झारखंड के चुनावी परिणाम से भारतीय जनता पार्टी को काफी धक्का पहुंचा है. इसका असर झारखंड के आसपास के राज्यों पर भी पड़ सकता है. भाजपा ने झारखंड के लिए 65 सीटों का लक्ष्य निर्धारित किया था. यह लक्ष्य काफी बड़ा था. पार्टी को लगा कि इससे कम लक्ष्य रखना अपराध होगा. लेकिन जिस तरह के परिणाम आए, भाजपा 25 सीटों पर सिमट गई. पार्टी के चेहरे पर हवाईयां उड़ गईं.
हालांकि, 2014 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा को इस बार 2.4% अधिक वोट मिले. लेकिन एक दर्जन से अधिक सीटों का नुकसान काफी निराशाजनक रहा. कांग्रेस पार्टी ने पहले झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) से अपना नाता काट लिया था. लेकिन बाद में पार्टी को लगा कि यह उनकी रणनीतिक गलती होगी. उन्होंने जेएमएम और राजद को अपने गठबंधन का हिस्सा बना लिया. इस गठबंधन को 47 सीटें मिलीं. बहुमत के लिए 41 सीटों की जरूरत थी. विधानसभा में कुल 81 सीटें हैं.
भाजपा ने मुख्यमंत्री रघुबर दास पर बहुत ज्यादा यकीन किया. वे डबल इंजन की बात करते रहे. राज्य और केन्द्र में एक ही सरकार रहे, तो विकास होगा, इसी का वे बार-बार प्रचार करते रहे. लेकिन दूसरे फैक्टर पर पार्टी ने ध्यान नहीं दिया.
अर्जुन मुंडा जैसे नेताओं की अनदेखी की गई. वह प्रमुख आदिवासी नेता हैं. भाजपा ने आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन) से नाता तोड़ लिया. 2014 में आजसू को पांच सीटें मिली थीं. तब भाजपा को 37 सीटें मिली थीं. इस बार जब आजसू ने ज्यादा सीटों की मांग की, तो भाजपा को लगा कि उनकी मांगे जायज नहीं हैं. लेकिन परिणाम ने उन्हें सोचने पर अब मजबूर कर दिया.
भाजपा के छह मंत्री चुनाव हार गए. खुद सीएम रघुबर दास अपनी ही पार्टी के बागी उम्मीदवार सरयू राय से हार गए. यह अपने आप में उदाहरण है कि पार्टी राज्य में जमीनी हकीकत से कितनी दूर थी. राज्य के लिए यह एक सुकून वाली खबर रही कि जेएमएम के महागठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला, लिहाजा, राज्य में राजनीतिक स्थिरता बनी रहेगी.
झारखंड का शुरुआती 14 साल राजनीतिक उठापटक से भरा हुआ रहा है. अंदाजा लगाएं, कि महाराष्ट्र में विधानसभा की 288 सीटें हैं. वहां पर एक चरण में ही चुनाव संपन्न हो गया. लेकिन झारखंड में पांच चरणों में चुनाव हुए, जबकि यहां पर विधानसभा की मात्र 81 सीटें हैं. हर पांच में से चार सीटें उग्रवादी ताकतों के प्रभाव में हैं.
प्रधान मंत्री मोदी ने यह कहते हुए सवाल उठाया था, 'यदि ऑस्ट्रेलिया, इतने ही खनिज संसाधनों के साथ, अच्छी तरह से प्रगति कर रहा है, तो झारखंड संकटों के भंवर में कितने और साल रहेगा ?' झारखंड के लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के नारे का सकारात्मक जवाब दिया - सबका साथ - सबका विकास.
झारखंड की जनजातीय आबादी ने रघुबरदास द्वारा पेश किए गए विवादास्पद भूमि अधिग्रहण कानून के कारण उनकी सरकार में विश्वास खो दिया. कहा तो भी जाता है कि भाजपा ने ओबीसी और उच्च जाति पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित किया. गौ रक्षकों के नाम पर गैर हिंदुओं के खिलाफ आंदोलन भी चले. इसमें 22 लोगों की मृत्यु हो गई. जहां-जहां पीएम और अमित शाह रैली करने गए, वहां पर उन्होंने नागरिकता संशोधन बिल की चर्चा की. लेकिन ये सारे मुद्दे बैकफायर कर गए.
2014 से भाजपा ने जीत का सिलसिला शुरू किया था. नव-राजनीति शुरू की. दिसंबर 2017 तक पार्टी कांग्रेस मुक्त भारत का नारा लगाती रही. देश की लगभग 71 फीसदी सीटों पर जीत हासिल कर ली. इस जीत ने पूरे देश को आश्चर्यचकित कर दिया था. विपक्ष भी इससे चकित था. उसे भी कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था. लेकिन एक साल के भीतर पार्टी ने मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र और अब झारखंड को खो दिया. कर्नाटक में जोड़तोड़ की बदौलत सरकार बना ली गई. हरियाणा में भी उन्हें दुष्यंत चौटाला से हाथ मिलाना पड़ा, जबकि दोनों एक दूसरे के खिलाप राजनीतिक बयानबाजी कर रहे थे.
दो साल पहले भाजपा की अभूतपूर्व वृद्धि ने विपक्ष के पदचिह्न को लोकतांत्रिक अस्तित्व के लिए लगभग असंभव बना दिया था. तब उनका एकमात्र एजेंडा समकालीन कांग्रेस की राजनीति के नुकसान को दूर करना था, जो कि मूल्यों से इतना दूषित हो गया था कि भाजपा की आक्रामकता कई क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को खतरे में डाल रही थी.
पढ़ें: यदि 10 और राज्य NPR का विरोध करें तो यह खत्म हो जाएगा : करात
भाजपा के लिए झारखंड चुनाव सबक जैसा है. स्थानीय नेताओं की अनदेखी नहीं कर सकते हैं. स्थानीय स्तर पर अलग तरह की रणनीति अपनानी होगी. लोकल स्तर पर गठबंधन का अपना महत्व होता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि पार्टी इससे सबक लेकर दिल्ली के आगामी चुनावों के लिए तैयार होगी.