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कर्नाटक का 'नाटक' अब एमपी का 'संकट', सुप्रीम कोर्ट में समाधान !

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Published : Mar 18, 2020, 10:12 PM IST

मध्यप्रदेश का सियासी ड्रामा अब कर्नाटक पहुंच गया है. एक तरफ कमलनाथ सरकार के नुमाइंदे बागी विधायकों को मनाने की कोशिश में जुटे हैं. वहीं मामले में सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई अभी पूरी नहीं हुई है. क्या मध्यप्रदेश के सियासी नाटक का अंजाम कर्नाटक जैसा होगा या फिर गुरूवार को सुप्रीम को फैसला बनेगा मिसाल. क्या था एसआर बोम्मई बनाम भारत गणराज्य मामला, 2018 के कर्नाटक के सियासी संकट पर क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला, इससे मध्यप्रदेश का कनेक्शन क्या जानें पूरा मामला....

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भोपाल : मध्यप्रदेश में सत्ता पाने की लड़ाई बढ़ती ही जा रही है. एक तरफ कांग्रेस 15 साल के वनवास के बाद सत्ता में लौटने के बाद कुर्सी गंवाना नहीं चाहती. वहीं भाजपा दोबारा सत्ता में आने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है. अब ये राजनीतिक द्वंद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है, जिस पर कोर्ट में सुनवाई हुई. आजाद भारत में मध्यप्रदेश ऐसा पहला राज्य नहीं है, जहां ऐसा राजनैतिक संकट पैदा हुआ हो. इससे पहले भी कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनका हल सुप्रीम कोर्ट ही निकाल पाया है और ये फैसले आगे चलकर नजीर साबित हुए. मध्यप्रदेश के सियासी संकट को कर्नाटक के एसआर बोम्मई मामले से जोड़कर देखा जा रहा है.

एसआर बोम्मई मामला, जानें विस्तार से...
कर्नाटक में पहली बार 1983 में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी. रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री चुने गए और एसआर बोम्मई उद्योग मंत्री. जनता पार्टी सरकार को तब वामपंथियों सहित क्षेत्रीय दलों का समर्थन प्राप्त था. इस सरकार ने राज्य में पहला और बड़ा काम पंचायती राज मजबूत करने का किया, जिससे सरकार की लोकप्रियता बढ़ती गई. हालांकि समय के साथ-साथ सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे. हेगड़े के एक बेटे पर भी ऐसे आरोप लगे. आखिरकार मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने 1988 में इस्तीफा दे दिया.

मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े के इस्तीफे के बाद जनता पार्टी के ही बोम्मई राज्य के नए मुख्यमंत्री बने, लेकिन इसी समय पार्टी के एक विधायक ने राज्यपाल पी वैंकटसुबैया को सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया. साथ ही उन्होंने 19 और विधायकों के समर्थन वापसी वाले पत्र राज्यपाल को दिए, लेकिन अगले दिन ही इनमें से सात विधायकों ने कहा कि राज्यपाल को दिए पत्रों में उनके फर्जी हस्ताक्षर हैं और वे सरकार का समर्थन करते हैं.

ऐसे में बोम्मई ने राज्यपाल से सदन में बहुमत साबित करने के लिए एक हफ्ते का समय मांगा, लेकिन राज्यपाल ने सरकार की मांग को ठुकरा दिया और राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी, जिसके बाद 21 अप्रैल, 1989 को संविधान के अनुच्छेद 356 के अंतर्गत बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.

इसके बाद मामला कर्नाटक हाईकोर्ट पहुंचा. कोर्ट ने राज्यपाल के निर्णय को सही ठहराया, लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. एसआर बोम्मई बनाम भारत सरकार नाम से मशहूर हुए इस केस में 1994 में एक ऐसा फैसला आया, जो अनुच्छेद-356 के संदर्भ में मील का पत्थर बन गया. सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बोम्मई सरकार की बर्खास्तगी गलत थी. बोम्मई सरकार को बहुमत साबित करने का मौका मिलना चाहिए था. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के मामले में केंद्र सरकार की शक्तियों को सीमित कर दिया.

2018 में कर्नाटक में हाईवोल्टेज पॉलिटिक्स ड्रामा
2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 104 सीटें मिली थीं. वहीं कांग्रेस को 78 और जेडीएस को 37 सीट मिली थीं. इसके बाद राज्यपाल ने भाजपा के येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता दिया, लेकिन वे सदन में बहुमत सिद्ध नहीं कर सके और मात्र छह दिन मुख्यमंत्री रहे. कांग्रेस-जेडीएस ने मिलकर सरकार बनाई और एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने, लेकिन 14 महीनों के बाद ही कर्नाटक की राजनीति में सियासी भूचाल आ गया और सत्ता को लेकर संघर्ष शुरू हो गया. कांग्रेस के विधायकों ने बगावत कर दी. कांग्रेस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले का निपटारा किया.

क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में स्‍पीकर की गरिमा का भी ख्‍याल रखा गया और विधायकों के विशेषाधिकार का भी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में स्‍पीकर को पूरी छूट दी गई थी कि वे विधायकों के इस्‍तीफे पर अपने हिसाब से फैसला लें. साथ ही ये भी कहा था कि विधायकों को फ्लोर टेस्‍ट में शामिल होने के लिए बाध्‍य नहीं किया जा सकता है. आखिरकार मामला फ्लोर टेस्ट तक पहुंचा, जिसमें कुमार स्वामी सरकार बहुमत साबित करने में नाकाम रही और सरकार गिर गई. इसके बाद भाजपा एक बार फिर सत्ता में आ गई.

मध्यप्रदेश मामला : सुप्रीम कोर्ट की दो टूक, 'ये बच्चों की कस्टडी नहीं है'

फिलहाल मध्यप्रदेश में भी कुछ ऐसी ही स्थिति बनती नजर आ रही है. हांलाकि मामले में सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है, लेकिन जिस तरह से कोर्ट की टिप्पणी सामने आ रही है, उससे अगर ये माना जाए कि विधानसभा स्पीकर की शक्तियों और विधायकों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाते हुए फैसला आता है, तो फिर इस सियासी मसले का हल सदन मे फ्लोर टेस्ट होने पर ही निकल सकेगा, जिसका अंदेशा कांग्रेस भी लगा चुकी है और यही वजह है कि कांग्रेस के दिग्गज नेता बागी विधायकों को मनाने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं.

अगर सुप्रीम कोर्ट कर्नाटक जैसा फैसला मध्यप्रदेश के संबंध में भी देता तो कमलनाथ सरकार को फ्लोर टेस्ट पास करना होगा, जो मुख्यमंत्री कमलनाथ के लिए एक बड़ी चुनौती है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट मामले में सुनवाई कर रहा है. गुरुवार को फिर आगे की सुनवाई जारी रहेगी. मामले की स्थिति तभी साफ हो पाएगी, जब सुप्रीम कोर्ट अपना अंतिम फैसला सुनाएगा.

भोपाल : मध्यप्रदेश में सत्ता पाने की लड़ाई बढ़ती ही जा रही है. एक तरफ कांग्रेस 15 साल के वनवास के बाद सत्ता में लौटने के बाद कुर्सी गंवाना नहीं चाहती. वहीं भाजपा दोबारा सत्ता में आने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है. अब ये राजनीतिक द्वंद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है, जिस पर कोर्ट में सुनवाई हुई. आजाद भारत में मध्यप्रदेश ऐसा पहला राज्य नहीं है, जहां ऐसा राजनैतिक संकट पैदा हुआ हो. इससे पहले भी कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनका हल सुप्रीम कोर्ट ही निकाल पाया है और ये फैसले आगे चलकर नजीर साबित हुए. मध्यप्रदेश के सियासी संकट को कर्नाटक के एसआर बोम्मई मामले से जोड़कर देखा जा रहा है.

एसआर बोम्मई मामला, जानें विस्तार से...
कर्नाटक में पहली बार 1983 में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी. रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री चुने गए और एसआर बोम्मई उद्योग मंत्री. जनता पार्टी सरकार को तब वामपंथियों सहित क्षेत्रीय दलों का समर्थन प्राप्त था. इस सरकार ने राज्य में पहला और बड़ा काम पंचायती राज मजबूत करने का किया, जिससे सरकार की लोकप्रियता बढ़ती गई. हालांकि समय के साथ-साथ सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे. हेगड़े के एक बेटे पर भी ऐसे आरोप लगे. आखिरकार मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने 1988 में इस्तीफा दे दिया.

मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े के इस्तीफे के बाद जनता पार्टी के ही बोम्मई राज्य के नए मुख्यमंत्री बने, लेकिन इसी समय पार्टी के एक विधायक ने राज्यपाल पी वैंकटसुबैया को सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया. साथ ही उन्होंने 19 और विधायकों के समर्थन वापसी वाले पत्र राज्यपाल को दिए, लेकिन अगले दिन ही इनमें से सात विधायकों ने कहा कि राज्यपाल को दिए पत्रों में उनके फर्जी हस्ताक्षर हैं और वे सरकार का समर्थन करते हैं.

ऐसे में बोम्मई ने राज्यपाल से सदन में बहुमत साबित करने के लिए एक हफ्ते का समय मांगा, लेकिन राज्यपाल ने सरकार की मांग को ठुकरा दिया और राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी, जिसके बाद 21 अप्रैल, 1989 को संविधान के अनुच्छेद 356 के अंतर्गत बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.

इसके बाद मामला कर्नाटक हाईकोर्ट पहुंचा. कोर्ट ने राज्यपाल के निर्णय को सही ठहराया, लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. एसआर बोम्मई बनाम भारत सरकार नाम से मशहूर हुए इस केस में 1994 में एक ऐसा फैसला आया, जो अनुच्छेद-356 के संदर्भ में मील का पत्थर बन गया. सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बोम्मई सरकार की बर्खास्तगी गलत थी. बोम्मई सरकार को बहुमत साबित करने का मौका मिलना चाहिए था. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के मामले में केंद्र सरकार की शक्तियों को सीमित कर दिया.

2018 में कर्नाटक में हाईवोल्टेज पॉलिटिक्स ड्रामा
2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 104 सीटें मिली थीं. वहीं कांग्रेस को 78 और जेडीएस को 37 सीट मिली थीं. इसके बाद राज्यपाल ने भाजपा के येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता दिया, लेकिन वे सदन में बहुमत सिद्ध नहीं कर सके और मात्र छह दिन मुख्यमंत्री रहे. कांग्रेस-जेडीएस ने मिलकर सरकार बनाई और एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने, लेकिन 14 महीनों के बाद ही कर्नाटक की राजनीति में सियासी भूचाल आ गया और सत्ता को लेकर संघर्ष शुरू हो गया. कांग्रेस के विधायकों ने बगावत कर दी. कांग्रेस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले का निपटारा किया.

क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में स्‍पीकर की गरिमा का भी ख्‍याल रखा गया और विधायकों के विशेषाधिकार का भी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में स्‍पीकर को पूरी छूट दी गई थी कि वे विधायकों के इस्‍तीफे पर अपने हिसाब से फैसला लें. साथ ही ये भी कहा था कि विधायकों को फ्लोर टेस्‍ट में शामिल होने के लिए बाध्‍य नहीं किया जा सकता है. आखिरकार मामला फ्लोर टेस्ट तक पहुंचा, जिसमें कुमार स्वामी सरकार बहुमत साबित करने में नाकाम रही और सरकार गिर गई. इसके बाद भाजपा एक बार फिर सत्ता में आ गई.

मध्यप्रदेश मामला : सुप्रीम कोर्ट की दो टूक, 'ये बच्चों की कस्टडी नहीं है'

फिलहाल मध्यप्रदेश में भी कुछ ऐसी ही स्थिति बनती नजर आ रही है. हांलाकि मामले में सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है, लेकिन जिस तरह से कोर्ट की टिप्पणी सामने आ रही है, उससे अगर ये माना जाए कि विधानसभा स्पीकर की शक्तियों और विधायकों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाते हुए फैसला आता है, तो फिर इस सियासी मसले का हल सदन मे फ्लोर टेस्ट होने पर ही निकल सकेगा, जिसका अंदेशा कांग्रेस भी लगा चुकी है और यही वजह है कि कांग्रेस के दिग्गज नेता बागी विधायकों को मनाने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं.

अगर सुप्रीम कोर्ट कर्नाटक जैसा फैसला मध्यप्रदेश के संबंध में भी देता तो कमलनाथ सरकार को फ्लोर टेस्ट पास करना होगा, जो मुख्यमंत्री कमलनाथ के लिए एक बड़ी चुनौती है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट मामले में सुनवाई कर रहा है. गुरुवार को फिर आगे की सुनवाई जारी रहेगी. मामले की स्थिति तभी साफ हो पाएगी, जब सुप्रीम कोर्ट अपना अंतिम फैसला सुनाएगा.

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