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जानिए क्या है छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध ढोकरा आर्ट और किस हाल में हैं शिल्पकार

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिला मुख्यालय से महज 12 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद एकताल गांव, जिसे झारा शिल्पकारों का गांव कहा जाता है. इस गांव की ढोकरा कला आज देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय है.

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Published : Nov 17, 2019, 8:12 PM IST

रायगढ़ : छत्तीसगढ़ के ढोकरा आर्ट की चमक पूरी दुनिया में फैल चुकी है. इस कला से तैयार मूर्तियां देखने में जितनी खूबसूरत लगती हैं. उतनी ही मेहनत इसे तैयार करने में लगती है. हम आपको उस गांव के बारे में बताते हैं, जहां इस आर्ट से खूबसूरत मूर्तियां तैयार की जाती है.

रायगढ़ जिला मुख्यालय से महज 12 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है गांव एकताल. इसे झारा शिल्पकारों का गांव कहा जाता है. ये आर्ट देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी खासा लोकप्रिय है.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

⦁ झारा कलाकार बड़ी बारीकी से पीतल को मूर्तरूप देते हैं. पीतल को पिघलाने से लेकर मूर्ति बनाने तक का पूरा काम अपने हाथों से ही करते हैं. बनने के बाद मूर्ति मशीन से साफ की जाती है और इसके बाद ये कलाकार उसे बाजारों में बेचते हैं. पीतल को पिघलाना और मूर्ति बनाकर बेचना ही झारा कलाकारों की पारम्परिक जीविका के साधन हैं. एकताल गांव में झारा शिल्पकार के करीब 200 परिवार रहते हैं.

⦁ शिल्पकारों ने बताया कि कैसे पीतल को एक सजीव रूप दिया जाता है. सबसे पहले मिट्टी का ढांचा तैयार किया जाता है. ढांचे पर मोम से कलाकारी की जाती है और फिर उसे सूखने के लिए रख दिया जाता है.

⦁ मोम के सूखने के बाद उसपर नदी की चिकनी मिट्टी का लेप चढ़ाने के बाद उसे दोबारा सुखाया जाता है.

⦁ जब मोम के ऊपर लगी मिट्टी पूरी तरह से सूख जाती है, तो उसे आग में तपाया जाता है. आग में तपने की वजह से मोम पूरी तरह पिघल जाता है और जगह खाली हो जाती है, जिसके बाद खाली जगह पर पीतल को पिघलाकर भरा जाता है. इसके बाद मिट्टी को निकाल लिया जाता है.

⦁ जो आकृति मोम के पिघलने से तैयार होती है, वही पीतल का मूर्त रूप ले लेती है.

⦁ मूर्ति के तैयार होने के बाद उसे साफ किया जाता है. मूर्ति की ज्यादातर सफाई हाथ या फिर छोटी-छोटी छैनी, हथौड़े से की जाती है.

⦁ कुछ मूर्तियां बड़ी होती हैं, जिनकी सफाई हाथ के अलावा मशीन से की जाती है. मूर्ति बनाने के लिए लगने वाले सामान जैसे कि मोम और पीतल बाजार से खरीदकर शिल्पकार एक मूर्ति तैयार करते हैं और उसे प्रदर्शनी में ले जाकर बेचते हैं. पीतल की मूर्ति होने के कारण उसकी कीमत काफी ज्यादा होती है. इस वजह से सामान्य लोग इसे नहीं खरीद पाते हैं.

दिल्ली से आ रहे खरीदार
दिल्ली से खरीदारी करने आए खरीदारों ने बताया कि उन्होंने इंटरनेट और लोगों से इसके बारे में सुना था, इसीलिए मूर्तियां खरीदने के लिए रायगढ़ के छोटे से गांव तक पहुंचे हैं.

क्या कहते हैं झारा कलाकार
गांव के रामलाल झारा ने बताया कि 'ढोकरा आर्ट से खुश होकर 2002 में मुख्यमंत्री ने सम्मानित किया था. 1998 में राज्यपाल की ओर से सम्मानित किया गया था. गांव के ज्यादातर लोगों को प्रशासन की ओर से सम्मान दिया गया है. सम्मान के रूप में शॉल, श्रीफल और एक ताम्रपत्र दिया जाता है.

झारा शिल्पकारों का कहना है कि फिलहाल शॉल, श्रीफल से शिल्पकारों की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं होता, अगर सही में सरकार को मदद करना है तो उनकी आर्थिक स्थिति सुधारें. शिल्पकार बाजार मूल्य से पीतल और मोम खरीदते हैं. प्रतिमा बनाने के बाद जब वे इसे बेचने बाजार पहुंचते हैं, तब सही कीमत नहीं मिल पाती.

प्रशासन से मदद की आस
झारा शिल्पकारों को प्रशासन की तरफ से कोई सहायता भी नहीं मिलती है, जिसकी वजह से कई कलाकारों की भूखों मरने की नौबत आ गयी है.

कुछ लोग यह काम छोड़कर दूसरे राज्यों में चले जाते हैं और वहां भी उनको बंधुआ मजदूरी करनी पड़ती है. इस कारण उनकी दशा लगातार खराब होती जा रही है. अगर प्रशासन ने समय रहते इन कलाकारों के लिए कोई पहल नहीं की तो आने वाले दिनों में यह कला विलुप्त हो सकती है.

रायगढ़ : छत्तीसगढ़ के ढोकरा आर्ट की चमक पूरी दुनिया में फैल चुकी है. इस कला से तैयार मूर्तियां देखने में जितनी खूबसूरत लगती हैं. उतनी ही मेहनत इसे तैयार करने में लगती है. हम आपको उस गांव के बारे में बताते हैं, जहां इस आर्ट से खूबसूरत मूर्तियां तैयार की जाती है.

रायगढ़ जिला मुख्यालय से महज 12 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है गांव एकताल. इसे झारा शिल्पकारों का गांव कहा जाता है. ये आर्ट देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी खासा लोकप्रिय है.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

⦁ झारा कलाकार बड़ी बारीकी से पीतल को मूर्तरूप देते हैं. पीतल को पिघलाने से लेकर मूर्ति बनाने तक का पूरा काम अपने हाथों से ही करते हैं. बनने के बाद मूर्ति मशीन से साफ की जाती है और इसके बाद ये कलाकार उसे बाजारों में बेचते हैं. पीतल को पिघलाना और मूर्ति बनाकर बेचना ही झारा कलाकारों की पारम्परिक जीविका के साधन हैं. एकताल गांव में झारा शिल्पकार के करीब 200 परिवार रहते हैं.

⦁ शिल्पकारों ने बताया कि कैसे पीतल को एक सजीव रूप दिया जाता है. सबसे पहले मिट्टी का ढांचा तैयार किया जाता है. ढांचे पर मोम से कलाकारी की जाती है और फिर उसे सूखने के लिए रख दिया जाता है.

⦁ मोम के सूखने के बाद उसपर नदी की चिकनी मिट्टी का लेप चढ़ाने के बाद उसे दोबारा सुखाया जाता है.

⦁ जब मोम के ऊपर लगी मिट्टी पूरी तरह से सूख जाती है, तो उसे आग में तपाया जाता है. आग में तपने की वजह से मोम पूरी तरह पिघल जाता है और जगह खाली हो जाती है, जिसके बाद खाली जगह पर पीतल को पिघलाकर भरा जाता है. इसके बाद मिट्टी को निकाल लिया जाता है.

⦁ जो आकृति मोम के पिघलने से तैयार होती है, वही पीतल का मूर्त रूप ले लेती है.

⦁ मूर्ति के तैयार होने के बाद उसे साफ किया जाता है. मूर्ति की ज्यादातर सफाई हाथ या फिर छोटी-छोटी छैनी, हथौड़े से की जाती है.

⦁ कुछ मूर्तियां बड़ी होती हैं, जिनकी सफाई हाथ के अलावा मशीन से की जाती है. मूर्ति बनाने के लिए लगने वाले सामान जैसे कि मोम और पीतल बाजार से खरीदकर शिल्पकार एक मूर्ति तैयार करते हैं और उसे प्रदर्शनी में ले जाकर बेचते हैं. पीतल की मूर्ति होने के कारण उसकी कीमत काफी ज्यादा होती है. इस वजह से सामान्य लोग इसे नहीं खरीद पाते हैं.

दिल्ली से आ रहे खरीदार
दिल्ली से खरीदारी करने आए खरीदारों ने बताया कि उन्होंने इंटरनेट और लोगों से इसके बारे में सुना था, इसीलिए मूर्तियां खरीदने के लिए रायगढ़ के छोटे से गांव तक पहुंचे हैं.

क्या कहते हैं झारा कलाकार
गांव के रामलाल झारा ने बताया कि 'ढोकरा आर्ट से खुश होकर 2002 में मुख्यमंत्री ने सम्मानित किया था. 1998 में राज्यपाल की ओर से सम्मानित किया गया था. गांव के ज्यादातर लोगों को प्रशासन की ओर से सम्मान दिया गया है. सम्मान के रूप में शॉल, श्रीफल और एक ताम्रपत्र दिया जाता है.

झारा शिल्पकारों का कहना है कि फिलहाल शॉल, श्रीफल से शिल्पकारों की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं होता, अगर सही में सरकार को मदद करना है तो उनकी आर्थिक स्थिति सुधारें. शिल्पकार बाजार मूल्य से पीतल और मोम खरीदते हैं. प्रतिमा बनाने के बाद जब वे इसे बेचने बाजार पहुंचते हैं, तब सही कीमत नहीं मिल पाती.

प्रशासन से मदद की आस
झारा शिल्पकारों को प्रशासन की तरफ से कोई सहायता भी नहीं मिलती है, जिसकी वजह से कई कलाकारों की भूखों मरने की नौबत आ गयी है.

कुछ लोग यह काम छोड़कर दूसरे राज्यों में चले जाते हैं और वहां भी उनको बंधुआ मजदूरी करनी पड़ती है. इस कारण उनकी दशा लगातार खराब होती जा रही है. अगर प्रशासन ने समय रहते इन कलाकारों के लिए कोई पहल नहीं की तो आने वाले दिनों में यह कला विलुप्त हो सकती है.

Intro:cg_rai_dhokra_art_spl_pkg_7203904 पूरी खबर मोजो से भेजा हूं रिपोर्टर एप से कुछ विजुअल भेज रहा हूंBody:cg_rai_dhokra_art_spl_pkg_7203904Conclusion:
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