नई दिल्ली : भारतीय जनता पार्टी के साथ 40 सालों का गठबंधन को तोड़कर शिरोमणि अकाली दल ने पहले इस्तीफा दिया और फिर रविवार को एनडीए के गठबंधन से अलग होने की घोषणा कर दी. शिवसेना की तरह शिरोमणि अकाली दल को भी कभी भारतीय जनता पार्टी का पुराना साथी माना जाता था. हालांकि अब एक-एक कर यह पुराने दल एनडीए के खेमे से बाहर होते नजर आ रहे हैं आखिर वजह क्या है? आखिर क्यों भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के चेहरे पर इसे लेकर शिकन तक नहीं दिख रही.
टूटते हुए गंठबंधन को न तो प्रधानमंत्री और न ही किसी वरिष्ठ मंत्री उन पार्टी के नेताओं को मनाने की कोशिश की ,बल्कि इससे उलट जब शिरोमणि अकाली दल की नेता हरसिमरत कौर बादल ने इस्तीफा दिया, तो प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस इस्तीफे को राष्ट्रपति के पास तुरंत स्वीकार करने की अनुशंसा कर दी.
शिवसेना जब अलग हुई थी, तो उसने भी यही आरोप लगाया था कि भारतीय जनता पार्टी उन्हें परस्पर सम्मान नहीं दे रही उनके नेताओं को मंत्रालय में काम करने की आजादी नहीं है. प्रधानमंत्री कार्यालय का बहुत ज्यादा हस्तक्षेप है, यही नहीं शिवसेना के नेता अरविंद सावंत ने तो सरकार से इस्तीफा देने के बाद यहां तक कह दिया था कि वह अपने मंत्रालय का एक भी निर्णय खुद नहीं ले सकते थे, तो क्या ऐसे में माना जाए कि बीजेपी जो खुद हमेशा से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आरोप लगाती आई थी कि मनमोहन सिंह मात्र कठपुतली की सरकार चला रहे थे सत्ता की डोर 10 जनपथ के हाथों में होती थी कुछ ऐसा ही नजारा या कहे माहौल एनडीए में भी बनता नजर आ रहा है.
अब बात करें कृषि विधेयकों की तो कहीं ना कहीं कृषी विधेयक को संसद में लाने से पहले भारतीय जनता पार्टी ने गठबंधन का धर्म निभाते हुए अपने गठबंधन की पार्टियों के साथ कभी भी यह कोशिश नहीं की कि संसद में इस बिल को पेश करने से पहले उनसे मंथन कर लिया जाए या फिर जिन बातों पर लेकर गठबंधन की पार्टियों को आपत्ति है उस पर चर्चा की जाए या कोई हल निकाला जाए. शायद बीजेपी को यह उम्मीद नहीं थी कि कृषि बिल के संसद में पारित होते ही उसे इतना बड़ा हंगामा देखना पड़ सकता है.
शिरोमणि अकाली दल के अलग होते ही पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना, जो अब विपक्ष में है को भी मौका मिल गया और शिवसेना ने भाजपा को निरंकुश बताते हुए अपने मुखपत्र सामना में यहां तक सवाल उठा दिया कि शिवसेना और अकाली दल के निकलने के बाद एनडीए में अब क्या बचा है, यही नहीं शिवसेना ने तो यहां तक सवाल किया कि एनडीए में बचे दलों का क्या हिंदुत्व से कोई लेना-देना भी है ,अकाली दल की पीठ थपथपाते हुए शिवसेना ने यहां तक कहा कि अकाली दल बादल ने किसानों के हित में फैसला लेते हुए निडरता दिखाई है.
मगर सवाल यहां सिर्फ महाराष्ट्र और पंजाब का नहीं बल्कि पूरे देश का है क्योंकि शिवसेना और अकाली दल के अलग होने के बाद अब बिहार में जनता दल यू के सामने भाजपा पर दबाव बढ़ गया हैऔर हमेशा से जोड़-तोड़ में माहिर नीतीश कुमार सीटों के बंटवारे पर अब भाजपा के साथ अच्छी खासी सौदेबाजी कर सकेंगे. लोक जनशक्ति पार्टी भी यह दबाव बनाएगी कि उसे ज्यादा से ज्यादा सीटें दी जांए.
वैसे तो लोकसभा में भाजपा की अपनी 303 सीटें हैं इसीलिए सरकार को कोई खतरा नहीं है मगर उसे बाहर से समर्थन देने वाले यह दल भी अगर विपक्षियों के साथ कदमताल करने लगेंगे, तो राज्यसभा में जहां भाजपा सबसे बड़ी पार्टी तो है ,लेकिन यहां भी उसे पूर्ण बहुमत नहीं है, ऐसे में किसी भी बिल को पास कराना उसके लिए आसान नहीं होगा. अकाली दल का एनडीए से टूटना वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए एक बड़ी चुनौती है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन तमाम घटनाओं के बावजूद भी निरपेक्ष बने हुए हैं.
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शिवसेना के नेता अरविंद सावंत से जब ईटीवी भारत ने भाजपा की सहयोगी पार्टियों पर सवाल किया, तो उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा कि अब एनडीए, एनडीए रहा कहां और भाजपा जिस तरह से एनडीए को हिंदूवादी पार्टियों का जमावड़ा बताती थी अगर अलग-अलग पार्टियां, जो अब एनडीए में रह गई हैं उसे देखा जाए तो एनडीए अब कोई हिंदूवादी पार्टी नहीं रह गई, साथ ही उन्होंने यह भी कहा की शिवसेना ने तो अलग होते समय ही यह कह दिया था कि भारतीय जनता पार्टी के आक्रामक रूख के कारण धीरे-धीरे अन्य पार्टियां भी गठबंधन धर्म को छोड़कर अलग हो जाएंगी और वही देखने को मिल रहा है.
इस संबंध में भारतीय जनता पार्टी के सांसद मनोज तिवारी से सवाल पूछा तो उन्होंने कहा कि इस बिल पर किसानों को खुला बाजार में लेगा और भ्रष्टाचार खत्म होगा. इस बिल के बारे में कांग्रेस भ्रम फैला रही है चाहे कोई कुछ भी करें अब किसानों के हित में लाया गया यह बिल किसानों को खुला बाजार और भ्रष्टाचार मुक्त बाजार देगा.
सवाल यह उठता है कि पहले शिवसेना और अब शिरोमणि अकाली दल बीजेपी ने दो अहम साथी गवा दिए. आखिर वह क्यों छोड़ गए. यह सियासी मजबूरी है या नीतियों का टकराव यासवाल यहां यह भी उठता है कि आखिर प्रधानमंत्री ने किसी भी बड़े नेता को अकाली दल को मनाने की जिम्मेदारी क्यों नहीं दी कहीं बीजेपी अकेले चलो के पथ पर तो नहीं चल पड़ी है.
बिहार चुनाव में अब लोक जनशक्ति पार्टी भी भाजपा पर दबाव बना रही है मगर कई दिनों से चल रहे सियासी ड्रामे को खत्म करने के लिए या फिर लोक जनशक्ति पार्टी और जेडीयू के बीच सहमति बनाने के लिए बीजेपी ने बड़े भाई की तरह कोई भी धर्म नहीं निभाया है और ना ही ऐसी किसी कोशिश में जुटी दिखी जिससे लोजपा उनके साथ रहे.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी ने जिस गठबंधन की नींव डालकर भाजपा को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाया था पहले शिवसेना और अब अकाली दल के अलग होने से उसकी बुनियाद धीरे-धीरे उखड़ती नजर आ रही है.
यहां तक कि अकाली दल के झगड़े की वजह से ही नवजोत सिंह सिद्धू ने कांग्रेस का दामन थाम लिया था और उस समय भी बीजेपी ने अकाली ओं के साथ दोस्ती को तरजीह दी थी.
सिद्धू पंजाब में भाजपा को अकेले चुनाव लड़ने की वकालत कर रहे थे, लेकिन तब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने वरिष्ठ नेता प्रकाश सिंह बादल की दोस्ती को ही तरजीह दी थी जिसका नुकसान भाजपा को चुनाव में उठाना पड़ा और शायद तब से ही यह धारणा भाजपा के अंदर जोर पकड़ने लगी थी कि अब अकाली दल का बोझ उतार कर जनता के बीच अपने बल पर जाना चाहिए मगर पार्टी को अभी तक कोई उचित और तार्किक कारण नहीं मिल पा रहा था, लेकिन कृषि विधेयक पर हरसिमरत के इस्तीफे ने पार्टी को एक बड़ा मौका दे दिया.