहीं मिलता था.
यह बात ध्यान देने की है कि ऑनलाइन खरीदारी करते समय भी 'विश्वास' उपभोक्ता के व्यवहार को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक होता है. इसके विपरीत, ग्राहक की इमानदारी पर भरोसा करने वाली मानव रहित दुकानों का अभ्यास यह साबित करता है कि इमानदारी निराश नहीं करती, इसके परिणाम मिलते हैं. यह वाकई शानदार है ! यह संपर्क में आने से फैल रही कोरोना महामारी के संकट काल में भी कारगर हो सकते हैं.
हालांकि, एक मानवरहित दुकान की अवधारणा, आर्थिक रूप से ठीक लगती है, बशर्ते कोई नुकसान ओवरऑल मुनाफे से कम हो. साथ ही दुकानदार के पास अन्य लाभकारी काम करने के मौके भी होते हैं. जैसे मिज़ो झूम किसान या मेरे इलाके के अखबार-विक्रेता.
ऐसे मामले में वांकुलथुवय्याल में सीसीटीवी कैमरों के साथ शुरू की गई स्वयं सेवा की दुकानें बिना दुकानदार के दुकान के इस विकल्प को जारी रखने की दिशा में अहम साबित हो सकती हैं.
हालांकि, सभी प्रकार की दुकानें इस तरह की व्यवस्था के तहत काम नहीं करेंगी. उदाहरण के लिए दवा की दुकानों में दवाओं की खोज करने में एक विशेषज्ञता की जरूरत होती है. कुछ प्रकार के सामानों की बिक्री के लिए सेल्समैनशिप भी महत्वपूर्ण है. हालांकि, यहां तक कि सब्जियों या किराने की वस्तुओं को बेचने जैसे सीधे-सादे मामलों में भी, मानवरहित दुकानों की बढ़ती हुई संस्कृति बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियों को बर्बाद कर सकती है.
जाहिर तौर पर, उनके लिए वैकल्पिक नौकरी खोजना कभी आसान नहीं होता है. हालांकि 'विश्वास' आकर्षक लगता है, लेकिन बड़े पैमाने पर खरीदारी की संस्कृति में यह वांछनीय नहीं हो सकता. अंतर्निहित विश्वास का कारक हो या सीसीटीवी कैमरों के लगने पर छद्म-विश्वास की बात, वास्तव में इसके बड़े आर्थिक और सामाजिक परिणाम हो सकते हैं!
अतनु बिस्वास
(प्रोफेसर, भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता)