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ट्रंप या बाइडेन, कौन है भारत के लिए बेहतर विकल्प ?

बैटल ग्राउंड यूएसए 2020 की इस कड़ी में वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा ने व्यापार और आर्थिक चुनौतियों के मुद्दे पर वॉशिंगटन डीसी के हडसन इंस्टीट्यूट में इंडिया इनिशिएटिव की निदेशक डॉ. अपर्णा पांडे और पूर्व भारतीय राजदूत मोहन कुमार से चर्चा की और यह भी जानने की कोशिश की कि भारतीय हित के लिए ट्रंप या बाइडेन में से कौन अधिक बेहतर साबित होगा.

भारत और अमरीका के बीच व्यापार पर चर्चा
भारत और अमरीका के बीच व्यापार पर चर्चा
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Published : Sep 5, 2020, 8:44 PM IST

नई दिल्ली : भारत और अमेरिका के बीच आज एक मजबूत रणनीतिक और रक्षात्मक साझेदारी है और 14,200 करोड़ डॉलर से अधिक कीमत के मजबूत व्यापारिक संबंध हैं. लेकिन लंबे समय से चल रहे विवादों में आव्रजन और एक प्रस्तावित व्यापार सौदा शामिल है. यह एक ऐसे हाथ में न आने वाला सौदा है जो फरवरी 2020 में राष्ट्रपति ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान भी इसे कागज पर उतारा नहीं जा सका. हालांकि हाल ही में यूएस इंडिया स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप फोरम द्वारा आयोजित एक वार्षिक सम्मेलन में वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने घोषणा की कि संभवत: नवंबर के राष्ट्रपति चुनावों से पहले एक सीमित व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए जा सकते हैं.

वाशिंगटन डीसी के हडसन इंस्टीट्यूट में इंडिया इनिशिएटिव की निदेशक डॉ. अपर्णा पांडे ने सीमित व्यापार सौदे की संभावना के बारे में पूछे जाने पर कहा कि इसकी बहुत ज्यादा संभावना नहीं है. 'मुझे यकीन नहीं है कि आने वाले महीनों में किसी भी छोटे या अमुख्य एक व्यापार सौदे पर हस्ताक्षर किए जाएंगे. जो संभव है वो यह है कि अमेरिका भारत को जीएसपी (वरीयता की सामान्य प्रणाली) प्लस प्रदान करे, जो विशेषाधिकार छीन लिए गए थे. यह लगभग 600 से 800 करोड़ अमेरिकी डालर होगा. यह एक ऐसी चीज है जिसे एक कार्यकारी आदेश ने ले लिया था और राष्ट्रपति आने वाले एक या दो महीनों में ऐसा कर सकते हैं. यह छोटे सौदे की तरह प्रतीत होगा. डॉ. पांडे ने अपनी किताब चाणक्य ‘टू मोदी एंड मेकिंग इंडिया ग्रेट’ में इस बात का जिक्र भी किया है.

भारत और अमरीका के बीच व्यापार और अर्थव्यवस्था

'एक बड़े व्यापार सौदे के साथ समस्या यह है कि हम एक ऐसे समय में रहते हैं जब भारत और अमेरिका दोनों राष्ट्रवादी और संरक्षणवादी हैं. ‘अमेरिका फर्स्ट’ या अमेरिका को प्राथमिकता देने वाली नीति के साथ आगे बढ़ते हुए के देश को सुविधाएं देना मुश्किल है, जिसे आप पहले ही टैरिफ किंग का खिताब दे चुके हैं और जिसके खिलाफ आप कृषि सब्सिडी से लेकर बौद्धिक संपदा अधिकारों तक अन्य करों के मुद्दे पर मोर्चा लिए हुए हों. इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए अगले दो महीनों में ऐसा करना मुश्किल है. उन्होंने कहा, मैं नहीं जानती कि क्या यह अगले प्रशासन में भी मुमकिन होगा चाहे वह बाइडेन हों या ट्रंट. यह भारत के पक्ष में भी कठिन है. भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है. भारत के लिए कुछ टैरिफ और कर अपने स्वयं के किसानों और निर्माताओं की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं.'

फ्रांस में रहे पूर्व भारतीय राजदूत और व्यापार वार्ताकार मोहन कुमार ने इसी तरह की शंकाओं को प्रतिध्वनित करते हुए कहा कि 2021 की पहली तिमाही से पहले किसी भी व्यापार समझौते की संभावना नहीं है. उन्होंने जटिल मुद्दों को भी सामने रखा जो भारत के लिए अधिक चिंता का विषय हैं.

'सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा अब अमेरिका हमें चीन के साथ जोड़ रहा है और कह रहा है कि हम दोनों देश विकासशील कहलाने के हक़दार नहीं हैं. मेरे जैसे पूर्व वार्ताकार के लिए यह एक चौंकाने वाला तर्क है. आप सेब और संतरे की तुलना कर रहे हैं. हर कोई जानता है कि चीन की 13 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था है, जबकि हम 2.7 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था हैं. हमें इस मुद्दे पर अगले प्रशासन को अपनी ओर करना ही होगा, चाहे जैसे भी. मोहन कुमार ने कहा जो थिंक टैंक आरआइएस के अध्यक्ष हैं और जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में डीन भी हैं.

'मत्स्य पालन पर आसन्न बहुपक्षीय वार्ताओं के कारण मेरे लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हम विकासशील देश होने का दर्जा वापस प्राप्त करें. हम विश्व व्यापार संगठन में बातचीत करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं. यदि अमेरिका कहता है कि हम आपके साथ चीन या किसी अन्य देश की तरह व्यवहार करने जा रहे हैं. बाकी सब कुछ, मुझे विश्वास है कि, हम सुलझा सकते हैं लेकिन, यह अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर मैं लाइटहाइज़र (यूएस व्यापार प्रतिनिधि मंडल) राज़ी होता नज़र नहीं आ रहा है.' कुमार ने जीएसपी के साथ-साथ एक और जटिलता के रूप में डिजिटल सेवा कर की ओर इशारा करते हुए कहा.

'संयुक्त राज्य अमेरिका ने फ्रांस के विपरीत पक्ष लिया है जहां वे फ्रांस द्वारा डिजिटल सेवा कर लगाने के जवाब में दंडात्मक शुल्क लगाने की कोशिश कर रहा है. हम पहले ही ऐसा कर चुके हैं. हम इसे समकक्ष कर या कुछ और कहते हैं. हमने अमेरिका को यह समझाने की पूरी कोशिश की है कि उसका उद्देश्य गूगल या अमेज़न पर कर लागू करना नहीं है, इसलिए मुझे लगता है कि यह अगले साल की तिमाही में ही होगा.'

बातचीत में चर्चा की गई कि क्या बाइडेन प्रशासन ट्रंप की तुलना में ऊर्जा, व्यापार और आव्रजन की प्राथमिकताओं पर भारत के साथ अधिक सहयोग करेगा. ह्वाइट हाउस पर किसका कब्ज़ा होगा उसके मद्देनज़र अमेरिका-चीन व्यापार में अलगाव होने पर भारत के नुकसान या अवसरों पर भी चर्चा हुई.

पढ़ें - अमेरिका 'बेहद खराब हालात' पर भारत-चीन से कर रहा बातचीत : ट्रंप

डॉ. पांडे ने तर्क दिया 'अगर राष्ट्रपति ट्रंप सत्ता में लौटते हैं, तो यह सत्ता में उनके आखरी चार साल होंगे क्योंकि, वह फिर राष्ट्रपति नहीं बन सकते. इसलिए वह दो में से एक रास्ते को अपनाएंगे. सबसे अधिक संभावना है कि एक नीति को आगे बढ़ाएंगे, जिससे वे 1980 या 1990 के दशक के बाद से डरते आये हैं. उनके लिए आव्रजन मायने रखता है. अब तक उन्होंने जो भी किया है, वह ज्यादातर कार्यकारी आदेश हैं क्योंकि सिर्फ़ कांग्रेस ही है जो आव्रजन सुधारों को लागू कर सकती है, अमेरिका में कार्यकारी नहीं लेकिन, वह आव्रजन को प्रतिबंधित करने के लिए अधिक नीतियां बनाने की कोशिश करेंगे चाहे वह एच1बी हो या एल1, ग्रीन कार्ड या यहां तक कि छात्र वीजा भी. यही भारत को सबसे ज्यादा प्रभावित करेगा. सिर्फ इसलिए नहीं कि भारतीय यहां पढ़ने आते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि प्रेषण पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और जिस रिश्ते को हमने वर्षों से बनाने की कोशिश की है वह भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होगा.'

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आखिरकार दिल्ली और डीसी को राजनीतिक रुख अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि, आर्थिक पक्ष सामरिक आयाम से प्राथमिकता में बहुत पीछे है. मोहन कुमार का मानना है कि अत्यधिक कुशल आव्रजन को बाइडेन प्रशासन में सहूलियत दी जाएगी, लेकिन इसके अपने फायदे और नुकसान हैं.

'यदि बाइडेन प्रशासन सत्ता में आता है तो हमारे सामने कई तरह के मुद्दे हैं. हो सकता है कि विश्व व्यापार संगठन पुनर्जीवित हो जाए. फिर हम कोशिश करके किसी तरह के गठबंधन को स्थापित कर सकते हैं या तो देशों का समूह या द्विपक्षीय रूप से और यह संदेश दे सकते हैं कि हम आपके साथ बैठने को तैयार हैं, हम व्यापार करेंगे लेकिन, ऐसा न करें. हमें जो विशेष दर्जा दिया हुआ था उसे वापस न लें. जीएसपी को न हटाया जाए लेकिन, अन्य मुद्दे भी होंगे जिन पर बात करना ज़रूरी है. उदाहरण के लिए, जब हम श्रम मानकों, पर्यावरण मानकों की बात करते हैं तो वे बहुत जटिल रुख अपना लेते हैं और वे उन सभी को डब्ल्यूटीओ में शामिल करेंगे. डेमोक्रेट पारंपरिक रूप से पर्यावरण और श्रम मानकों को लेकर व्यापार के उपयोग पर मुक़दमे करने के लिए जाने जाते हैं.' सेवानिवृत्त राजनयिक ने कहा.

नई दिल्ली : भारत और अमेरिका के बीच आज एक मजबूत रणनीतिक और रक्षात्मक साझेदारी है और 14,200 करोड़ डॉलर से अधिक कीमत के मजबूत व्यापारिक संबंध हैं. लेकिन लंबे समय से चल रहे विवादों में आव्रजन और एक प्रस्तावित व्यापार सौदा शामिल है. यह एक ऐसे हाथ में न आने वाला सौदा है जो फरवरी 2020 में राष्ट्रपति ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान भी इसे कागज पर उतारा नहीं जा सका. हालांकि हाल ही में यूएस इंडिया स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप फोरम द्वारा आयोजित एक वार्षिक सम्मेलन में वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने घोषणा की कि संभवत: नवंबर के राष्ट्रपति चुनावों से पहले एक सीमित व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए जा सकते हैं.

वाशिंगटन डीसी के हडसन इंस्टीट्यूट में इंडिया इनिशिएटिव की निदेशक डॉ. अपर्णा पांडे ने सीमित व्यापार सौदे की संभावना के बारे में पूछे जाने पर कहा कि इसकी बहुत ज्यादा संभावना नहीं है. 'मुझे यकीन नहीं है कि आने वाले महीनों में किसी भी छोटे या अमुख्य एक व्यापार सौदे पर हस्ताक्षर किए जाएंगे. जो संभव है वो यह है कि अमेरिका भारत को जीएसपी (वरीयता की सामान्य प्रणाली) प्लस प्रदान करे, जो विशेषाधिकार छीन लिए गए थे. यह लगभग 600 से 800 करोड़ अमेरिकी डालर होगा. यह एक ऐसी चीज है जिसे एक कार्यकारी आदेश ने ले लिया था और राष्ट्रपति आने वाले एक या दो महीनों में ऐसा कर सकते हैं. यह छोटे सौदे की तरह प्रतीत होगा. डॉ. पांडे ने अपनी किताब चाणक्य ‘टू मोदी एंड मेकिंग इंडिया ग्रेट’ में इस बात का जिक्र भी किया है.

भारत और अमरीका के बीच व्यापार और अर्थव्यवस्था

'एक बड़े व्यापार सौदे के साथ समस्या यह है कि हम एक ऐसे समय में रहते हैं जब भारत और अमेरिका दोनों राष्ट्रवादी और संरक्षणवादी हैं. ‘अमेरिका फर्स्ट’ या अमेरिका को प्राथमिकता देने वाली नीति के साथ आगे बढ़ते हुए के देश को सुविधाएं देना मुश्किल है, जिसे आप पहले ही टैरिफ किंग का खिताब दे चुके हैं और जिसके खिलाफ आप कृषि सब्सिडी से लेकर बौद्धिक संपदा अधिकारों तक अन्य करों के मुद्दे पर मोर्चा लिए हुए हों. इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए अगले दो महीनों में ऐसा करना मुश्किल है. उन्होंने कहा, मैं नहीं जानती कि क्या यह अगले प्रशासन में भी मुमकिन होगा चाहे वह बाइडेन हों या ट्रंट. यह भारत के पक्ष में भी कठिन है. भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है. भारत के लिए कुछ टैरिफ और कर अपने स्वयं के किसानों और निर्माताओं की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं.'

फ्रांस में रहे पूर्व भारतीय राजदूत और व्यापार वार्ताकार मोहन कुमार ने इसी तरह की शंकाओं को प्रतिध्वनित करते हुए कहा कि 2021 की पहली तिमाही से पहले किसी भी व्यापार समझौते की संभावना नहीं है. उन्होंने जटिल मुद्दों को भी सामने रखा जो भारत के लिए अधिक चिंता का विषय हैं.

'सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा अब अमेरिका हमें चीन के साथ जोड़ रहा है और कह रहा है कि हम दोनों देश विकासशील कहलाने के हक़दार नहीं हैं. मेरे जैसे पूर्व वार्ताकार के लिए यह एक चौंकाने वाला तर्क है. आप सेब और संतरे की तुलना कर रहे हैं. हर कोई जानता है कि चीन की 13 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था है, जबकि हम 2.7 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था हैं. हमें इस मुद्दे पर अगले प्रशासन को अपनी ओर करना ही होगा, चाहे जैसे भी. मोहन कुमार ने कहा जो थिंक टैंक आरआइएस के अध्यक्ष हैं और जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में डीन भी हैं.

'मत्स्य पालन पर आसन्न बहुपक्षीय वार्ताओं के कारण मेरे लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हम विकासशील देश होने का दर्जा वापस प्राप्त करें. हम विश्व व्यापार संगठन में बातचीत करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं. यदि अमेरिका कहता है कि हम आपके साथ चीन या किसी अन्य देश की तरह व्यवहार करने जा रहे हैं. बाकी सब कुछ, मुझे विश्वास है कि, हम सुलझा सकते हैं लेकिन, यह अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर मैं लाइटहाइज़र (यूएस व्यापार प्रतिनिधि मंडल) राज़ी होता नज़र नहीं आ रहा है.' कुमार ने जीएसपी के साथ-साथ एक और जटिलता के रूप में डिजिटल सेवा कर की ओर इशारा करते हुए कहा.

'संयुक्त राज्य अमेरिका ने फ्रांस के विपरीत पक्ष लिया है जहां वे फ्रांस द्वारा डिजिटल सेवा कर लगाने के जवाब में दंडात्मक शुल्क लगाने की कोशिश कर रहा है. हम पहले ही ऐसा कर चुके हैं. हम इसे समकक्ष कर या कुछ और कहते हैं. हमने अमेरिका को यह समझाने की पूरी कोशिश की है कि उसका उद्देश्य गूगल या अमेज़न पर कर लागू करना नहीं है, इसलिए मुझे लगता है कि यह अगले साल की तिमाही में ही होगा.'

बातचीत में चर्चा की गई कि क्या बाइडेन प्रशासन ट्रंप की तुलना में ऊर्जा, व्यापार और आव्रजन की प्राथमिकताओं पर भारत के साथ अधिक सहयोग करेगा. ह्वाइट हाउस पर किसका कब्ज़ा होगा उसके मद्देनज़र अमेरिका-चीन व्यापार में अलगाव होने पर भारत के नुकसान या अवसरों पर भी चर्चा हुई.

पढ़ें - अमेरिका 'बेहद खराब हालात' पर भारत-चीन से कर रहा बातचीत : ट्रंप

डॉ. पांडे ने तर्क दिया 'अगर राष्ट्रपति ट्रंप सत्ता में लौटते हैं, तो यह सत्ता में उनके आखरी चार साल होंगे क्योंकि, वह फिर राष्ट्रपति नहीं बन सकते. इसलिए वह दो में से एक रास्ते को अपनाएंगे. सबसे अधिक संभावना है कि एक नीति को आगे बढ़ाएंगे, जिससे वे 1980 या 1990 के दशक के बाद से डरते आये हैं. उनके लिए आव्रजन मायने रखता है. अब तक उन्होंने जो भी किया है, वह ज्यादातर कार्यकारी आदेश हैं क्योंकि सिर्फ़ कांग्रेस ही है जो आव्रजन सुधारों को लागू कर सकती है, अमेरिका में कार्यकारी नहीं लेकिन, वह आव्रजन को प्रतिबंधित करने के लिए अधिक नीतियां बनाने की कोशिश करेंगे चाहे वह एच1बी हो या एल1, ग्रीन कार्ड या यहां तक कि छात्र वीजा भी. यही भारत को सबसे ज्यादा प्रभावित करेगा. सिर्फ इसलिए नहीं कि भारतीय यहां पढ़ने आते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि प्रेषण पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और जिस रिश्ते को हमने वर्षों से बनाने की कोशिश की है वह भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होगा.'

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आखिरकार दिल्ली और डीसी को राजनीतिक रुख अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि, आर्थिक पक्ष सामरिक आयाम से प्राथमिकता में बहुत पीछे है. मोहन कुमार का मानना है कि अत्यधिक कुशल आव्रजन को बाइडेन प्रशासन में सहूलियत दी जाएगी, लेकिन इसके अपने फायदे और नुकसान हैं.

'यदि बाइडेन प्रशासन सत्ता में आता है तो हमारे सामने कई तरह के मुद्दे हैं. हो सकता है कि विश्व व्यापार संगठन पुनर्जीवित हो जाए. फिर हम कोशिश करके किसी तरह के गठबंधन को स्थापित कर सकते हैं या तो देशों का समूह या द्विपक्षीय रूप से और यह संदेश दे सकते हैं कि हम आपके साथ बैठने को तैयार हैं, हम व्यापार करेंगे लेकिन, ऐसा न करें. हमें जो विशेष दर्जा दिया हुआ था उसे वापस न लें. जीएसपी को न हटाया जाए लेकिन, अन्य मुद्दे भी होंगे जिन पर बात करना ज़रूरी है. उदाहरण के लिए, जब हम श्रम मानकों, पर्यावरण मानकों की बात करते हैं तो वे बहुत जटिल रुख अपना लेते हैं और वे उन सभी को डब्ल्यूटीओ में शामिल करेंगे. डेमोक्रेट पारंपरिक रूप से पर्यावरण और श्रम मानकों को लेकर व्यापार के उपयोग पर मुक़दमे करने के लिए जाने जाते हैं.' सेवानिवृत्त राजनयिक ने कहा.

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