कई राज्य सरकारों ने विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रस्ताव पारित किए हैं. क्या इन प्रस्तावों की कानूनी वैधता है ?
मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने लंबित है. अदालत को इस पर फैसला करना है. यदि अदालत कानून का पालन करती है, तो इन प्रस्तावों के कार्यान्वयन का मामला उठता है. संकल्प केवल यह कहते हैं कि भारत सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए और सीएए को वापस लेना चाहिए. वे संकल्प पूरी तरह से मान्य हैं. हालांकि, किसी भी अन्य निर्णय की तरह, यह मुद्दा उच्चतम न्यायालय के निष्कर्षों का पालन करेगा.
क्या सीएए के मुद्दे ने कांग्रेस का ध्यान गिरती हुई अर्थव्यवस्था से हटा दिया है ?
नहीं, मुझे नहीं लगता कि सीएए के विरोध प्रदर्शनों ने अर्थव्यवस्था से ध्यान हटा लिया है. यह आज के लोगों का सामना करने वाला एक वास्तविक मुद्दा है. लोगों के सड़कों पर आने का कारण यह है कि इनमें से कई लोगों के पास कोई नौकरी नहीं है और इनमें से कई लोग अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं. इन सबसे ऊपर जो मुद्दा उठता है वह तब होता है जब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर होता है और प्रगणक प्रत्येक घर में आते हैं और 2010 में वापस हमारे द्वारा तय किए गए एनपीआर के अलावा सवाल पूछना शुरू करते हैं. इसलिए लोग चिंतित हैं कि अब नागरिकता के संबंध में उनका भाग्य एक ऐसे व्यक्ति के हाथों में है जो उनके घर आएंगे और उनके नाम के खिलाफ 'डी' लगाने की क्षमता और अधिकार रखते हैं, जिसका अर्थ है कि वे संदिग्ध श्रेणी में चले जाएंगे. आम तौर पर एनपीआर में जो आवश्यक होता है वह पिछले छह महीनों में आपका निवास होता है. लेकिन अब अतिरिक्त प्रश्नों से लोग चिंतित हैं कि इसके परिणाम क्या होंगे. जैसा कि उत्तर-पूर्व में पहले ही हो चुका है, आपने देखा है कि इससे बहुत सारी समस्याएं पैदा हुई हैं. 19 लाख लोगों में से जो असम एनआरसी का हिस्सा नहीं थे, 12 लाख से अधिक लोग हिंदू थे. केंद्र सरकार ने सोचा कि वे केवल मुसलमान होंगे जो उस श्रेणी का हिस्सा होंगे.
क्या सरकार के दावे के अनुसार एंटी-सीएए विरोध एक अल्पसंख्यक संचालित विरोध है ?
असम एनआरसी में 12 लाख हिंदुओं के शामिल होने के बाद आप कैसे कह सकते हैं कि यह अल्पसंख्यक द्वारा संचालित है ? असम में एनआरसी की प्रक्रिया में 1600 करोड़ रुपये खर्च हुए. पूरे देश में यह व्यवस्था लागू की गई, तो करीब 30,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे. इसके बाद यहां पर लाखों लोग ऐसे आ जाएंगे, जिनके आगे 'डी' लगा होगा. वे तो किसी भी समुदाय से हो सकते हैं. निश्चित तौर पर यह एक विभाजनकारी एजेंडा हो सकता है.
(वरिष्ठ पत्रकार अमित अग्निहोत्री के साथ की गई बातचीत)