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विशेष : राष्ट्रीय प्रगति के लिए जरूरी है विशिष्ट शिक्षा नीति

चार साल पहले, यूनेस्को के एक अध्ययन में पाया गया कि भारत स्कूली शिक्षा के मानकों के मामले में 50 साल पीछे है. शिक्षा जितनी अधिक होगी, रोजगार के खतरे उतने ही अधिक होंगे जो वर्तमान में आज की बिगड़ी हुई स्थिति है, जिसके परिणामस्वरूप मानव संसाधनों का घोर दुरुपयोग हो रहा है. यही कारण है कि मोदी सरकार ने देश में एक नई शिक्षा नीति लागू की है. जानें राष्ट्रीय विकास में शिक्षा नीति कितनी जरूरी है...

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Published : Sep 10, 2020, 7:54 PM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दावा है कि चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में हो, क्योंकि देश की एक विशिष्ट विदेश नीति, रक्षा नीति, इत्यादि है, इसकी एक विशिष्ट शिक्षा नीति भी होनी चाहिए. यह प्रशंसनीय है और स्वागत योग्य है. राष्ट्र निर्माण की ठोस नींव पर बनी एक सुसंगत शिक्षा प्रणाली की कमी के कारण भारत ने दशकों में बहुत कुछ खोया है.

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की शुरुआत के बाद से मोदी सरकार एक व्यापक बहस का केंद्रबिंदु बनी हुई है, जिसका उद्देश्य छात्रों को भारी भरकम किताबी बोझ से राहत देना है ताकि उन पर पुस्तकों का भार, परीक्षा का अत्यधिक तनाव कम हो और उन्हें रचनात्मक बनने की प्रेरणा मिले, पढ़ाई में रुचि हो और इच्छा हो. जबकि गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने कहा है कि गुजरात इसे देश में किसी और से पहले लागू करेगा, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने नीति निर्माण को लेकर अलग-अलग प्रतिभाव दिए हैं. उनकी आपत्तियां हैं कि शिक्षण को सार्वजनिक सेवा के रूप में वर्णित करने वाले केंद्र ने शिक्षा के व्यवसायीकरण को नियंत्रित करने के लिए प्रस्तावित कार्यों के बारे में कुछ क्यों नहीं कहा है.

सामूहिक कार्रवाई की वांछनीयता, पर्याप्त आवंटन, और प्रौद्योगिकी के लिए उचित महत्व पर आलोचना और सुझाव भी दिए जा रहे हैं. यह स्वाभाविक है कि जब किसी महत्वपूर्ण पहलू पर बड़े बदलाव प्रस्तावित किए जाते हैं तो विरोध होगा लेकिन साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि सभी को साथ लेकर आगे बढ़ा जाए.

लोगों को प्रधानमंत्री का यह आश्वासन कि नई शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में सरकारी हस्तक्षेप को न्यूनतम रखा जाएगा स्वागत योग्य है. मजबूत शिक्षा प्रणाली के परिणामस्वरूप मानव संसाधन समृद्ध होंगे और राष्ट्र निर्माण गतिविधि में उनकी अधिकतम भागीदारी होगी. नई शिक्षा नीति का प्रयोग तभी सफल होगा जब यह सपना पूरा हो पायेगा.

वह शिक्षा जो वर्तमान समय के लिए अनुपयुक्त है, बढ़ती चुनौतियों का सामना करने में अक्षम है, जो डिग्री एक सभ्य जीवन का आश्वासन नहीं दे सकती है.... सभी वर्तमान शिक्षा प्रणाली की दुर्दशा का संकेत दे रहे हैं जो पक्षाघात की स्थिति में पहुंच गई है.

शिक्षा जितनी अधिक होगी, रोजगार के खतरे उतने ही अधिक होंगे जो वर्तमान में आज की बिगड़ी हुई स्थिति है, जिसके परिणामस्वरूप मानव संसाधनों का घोर दुरुपयोग हो रहा है.

चार साल पहले, यूनेस्को के एक अध्ययन में पाया गया कि भारत स्कूली शिक्षा के मानकों के मामले में 50 साल पीछे है.

नई शिक्षा नीति दोहराती है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा छात्र का अधिकार है. गिरते हुए मानकों को सुधारने, शिक्षकों की क्षमताओं को समृद्ध करने और एक मजबूत नींव के लिए मातृभाषा में शिक्षण की शुरुआत करने पर सरकार की उत्सुकता प्रशंसनीय है. यह पहली सफलता होगी जब शिक्षक पात्रता परीक्षा को निजी शिक्षकों के लिए अनिवार्य किया जाएगा और इसे 100% लागू किया जाएगा.

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अनुसार, मातृभाषा में शिक्षण बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकास में योगदान देता है. प्रधानमंत्री का यह भी मानना है कि मातृभाषा में शिक्षा से ही एक मजबूत नींव संभव है. साथ ही मातृभाषा में शिक्षा प्राकृतिक सोच प्रक्रिया को समृद्ध करती है. हमारी संस्कृति और विरासत का समृद्ध साहित्य मजबूत व्यक्तित्व, चरित्र, नैतिकता और अंततः एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण को दर्शाता है. नीति वक्तव्य एक बात है, कार्यान्वयन में सफलता एक और है.

केंद्र को एक महान भूमिका निभानी चाहिए और सभी राज्यों को समझाना चाहिए ताकि वे मातृभाषा में शिक्षण पर किसी भी तरह के विचार या विरोध के बिना ठोस प्रयास के लिए प्रतिबद्ध हों. जैसा कि देश में प्रमुख सुधारों की भावना फैलेगी, रोजगार नियमों की समग्र सफाई की भी जरूरत होगी.

केंद्र को उदाहरण से साबित करना होगा कि डिजिटल शिक्षा को सक्रिय रूप से बढ़ावा देने और राज्यों को वित्तीय बोझ को दूर करने में मदद करने में यह पीछे नहीं रहेगा. पिछले अध्ययनों से पता चलता है कि 2030 तक, 90 करोड़ युवाओं में भारतीयों की हिस्सेदारी अधिक होगी जो रोजगार के लिए उचित कौशल की कमी से पीड़ित होंगे.

ऐसी आशंकाओं को दूर करने के लिए, नई शिक्षा नीति को प्राथमिक से उच्च स्तर तक छात्रों के समग्र विकास को सुनिश्चित करना चाहिए और उन्हें जीवन और आजीविका की चुनौतियों का सामना करने के लिए पर्याप्त तैयार करना चाहिए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दावा है कि चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में हो, क्योंकि देश की एक विशिष्ट विदेश नीति, रक्षा नीति, इत्यादि है, इसकी एक विशिष्ट शिक्षा नीति भी होनी चाहिए. यह प्रशंसनीय है और स्वागत योग्य है. राष्ट्र निर्माण की ठोस नींव पर बनी एक सुसंगत शिक्षा प्रणाली की कमी के कारण भारत ने दशकों में बहुत कुछ खोया है.

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की शुरुआत के बाद से मोदी सरकार एक व्यापक बहस का केंद्रबिंदु बनी हुई है, जिसका उद्देश्य छात्रों को भारी भरकम किताबी बोझ से राहत देना है ताकि उन पर पुस्तकों का भार, परीक्षा का अत्यधिक तनाव कम हो और उन्हें रचनात्मक बनने की प्रेरणा मिले, पढ़ाई में रुचि हो और इच्छा हो. जबकि गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने कहा है कि गुजरात इसे देश में किसी और से पहले लागू करेगा, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने नीति निर्माण को लेकर अलग-अलग प्रतिभाव दिए हैं. उनकी आपत्तियां हैं कि शिक्षण को सार्वजनिक सेवा के रूप में वर्णित करने वाले केंद्र ने शिक्षा के व्यवसायीकरण को नियंत्रित करने के लिए प्रस्तावित कार्यों के बारे में कुछ क्यों नहीं कहा है.

सामूहिक कार्रवाई की वांछनीयता, पर्याप्त आवंटन, और प्रौद्योगिकी के लिए उचित महत्व पर आलोचना और सुझाव भी दिए जा रहे हैं. यह स्वाभाविक है कि जब किसी महत्वपूर्ण पहलू पर बड़े बदलाव प्रस्तावित किए जाते हैं तो विरोध होगा लेकिन साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि सभी को साथ लेकर आगे बढ़ा जाए.

लोगों को प्रधानमंत्री का यह आश्वासन कि नई शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में सरकारी हस्तक्षेप को न्यूनतम रखा जाएगा स्वागत योग्य है. मजबूत शिक्षा प्रणाली के परिणामस्वरूप मानव संसाधन समृद्ध होंगे और राष्ट्र निर्माण गतिविधि में उनकी अधिकतम भागीदारी होगी. नई शिक्षा नीति का प्रयोग तभी सफल होगा जब यह सपना पूरा हो पायेगा.

वह शिक्षा जो वर्तमान समय के लिए अनुपयुक्त है, बढ़ती चुनौतियों का सामना करने में अक्षम है, जो डिग्री एक सभ्य जीवन का आश्वासन नहीं दे सकती है.... सभी वर्तमान शिक्षा प्रणाली की दुर्दशा का संकेत दे रहे हैं जो पक्षाघात की स्थिति में पहुंच गई है.

शिक्षा जितनी अधिक होगी, रोजगार के खतरे उतने ही अधिक होंगे जो वर्तमान में आज की बिगड़ी हुई स्थिति है, जिसके परिणामस्वरूप मानव संसाधनों का घोर दुरुपयोग हो रहा है.

चार साल पहले, यूनेस्को के एक अध्ययन में पाया गया कि भारत स्कूली शिक्षा के मानकों के मामले में 50 साल पीछे है.

नई शिक्षा नीति दोहराती है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा छात्र का अधिकार है. गिरते हुए मानकों को सुधारने, शिक्षकों की क्षमताओं को समृद्ध करने और एक मजबूत नींव के लिए मातृभाषा में शिक्षण की शुरुआत करने पर सरकार की उत्सुकता प्रशंसनीय है. यह पहली सफलता होगी जब शिक्षक पात्रता परीक्षा को निजी शिक्षकों के लिए अनिवार्य किया जाएगा और इसे 100% लागू किया जाएगा.

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अनुसार, मातृभाषा में शिक्षण बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकास में योगदान देता है. प्रधानमंत्री का यह भी मानना है कि मातृभाषा में शिक्षा से ही एक मजबूत नींव संभव है. साथ ही मातृभाषा में शिक्षा प्राकृतिक सोच प्रक्रिया को समृद्ध करती है. हमारी संस्कृति और विरासत का समृद्ध साहित्य मजबूत व्यक्तित्व, चरित्र, नैतिकता और अंततः एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण को दर्शाता है. नीति वक्तव्य एक बात है, कार्यान्वयन में सफलता एक और है.

केंद्र को एक महान भूमिका निभानी चाहिए और सभी राज्यों को समझाना चाहिए ताकि वे मातृभाषा में शिक्षण पर किसी भी तरह के विचार या विरोध के बिना ठोस प्रयास के लिए प्रतिबद्ध हों. जैसा कि देश में प्रमुख सुधारों की भावना फैलेगी, रोजगार नियमों की समग्र सफाई की भी जरूरत होगी.

केंद्र को उदाहरण से साबित करना होगा कि डिजिटल शिक्षा को सक्रिय रूप से बढ़ावा देने और राज्यों को वित्तीय बोझ को दूर करने में मदद करने में यह पीछे नहीं रहेगा. पिछले अध्ययनों से पता चलता है कि 2030 तक, 90 करोड़ युवाओं में भारतीयों की हिस्सेदारी अधिक होगी जो रोजगार के लिए उचित कौशल की कमी से पीड़ित होंगे.

ऐसी आशंकाओं को दूर करने के लिए, नई शिक्षा नीति को प्राथमिक से उच्च स्तर तक छात्रों के समग्र विकास को सुनिश्चित करना चाहिए और उन्हें जीवन और आजीविका की चुनौतियों का सामना करने के लिए पर्याप्त तैयार करना चाहिए.

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