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भारत की शिक्षा प्रणाली में गुणवत्ता का अभाव, जानें क्यों - शिक्षा प्रणाली में गुणवत्ता का अभाव

भारत 74वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. बावजूद भारतीय शिक्षा प्रणाली में गुणवत्ता का अभाव है. आज भारतीय शिक्षा प्रणाली न केवल विकसित देशों से पिछड़ी हुई है, बल्कि भारत के कई पड़ोसी देश भी शिक्षा के मामले में भारत से काफी आगे हैं. सर्वोत्तम प्रयासों के बाद भी भारत का शैक्षिक विकास निम्न स्तर पर बना हुआ है, जिसके कई कारण हैं.

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Published : Aug 16, 2020, 4:58 PM IST

हैदराबाद : पूर्व-ब्रिटिश दिनों में हिंदू और मुसलमानों को पाठशालाओं और मदरसों के माध्यम से शिक्षित किया गया था. अंग्रेजों के आने के बाद शिक्षा के लिए नया मिशनरी सिस्टम आया.

उन्होंने भारतीय का एक वर्ग बनाने का लक्ष्य रखा, जो खून और रंग में भारतीय हो, लेकिन स्वाद में अंग्रेजी हो. जो सरकार और जनता के बीच दुभाषियों के रूप में काम करे. आज, भारत एक तेजी से विकास करने वाला देश है, जिसमें समावेशी, उच्च-गुणवत्ता वाली शिक्षा अपनी भविष्य की समृद्धि के लिए अत्यधिक महत्व रखती है.

आज भारतीय शिक्षा प्रणाली अन्य देशों के मुकाबले में काफी पिछड़ती नजर आ रही है और न केवल विकसित देश बल्कि भारत के कई पड़ोसी देश शिक्षा के मामले में काफी आगे हैं. भारत अपने दक्षिण एशियाई समकक्षों में दूसरे सबसे कम शिक्षा स्कोर (66/100), अफगानिस्तान से थोड़ा आगे (65) और ग्रुप लीडर श्रीलंका (75) से बहुत पीछे है.

शिक्षा में आने वाली परेशानियां

सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद हमारा शैक्षिक विकास निम्न स्तर पर बना हुआ है. पर्याप्त धन की कमी शिक्षा के विकास में मुख्य समस्या है. पंचवर्षीय योजनाओं में शिक्षा का परिव्यय कम हो रहा है. अपर्याप्त धन के कारण, अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों में बुनियादी सुविधाओं, विज्ञान उपकरणों और पुस्तकालयों आदि की कमी है.

भारत में विश्वविद्यालय, पेशेवर और तकनीकी शिक्षा महंगी हो गई है. इसके अलावा विज्ञान विषयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है, इसलिए जो ग्रामीण छात्र अंग्रेजी में कमजोर हैं, वह विज्ञान का अंग्रेजी में ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते.

ब्रेन ड्रेन

जब योग्य उम्मीदवारों को देश में उपयुक्त नौकरी नहीं मिलती है, तो वे नौकरी मांगने के लिए विदेश जाना पसंद करते हैं. इसलिए हमारा देश अच्छी प्रतिभाओं से वंचित है. इस घटना को 'ब्रेन ड्रेन' कहा जाता है.

संवैधानिक निर्देशों और आर्थिक नियोजन के बावजूद, हम शत-प्रतिशत साक्षरता हासिल नहीं कर पा रहे हैं. भारत में अभी भी 35 फीसदी लोग अनपढ़ हैं.

भारत में, निरक्षरों की संख्या दुनिया के कुल निरक्षरों की लगभग एक तिहाई है. उन्नत देश 100 फीसदी साक्षर है, जबकि भारत में स्थिति काफी निराशाजनक है.

हमारी शिक्षा प्रणाली सामान्य शिक्षा पर आधारित है. प्राथमिक और माध्यमिक स्तर में ड्रॉपआउट दर बहुत अधिक है.

6-14 आयु वर्ग के अधिकांश छात्र अपनी शिक्षा पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं.

हमारी प्राथमिक शिक्षा बहुत सारी समस्याओं से ग्रस्त है. बड़ी संख्या में प्राथमिक स्कूलों में भवन नहीं हैं, जिसमें पीने के पानी, मूत्रालय और बिजली, फर्नीचर और अध्ययन सामग्री आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं की बात की जाए, तो बड़ी संख्या में प्राथमिक स्कूल एकल शिक्षक स्कूल हैं और कई स्कूल शिक्षकों के बिना भी हैं.

शिक्षकों की कमी

देशभर के राजकीय विद्यालयों में हर चार में से एक शिक्षक अनुपस्थित रहता है और दो में से एक, जो मौजूद है, पढ़ा नहीं रहा है. यह कम शिक्षक वेतन के कारण नहीं हो रहा है.

कई राज्यों में, 10% से कम शिक्षक, शिक्षक पात्रता परीक्षा पास करते हैं.

भारत के बच्चे पढ़ने, विज्ञान और अंकगणित के अंतरराष्ट्रीय पीआईएसए परीक्षण में 74 देशों में से 73वें स्थान पर रहे. वह केवल किर्गिस्तान से आगे थे. इस परीक्षण के कारण यूपीए सरकार इतनी शर्मिंदा थी कि उसने परीक्षण पर रोक लगा दी.

कक्षा 5 में आधे से भी कम छात्र पैराग्राफ पढ़ सकते हैं या कक्षा 2 के पाठ से गणित का योग कर सकते हैं.

पढ़ें - शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने उठाए यह कदम

सरकार के DISE आंकड़ों के अनुसार, 2011 और 2018 के बीच, 2.4 करोड़ बच्चों ने सरकारी स्कूल छोड़ दिए और निजी स्कूलों में शामिल हो गए. आज, भारत के लगभग आधे बच्चे (47.5%) निजी स्कूल प्रणाली में हैं. इसमें 70 फीसदी माता-पिता 1000 रुपये से कम मासिक शुल्क और 45 प्रतिशत माता-पिता 500 रुपये से कम का भुगतान करते हैं.

2010 और 2014 के बीच, पब्लिक स्कूलों की संख्या में लगभग 13,500 की वृद्धि हुई, लेकिन उनमें कुल नामांकन में 1.13 करोड़ की गिरावट आई, जबकि इसी समय में निजी स्कूल नामांकन में 1.85 करोड़ की वृद्धि हुई.

अधिकांश कॉलेज केवल अंडर ग्रेजुएट स्तर के कार्यक्रम चलाते हैं, केवल 3.6 फीसदी कॉलेज पीएचडी स्तर के कार्यक्रम चलाते हैं और 36.7 प्रतिशत कॉलेज स्नातकोत्तर स्तर के कार्यक्रम चलाते हैं.

हैदराबाद : पूर्व-ब्रिटिश दिनों में हिंदू और मुसलमानों को पाठशालाओं और मदरसों के माध्यम से शिक्षित किया गया था. अंग्रेजों के आने के बाद शिक्षा के लिए नया मिशनरी सिस्टम आया.

उन्होंने भारतीय का एक वर्ग बनाने का लक्ष्य रखा, जो खून और रंग में भारतीय हो, लेकिन स्वाद में अंग्रेजी हो. जो सरकार और जनता के बीच दुभाषियों के रूप में काम करे. आज, भारत एक तेजी से विकास करने वाला देश है, जिसमें समावेशी, उच्च-गुणवत्ता वाली शिक्षा अपनी भविष्य की समृद्धि के लिए अत्यधिक महत्व रखती है.

आज भारतीय शिक्षा प्रणाली अन्य देशों के मुकाबले में काफी पिछड़ती नजर आ रही है और न केवल विकसित देश बल्कि भारत के कई पड़ोसी देश शिक्षा के मामले में काफी आगे हैं. भारत अपने दक्षिण एशियाई समकक्षों में दूसरे सबसे कम शिक्षा स्कोर (66/100), अफगानिस्तान से थोड़ा आगे (65) और ग्रुप लीडर श्रीलंका (75) से बहुत पीछे है.

शिक्षा में आने वाली परेशानियां

सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद हमारा शैक्षिक विकास निम्न स्तर पर बना हुआ है. पर्याप्त धन की कमी शिक्षा के विकास में मुख्य समस्या है. पंचवर्षीय योजनाओं में शिक्षा का परिव्यय कम हो रहा है. अपर्याप्त धन के कारण, अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों में बुनियादी सुविधाओं, विज्ञान उपकरणों और पुस्तकालयों आदि की कमी है.

भारत में विश्वविद्यालय, पेशेवर और तकनीकी शिक्षा महंगी हो गई है. इसके अलावा विज्ञान विषयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है, इसलिए जो ग्रामीण छात्र अंग्रेजी में कमजोर हैं, वह विज्ञान का अंग्रेजी में ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते.

ब्रेन ड्रेन

जब योग्य उम्मीदवारों को देश में उपयुक्त नौकरी नहीं मिलती है, तो वे नौकरी मांगने के लिए विदेश जाना पसंद करते हैं. इसलिए हमारा देश अच्छी प्रतिभाओं से वंचित है. इस घटना को 'ब्रेन ड्रेन' कहा जाता है.

संवैधानिक निर्देशों और आर्थिक नियोजन के बावजूद, हम शत-प्रतिशत साक्षरता हासिल नहीं कर पा रहे हैं. भारत में अभी भी 35 फीसदी लोग अनपढ़ हैं.

भारत में, निरक्षरों की संख्या दुनिया के कुल निरक्षरों की लगभग एक तिहाई है. उन्नत देश 100 फीसदी साक्षर है, जबकि भारत में स्थिति काफी निराशाजनक है.

हमारी शिक्षा प्रणाली सामान्य शिक्षा पर आधारित है. प्राथमिक और माध्यमिक स्तर में ड्रॉपआउट दर बहुत अधिक है.

6-14 आयु वर्ग के अधिकांश छात्र अपनी शिक्षा पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं.

हमारी प्राथमिक शिक्षा बहुत सारी समस्याओं से ग्रस्त है. बड़ी संख्या में प्राथमिक स्कूलों में भवन नहीं हैं, जिसमें पीने के पानी, मूत्रालय और बिजली, फर्नीचर और अध्ययन सामग्री आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं की बात की जाए, तो बड़ी संख्या में प्राथमिक स्कूल एकल शिक्षक स्कूल हैं और कई स्कूल शिक्षकों के बिना भी हैं.

शिक्षकों की कमी

देशभर के राजकीय विद्यालयों में हर चार में से एक शिक्षक अनुपस्थित रहता है और दो में से एक, जो मौजूद है, पढ़ा नहीं रहा है. यह कम शिक्षक वेतन के कारण नहीं हो रहा है.

कई राज्यों में, 10% से कम शिक्षक, शिक्षक पात्रता परीक्षा पास करते हैं.

भारत के बच्चे पढ़ने, विज्ञान और अंकगणित के अंतरराष्ट्रीय पीआईएसए परीक्षण में 74 देशों में से 73वें स्थान पर रहे. वह केवल किर्गिस्तान से आगे थे. इस परीक्षण के कारण यूपीए सरकार इतनी शर्मिंदा थी कि उसने परीक्षण पर रोक लगा दी.

कक्षा 5 में आधे से भी कम छात्र पैराग्राफ पढ़ सकते हैं या कक्षा 2 के पाठ से गणित का योग कर सकते हैं.

पढ़ें - शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने उठाए यह कदम

सरकार के DISE आंकड़ों के अनुसार, 2011 और 2018 के बीच, 2.4 करोड़ बच्चों ने सरकारी स्कूल छोड़ दिए और निजी स्कूलों में शामिल हो गए. आज, भारत के लगभग आधे बच्चे (47.5%) निजी स्कूल प्रणाली में हैं. इसमें 70 फीसदी माता-पिता 1000 रुपये से कम मासिक शुल्क और 45 प्रतिशत माता-पिता 500 रुपये से कम का भुगतान करते हैं.

2010 और 2014 के बीच, पब्लिक स्कूलों की संख्या में लगभग 13,500 की वृद्धि हुई, लेकिन उनमें कुल नामांकन में 1.13 करोड़ की गिरावट आई, जबकि इसी समय में निजी स्कूल नामांकन में 1.85 करोड़ की वृद्धि हुई.

अधिकांश कॉलेज केवल अंडर ग्रेजुएट स्तर के कार्यक्रम चलाते हैं, केवल 3.6 फीसदी कॉलेज पीएचडी स्तर के कार्यक्रम चलाते हैं और 36.7 प्रतिशत कॉलेज स्नातकोत्तर स्तर के कार्यक्रम चलाते हैं.

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