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प्राथमिक चिकित्सा की बुनियाद कमजोर, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में सुधार की जरूरत

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Published : Oct 17, 2020, 1:12 PM IST

Updated : Aug 24, 2022, 9:03 PM IST

स्वास्थ्य प्रणालियों को कोरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए प्राथमिक चिकित्सा में बुनियादी ढांचे की कमी साफ देखी जा रही है. अगले पांच वर्षों में प्राथमिक चिकित्सा सेवाओं और बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए भारत को 538305 करोड़ रुपये की आवश्यकता है. सरकार को समाधान के लिए बड़ी मात्रा में धन आवंटित करना चाहिए.

Health System
स्वास्थ्य प्रणाली

नई दिल्ली : देश अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य मानकों और नियमों को पूरा करने से कोसों दूर है. यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर पर चिकित्सा सेवाओं की उपलब्धता के संदर्भ में विभिन्न राज्यों में एक विपरीत स्थिति नजर आती है. स्वस्थ जनसंख्या किसी भी राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त है. यही कारण है कि कई देश स्वास्थ्य सेवाओं के निर्माण और सुधार के लिए अपने सकल घरेलू उत्पाद का एक बड़ा प्रतिशत आवंटित करते हैं. प्रति व्यक्ति कुल स्वास्थ्य व्यय के लिए किए गए सर्वेक्षण में 190 देशों की सूची में भारत 141वें स्थान पर है.

कोविड-19 के संदर्भ में घरेलू स्वास्थ्य क्षेत्र को मौजूदा प्रणालियों में कमजोरियों को आत्मसात करने और उनकी समीक्षा करने की आवश्यकता है. 2020-21 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के लिए आवंटित 69,000 करोड़ रुपये कुल जीडीपी का मात्र एक प्रतिशत है. ये राशि भारत जैसे अत्यधिक आबादी वाले देश की स्वास्थ्य जरूरतों के लिए सकल अपर्याप्त है. भले ही योजना आयोग (2011) ने स्वास्थ्य क्षेत्र को जीडीपी का 2.5 प्रतिशत आवंटित करने की सिफारिश की हो, लेकिन किसी भी सरकार ने इसे लागू करने का प्रस्ताव नहीं रखा है.

प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना
सितंबर 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) शुरू की, जिसे आयुष्मान भारत भी कहा जाता है, ताकि वंचितों के लिए स्वास्थ्य सेवा की मुफ्त पहुंच प्रदान की जा सके. यह दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना बताई जाती है. यह योग्य आबादी के लिए पांच लाख रुपये का बीमाकृत राशि प्रदान करती है.

पढ़ें: ट्रॉमा के मामलों में इजाफा करती सड़क दुर्घटनाएं : विश्व ट्रामा दिवस

1.5 लाख स्वास्थ्य सेवा केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य
आर्थिक, जाति और सामाजिक जनगणना के आधार पर 40 प्रतिशत आबादी यानी 10 करोड़ परिवार या 50 करोड़ लोग इस योजना के लाभार्थी हैं. इस योजना से अब तक लगभग 72 लाख लोग लाभान्वित हुए हैं, लेकिन यह योजना सीमित संख्या में बीमारियों के लिए ही बीमाकृत राशि प्रदान करती है. हालांकि आयुष्मान भारत ने 2022 तक 1.5 लाख स्वास्थ्य सेवा केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य रखा है, लेकिन इस लक्ष्य का एक चौथाई भी अभी तक पूरा नहीं हो पाया.

एनएचए द्वारा जारी रिपोर्ट
राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (एनएचए) द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, पीएमजेएवाई को लागू करने के लिए जिम्मेदार शीर्ष निकाय ने बीमा राशि के भुगतान के मामले में विभिन्न राज्यों के बीच के अंतर पर प्रकाश डाला है. सबसे गरीब राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) ने धन का उपयोग सबसे कम किया है, जबकि केरल ने इस योजना के तहत अस्पताल में सबसे अधिक भर्तियां करने की सूचना दी है.

आयुष्मान भारत के साथ भागीदारी नहीं
115 एस्पिरेशनल जिलों में से किसी एक में भी स्वास्थ्य सेवा केंद्र की आयुष्मान भारत के साथ भागीदारी नहीं की है. यहां तक कि इन जिलों के निजी अस्पताल भी इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए अनिच्छुक हैं. महाराष्ट्र और उत्तराखंड को छोड़कर अधिकांश राज्यों ने सिर्फ विकसित जिलों में ही निजी अस्पतालों को इस योजना से सशक्त बनाया है.

जिला अस्पतालों से जोड़ने की घोषणा
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, देश में डॉक्टर-जनसंख्या का अनुपात 1: 1456 है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा सिफारिश किए गये 1:1000 के खिलाफ है. इस अनुपात में सुधार करने के लिए सरकार ने मेडिकल कॉलेजों को जिला अस्पतालों से जोड़ने की घोषणा की है. वर्तमान में देश भर में 526 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं.

पढ़ें:त्योहारों के मद्देनजर पांच राज्यों में उच्च स्तरीय टीम भेजेगा स्वास्थ्य मंत्रालय

राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड के तहत स्नातकोत्तर कोर्स
पिछले दो वर्षों में इन कॉलेजों में सीटों की संख्या 82,000 से बढ़कर 1,00,000 हो गई है. राज्य द्वारा संचालित और निजी अस्पतालों के बीच असमानता बढ़ती जा रही है. लगभग 58 प्रतिशत अस्पताल के बेड निजी क्षेत्र में हैं. 81 प्रतिशत डॉक्टर निजी क्षेत्र में कार्यरत हैं. केंद्र की मंशा है कि पर्याप्त क्षमता वाले अस्पतालों में राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड के तहत स्नातकोत्तर का कोर्स कराए जाएं.

बेहतरीन चिकित्सा उपकरणों से लैस अस्पताल
शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सरकार की भूमिका को कम करने का प्रयास किया गया है. सरकारी अस्पतालों में एमबीबीएस के पाठ्यक्रम से परे उम्मीदवारों के लिए कम प्रशिक्षण सुविधाएं उपलब्ध हैं. कुशल चिकित्सकों की स्पष्ट कमी देखी जा सकती है. देश के कॉरपोरेट अस्पताल बेहतरीन चिकित्सा उपकरणों से लैस हैं. वे सरकार द्वारा दिए जा रहे प्रोत्साहन का लाभ भी उठाते हैं.

डॉक्टरों के रूप में नियुक्त मेडिकल छात्र
कुछ निजी अस्पताल अपने डॉक्टरों को विदेशों में प्रशिक्षित करवाने की क्षमता भी रखते हैं. उनकी सेवाओं का उपयोग करते हुए, राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड मेडिकल के छात्रों को स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में प्रवेश की सुविधा प्रदान कर सकता है. कठोर वास्तविकता यह है कि कई मेडिकल छात्रों को ड्यूटी पर डॉक्टरों के रूप में नियुक्त किया जा रहा है और उन्हें मरीजों के साथ बातचीत करने का मौका प्रदान किए बिना स्नातक की उपाधि दी जा रही है.

सस्ती दर पर जमीन आवंटित करने के निर्देश
नीति आयोग ने सार्वजनिक-निजी भागीदारी के आधार पर मेडिकल कॉलेजों को जिला अस्पतालों से जोड़ने का प्रस्ताव दिया है. कई निजी मेडिकल कॉलेजों के पास संबद्ध होने के लिए बड़े अस्पताल नहीं हैं. नीति तैयार करने वाले प्रबुद्ध मंडल ने राज्य सरकारों से निजी मेडिकल कॉलेजों को सस्ती दर पर जमीन आवंटित करने के लिए कहा ताकि उन्हें अस्पताल स्थापित करने में मदद मिल सके.

पढ़ें:सेनिटाइजर और मास्क खरीदने में खर्च हो अनुदान राशि : कलकत्ता हाईकोर्ट

प्रस्ताव पर कई राज्यों ने जाहिर किया विरोध
कुछ राज्यों ने इस प्रस्ताव पर अपना विरोध जाहिर किया है. ये उम्मीद करना कि जिला अस्पतालों के साथ निजी मेडिकल कॉलेजों को जोड़ने से डॉक्टरों की कमी को खत्म हो जाएगी बहुत संदेहास्पद है.

स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे के निर्माण
देश में प्राथमिक चिकित्सा में बुनियादी ढांचे की कमी साफ देखी जा रही है. अगले पांच वर्षों में प्राथमिक चिकित्सा सेवाओं और बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए भारत को 5,38,305 करोड़ रुपये की आवश्यकता है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस प्रस्ताव को 15वें योजना आयोग के सामने रखा है. फिर भी स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए उदार आवंटन का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है. प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने की आवश्यकता है.

स्वस्थ देशों की सूची में 120वें स्थान पर भारत
भारत दुनिया के सबसे स्वस्थ देशों की सूची में 120वें स्थान पर है. स्पेन और इटली ने सूची में पहले दो स्थान पर अपना कब्जा जमाया है. यह उल्लेखनीय है कि इटली भी उन राष्ट्रों में से एक है जो कोविड-19 से बुरी तरह प्रभावित थे. दक्षिण एशियाई देशों में श्रीलंका (66), बांग्लादेश (91) और नेपाल (110) स्थान हासिल करके भारत से बेहतर प्रदर्शन किया है.

महामारी की स्थिति में बचाव
महामारी ने मौजूदा स्वास्थ्य प्रणालियों में मौजूद कमियों पर से पर्दा उठा दिया है. पहली प्रणालीगत त्रुटी वायरोलॉजी प्रयोगशालाओं की कमी के रूप में सामने आई थी. 1952 में स्थापित राष्ट्रीय विषाणुविज्ञान संस्थान (एनआईवी) भारत में मौजूद सबसे बड़ा विषाणुविज्ञान अनुसंधान संस्थान है. इसे डब्ल्यूएचओ के सहयोग से की गई विषाणुओं पर कई अद्भुत शोधों का श्रेय दिया जाता है. दुर्भाग्य से यह देश अपनी तरह का एकमात्र ऐसा संगठन है जो महामारी की स्थिति में बचाव के लिए सामने आता है. इस विश्वमारी ने हर राज्य में ऐसे संस्थान स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया है.

पढ़ें:हृदय रोगियों का इलाज करेंगे नीट टॉपर शोएब, जानें कैसे मिली सफलता

तेजी से फैलने वाले संक्रमणों के स्रोतों की पहचान
निदान या उपचार में घातक देरी को रोकने के लिए देश के प्रत्येक कोने में अधिक विषाणुविज्ञान प्रयोगशालाएं स्थापित की जानी चाहिए. इस तरह की प्रयोगशाला अत्यधिक तेजी से फैलने वाले संक्रमणों के स्रोतों की पहचान करने में बहुत मदद करती हैं. विशेष रूप से कोविड-19 के दौर में एनआईवी ने कोरोनो वायरस की प्रकृति का व्यापक रूप से अध्ययन किया है और इसके अलावा इसके लक्षणों के साथ-साथ प्रसार के बारे में भी गहन शोध किया है.

वर्तमान परिस्थितियों में फार्मा क्षेत्र को प्रोत्साहन
वर्तमान में फैले कोविड-19 जैसा संकट तब तक आजीविका को नष्ट करना जारी रखेंगा जब तक कि लोग सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के कामकाज की निंदा सिर्फ आपातकाल के दौरान करेंगे, अन्यथा आत्मसंतुष्ट रहना पसंद करेंगे. विमुद्रीकरण और जीएसटी ने घरेलू फार्मा उद्योग को बर्बाद कर दिया है. वर्तमान परिस्थितियों में फार्मा क्षेत्र को प्रोत्साहन और निवेश के रूप में एक प्रमुख बढ़ावा देने की आवश्यकता है.

चीन पर निर्भर होना हानिकारक कदम
चीन ज्यादातर दवाओं के लिए सक्रिय दवा सामग्री (एपीआई) की आपूर्ति करता है. वर्तमान परिदृश्य के अनुसार, चीन पर ज्यादा निर्भर होना एक हानिकारक कदम साबित हो सकता है. इसलिए घरेलू दवा उद्योग को पुनर्जीवित करना अनिवार्य है. सार्वजनिक स्वास्थ्य और राष्ट्रीय विकास एक-दूसरे के साथ परस्पर संबंध रखते हैं. यह समय है जब नीति-निर्माता त्वरित-राहतें देना बंद करें और देश के स्वास्थ्य क्षेत्र को मजबूत करने के लिए दीर्घकालिक रणनीतियों पर अपना ध्यान केंद्रित करें.

पढ़ें: ईटीवी भारत से बोले AIMIM प्रत्याशी, मतदाताओं को करना है एकजुट

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण की रिपोर्ट
हाल ही में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण की रिपोर्ट में पाया गया है कि मलेरिया, वायरल, हैपेटाइटिस, पेचिश, डेंगू, चिकनगुनिया, चिकन पॉक्स, खसरा, इंसेफेलाइटिस, फाइलेरिया, टाइफाइड और तपेदिक जैसी अन्य बीमारियों से संक्रमण के कारण बढ़ती संख्या में भरतीय बीमार हो रहें हैं.

महामारी से निपटने के लिए तैयार रहने की जरुरत
सरकार को इन मुद्दों के समाधान के लिए बड़ी मात्रा में धन आवंटित करना चाहिए. यदि इन आम संक्रमणों को इतना अधिक धन और संसाधनों की आवश्यकता पहले से मौजूद है, तो हमारी स्वास्थ्य प्रणालियों को कोरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए कितना तैयार रहने की जरुरत होगी? सरकारों को महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के निर्माण और सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिए बड़े पैमाने पर धन आवंटन करने के महत्व को पहचानने की आवश्यकता है.

नई दिल्ली : देश अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य मानकों और नियमों को पूरा करने से कोसों दूर है. यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर पर चिकित्सा सेवाओं की उपलब्धता के संदर्भ में विभिन्न राज्यों में एक विपरीत स्थिति नजर आती है. स्वस्थ जनसंख्या किसी भी राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त है. यही कारण है कि कई देश स्वास्थ्य सेवाओं के निर्माण और सुधार के लिए अपने सकल घरेलू उत्पाद का एक बड़ा प्रतिशत आवंटित करते हैं. प्रति व्यक्ति कुल स्वास्थ्य व्यय के लिए किए गए सर्वेक्षण में 190 देशों की सूची में भारत 141वें स्थान पर है.

कोविड-19 के संदर्भ में घरेलू स्वास्थ्य क्षेत्र को मौजूदा प्रणालियों में कमजोरियों को आत्मसात करने और उनकी समीक्षा करने की आवश्यकता है. 2020-21 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के लिए आवंटित 69,000 करोड़ रुपये कुल जीडीपी का मात्र एक प्रतिशत है. ये राशि भारत जैसे अत्यधिक आबादी वाले देश की स्वास्थ्य जरूरतों के लिए सकल अपर्याप्त है. भले ही योजना आयोग (2011) ने स्वास्थ्य क्षेत्र को जीडीपी का 2.5 प्रतिशत आवंटित करने की सिफारिश की हो, लेकिन किसी भी सरकार ने इसे लागू करने का प्रस्ताव नहीं रखा है.

प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना
सितंबर 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) शुरू की, जिसे आयुष्मान भारत भी कहा जाता है, ताकि वंचितों के लिए स्वास्थ्य सेवा की मुफ्त पहुंच प्रदान की जा सके. यह दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना बताई जाती है. यह योग्य आबादी के लिए पांच लाख रुपये का बीमाकृत राशि प्रदान करती है.

पढ़ें: ट्रॉमा के मामलों में इजाफा करती सड़क दुर्घटनाएं : विश्व ट्रामा दिवस

1.5 लाख स्वास्थ्य सेवा केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य
आर्थिक, जाति और सामाजिक जनगणना के आधार पर 40 प्रतिशत आबादी यानी 10 करोड़ परिवार या 50 करोड़ लोग इस योजना के लाभार्थी हैं. इस योजना से अब तक लगभग 72 लाख लोग लाभान्वित हुए हैं, लेकिन यह योजना सीमित संख्या में बीमारियों के लिए ही बीमाकृत राशि प्रदान करती है. हालांकि आयुष्मान भारत ने 2022 तक 1.5 लाख स्वास्थ्य सेवा केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य रखा है, लेकिन इस लक्ष्य का एक चौथाई भी अभी तक पूरा नहीं हो पाया.

एनएचए द्वारा जारी रिपोर्ट
राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (एनएचए) द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, पीएमजेएवाई को लागू करने के लिए जिम्मेदार शीर्ष निकाय ने बीमा राशि के भुगतान के मामले में विभिन्न राज्यों के बीच के अंतर पर प्रकाश डाला है. सबसे गरीब राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) ने धन का उपयोग सबसे कम किया है, जबकि केरल ने इस योजना के तहत अस्पताल में सबसे अधिक भर्तियां करने की सूचना दी है.

आयुष्मान भारत के साथ भागीदारी नहीं
115 एस्पिरेशनल जिलों में से किसी एक में भी स्वास्थ्य सेवा केंद्र की आयुष्मान भारत के साथ भागीदारी नहीं की है. यहां तक कि इन जिलों के निजी अस्पताल भी इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए अनिच्छुक हैं. महाराष्ट्र और उत्तराखंड को छोड़कर अधिकांश राज्यों ने सिर्फ विकसित जिलों में ही निजी अस्पतालों को इस योजना से सशक्त बनाया है.

जिला अस्पतालों से जोड़ने की घोषणा
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, देश में डॉक्टर-जनसंख्या का अनुपात 1: 1456 है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा सिफारिश किए गये 1:1000 के खिलाफ है. इस अनुपात में सुधार करने के लिए सरकार ने मेडिकल कॉलेजों को जिला अस्पतालों से जोड़ने की घोषणा की है. वर्तमान में देश भर में 526 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं.

पढ़ें:त्योहारों के मद्देनजर पांच राज्यों में उच्च स्तरीय टीम भेजेगा स्वास्थ्य मंत्रालय

राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड के तहत स्नातकोत्तर कोर्स
पिछले दो वर्षों में इन कॉलेजों में सीटों की संख्या 82,000 से बढ़कर 1,00,000 हो गई है. राज्य द्वारा संचालित और निजी अस्पतालों के बीच असमानता बढ़ती जा रही है. लगभग 58 प्रतिशत अस्पताल के बेड निजी क्षेत्र में हैं. 81 प्रतिशत डॉक्टर निजी क्षेत्र में कार्यरत हैं. केंद्र की मंशा है कि पर्याप्त क्षमता वाले अस्पतालों में राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड के तहत स्नातकोत्तर का कोर्स कराए जाएं.

बेहतरीन चिकित्सा उपकरणों से लैस अस्पताल
शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सरकार की भूमिका को कम करने का प्रयास किया गया है. सरकारी अस्पतालों में एमबीबीएस के पाठ्यक्रम से परे उम्मीदवारों के लिए कम प्रशिक्षण सुविधाएं उपलब्ध हैं. कुशल चिकित्सकों की स्पष्ट कमी देखी जा सकती है. देश के कॉरपोरेट अस्पताल बेहतरीन चिकित्सा उपकरणों से लैस हैं. वे सरकार द्वारा दिए जा रहे प्रोत्साहन का लाभ भी उठाते हैं.

डॉक्टरों के रूप में नियुक्त मेडिकल छात्र
कुछ निजी अस्पताल अपने डॉक्टरों को विदेशों में प्रशिक्षित करवाने की क्षमता भी रखते हैं. उनकी सेवाओं का उपयोग करते हुए, राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड मेडिकल के छात्रों को स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में प्रवेश की सुविधा प्रदान कर सकता है. कठोर वास्तविकता यह है कि कई मेडिकल छात्रों को ड्यूटी पर डॉक्टरों के रूप में नियुक्त किया जा रहा है और उन्हें मरीजों के साथ बातचीत करने का मौका प्रदान किए बिना स्नातक की उपाधि दी जा रही है.

सस्ती दर पर जमीन आवंटित करने के निर्देश
नीति आयोग ने सार्वजनिक-निजी भागीदारी के आधार पर मेडिकल कॉलेजों को जिला अस्पतालों से जोड़ने का प्रस्ताव दिया है. कई निजी मेडिकल कॉलेजों के पास संबद्ध होने के लिए बड़े अस्पताल नहीं हैं. नीति तैयार करने वाले प्रबुद्ध मंडल ने राज्य सरकारों से निजी मेडिकल कॉलेजों को सस्ती दर पर जमीन आवंटित करने के लिए कहा ताकि उन्हें अस्पताल स्थापित करने में मदद मिल सके.

पढ़ें:सेनिटाइजर और मास्क खरीदने में खर्च हो अनुदान राशि : कलकत्ता हाईकोर्ट

प्रस्ताव पर कई राज्यों ने जाहिर किया विरोध
कुछ राज्यों ने इस प्रस्ताव पर अपना विरोध जाहिर किया है. ये उम्मीद करना कि जिला अस्पतालों के साथ निजी मेडिकल कॉलेजों को जोड़ने से डॉक्टरों की कमी को खत्म हो जाएगी बहुत संदेहास्पद है.

स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे के निर्माण
देश में प्राथमिक चिकित्सा में बुनियादी ढांचे की कमी साफ देखी जा रही है. अगले पांच वर्षों में प्राथमिक चिकित्सा सेवाओं और बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए भारत को 5,38,305 करोड़ रुपये की आवश्यकता है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस प्रस्ताव को 15वें योजना आयोग के सामने रखा है. फिर भी स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए उदार आवंटन का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है. प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने की आवश्यकता है.

स्वस्थ देशों की सूची में 120वें स्थान पर भारत
भारत दुनिया के सबसे स्वस्थ देशों की सूची में 120वें स्थान पर है. स्पेन और इटली ने सूची में पहले दो स्थान पर अपना कब्जा जमाया है. यह उल्लेखनीय है कि इटली भी उन राष्ट्रों में से एक है जो कोविड-19 से बुरी तरह प्रभावित थे. दक्षिण एशियाई देशों में श्रीलंका (66), बांग्लादेश (91) और नेपाल (110) स्थान हासिल करके भारत से बेहतर प्रदर्शन किया है.

महामारी की स्थिति में बचाव
महामारी ने मौजूदा स्वास्थ्य प्रणालियों में मौजूद कमियों पर से पर्दा उठा दिया है. पहली प्रणालीगत त्रुटी वायरोलॉजी प्रयोगशालाओं की कमी के रूप में सामने आई थी. 1952 में स्थापित राष्ट्रीय विषाणुविज्ञान संस्थान (एनआईवी) भारत में मौजूद सबसे बड़ा विषाणुविज्ञान अनुसंधान संस्थान है. इसे डब्ल्यूएचओ के सहयोग से की गई विषाणुओं पर कई अद्भुत शोधों का श्रेय दिया जाता है. दुर्भाग्य से यह देश अपनी तरह का एकमात्र ऐसा संगठन है जो महामारी की स्थिति में बचाव के लिए सामने आता है. इस विश्वमारी ने हर राज्य में ऐसे संस्थान स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया है.

पढ़ें:हृदय रोगियों का इलाज करेंगे नीट टॉपर शोएब, जानें कैसे मिली सफलता

तेजी से फैलने वाले संक्रमणों के स्रोतों की पहचान
निदान या उपचार में घातक देरी को रोकने के लिए देश के प्रत्येक कोने में अधिक विषाणुविज्ञान प्रयोगशालाएं स्थापित की जानी चाहिए. इस तरह की प्रयोगशाला अत्यधिक तेजी से फैलने वाले संक्रमणों के स्रोतों की पहचान करने में बहुत मदद करती हैं. विशेष रूप से कोविड-19 के दौर में एनआईवी ने कोरोनो वायरस की प्रकृति का व्यापक रूप से अध्ययन किया है और इसके अलावा इसके लक्षणों के साथ-साथ प्रसार के बारे में भी गहन शोध किया है.

वर्तमान परिस्थितियों में फार्मा क्षेत्र को प्रोत्साहन
वर्तमान में फैले कोविड-19 जैसा संकट तब तक आजीविका को नष्ट करना जारी रखेंगा जब तक कि लोग सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के कामकाज की निंदा सिर्फ आपातकाल के दौरान करेंगे, अन्यथा आत्मसंतुष्ट रहना पसंद करेंगे. विमुद्रीकरण और जीएसटी ने घरेलू फार्मा उद्योग को बर्बाद कर दिया है. वर्तमान परिस्थितियों में फार्मा क्षेत्र को प्रोत्साहन और निवेश के रूप में एक प्रमुख बढ़ावा देने की आवश्यकता है.

चीन पर निर्भर होना हानिकारक कदम
चीन ज्यादातर दवाओं के लिए सक्रिय दवा सामग्री (एपीआई) की आपूर्ति करता है. वर्तमान परिदृश्य के अनुसार, चीन पर ज्यादा निर्भर होना एक हानिकारक कदम साबित हो सकता है. इसलिए घरेलू दवा उद्योग को पुनर्जीवित करना अनिवार्य है. सार्वजनिक स्वास्थ्य और राष्ट्रीय विकास एक-दूसरे के साथ परस्पर संबंध रखते हैं. यह समय है जब नीति-निर्माता त्वरित-राहतें देना बंद करें और देश के स्वास्थ्य क्षेत्र को मजबूत करने के लिए दीर्घकालिक रणनीतियों पर अपना ध्यान केंद्रित करें.

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राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण की रिपोर्ट
हाल ही में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण की रिपोर्ट में पाया गया है कि मलेरिया, वायरल, हैपेटाइटिस, पेचिश, डेंगू, चिकनगुनिया, चिकन पॉक्स, खसरा, इंसेफेलाइटिस, फाइलेरिया, टाइफाइड और तपेदिक जैसी अन्य बीमारियों से संक्रमण के कारण बढ़ती संख्या में भरतीय बीमार हो रहें हैं.

महामारी से निपटने के लिए तैयार रहने की जरुरत
सरकार को इन मुद्दों के समाधान के लिए बड़ी मात्रा में धन आवंटित करना चाहिए. यदि इन आम संक्रमणों को इतना अधिक धन और संसाधनों की आवश्यकता पहले से मौजूद है, तो हमारी स्वास्थ्य प्रणालियों को कोरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए कितना तैयार रहने की जरुरत होगी? सरकारों को महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के निर्माण और सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिए बड़े पैमाने पर धन आवंटन करने के महत्व को पहचानने की आवश्यकता है.

Last Updated : Aug 24, 2022, 9:03 PM IST
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