ETV Bharat / bharat

विशेष : भारत-नेपाल के रिश्तों में खटास, जानें इसके पीछे चीन तो नहीं

भारत और नेपाल के संबंध 2015 से ही बिगड़ने शुरू हो गए थे. नेपाल के साथ विशेष संबंध होने के बावजूद भारत सरकार इन संबंधों को सुधार नहीं सकी. उस पर से नेपाल में केपी शर्मा ओली की ताजपोशी ने स्थिति को और जटिल बना दिया. शर्मा ने आंतरिक राजनीति साधने के लिए इन रिश्तों को दांव पर लगा दिया. नेपाली राष्ट्रीयता की भावना की आड़ में अपना कद बढ़ा लिया. आंतरिक राजनीति के अलावा चीन भी एक फैक्टर है. चीन पर्दे के पीछे से काम करता है. वह हरेक चाल भारत को केंद्र में रखकर चल रहा है. आइए इस विषय पर विस्तार से जानते हैं आखिर नेपाल-भारत के रिश्तों पर जमी बर्फ की असली वजह क्या है.

भारत-नेपाल के रिश्तों में खटास
कॉन्सेप्ट इमेज.
author img

By

Published : Jun 21, 2020, 3:27 PM IST

Updated : Jun 21, 2020, 4:34 PM IST

किसी ने यह सोचा ही नहीं था कि भारत के निकटतम पड़ोसी और सहयोगी नेपाल को भारत के साथ विवादित भूमि पर दावा जताने के लिए पुराने औपनिवेशिक समझौतों और हिस्सेदारी का फिर से सहारा लेना होगा. उसने जल्दबाजी में अपनी संसद में एक विधेयक ला कर तीन स्थलों, कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल में शामिल कर लिया. इस अप्रत्याशित घटना ने नई दिल्ली को उलझन में डाल दिया कि वह इस पर कैसी प्रतिक्रिया दे. गुस्सा दिखाए, तिरस्कार करे या उदासीन रहे. भारत की उलझन इसलिए भी बढ़ गई क्योंकि चीन ने न केवल अपनी सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा के करीब तैनात कर दिया, बल्कि उसने अनांकित सीमा की सुरक्षा के लिए भारत की कितनी तैयारी है, इसकी भी परीक्षा लेनी शुरू कर दी.

जून 15 को जो हुआ और जिस ढंग से भारत ने चीन के नियंत्रण रेखा और इलाके पर उसके दावे को मान लिया, इसका प्रभाव इस बात पर पड़ेगा कि अब नेपाल कैसे भारत को जमीनी सीमा के सवाल को लेकर चुनौती देगा.

आखिर क्यों इस मोड़ पर नेपाल ने विवादित सीमा पर अपने दावे को मजबूती से रखने का तय किया ? क्या इस मुद्दे को उठाने के पीछे नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली का हाथ था, जो अपनी घरेलू समस्याओं से जनता का ध्यान भटकाना चाहते थे या फिर चीन ने उन्हें ऐसा करने को प्रेरित किया जो आक्रामक रूप से इस भूखंड पर भारत के प्रभाव को कमतर करने की कोशिश में है ? जहां नेपाल की विवादित जमीन को हड़पने की कोशिश का समय चीन से संबंधित लग सकता है. वहीं कई कारण इस बात को भी सूचित करते हैं कि ओली के निर्णय के मूल में किसी अन्य कारणों के बदले नई दिल्ली के साथ उनके असहज संबंध हों.

भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे और ओली के दिमाग में जो चल रहा है. उस पर अनुमान लगा कर यह सोचना गलत था कि नेपाल की आक्रामकता के लिए चीन दोषी है. हालांकि इस पर बाद में थोड़ी पीछे हट की गई, लेकिन इस बात ने कि एक सार्वभौमिक मित्र देश, कोई स्वतंत्र निर्णय लेने के काबिल नहीं है, काठमांडू के सत्तारूढ़ गलियारे में हंगामा खड़ा कर दिया.

इसके बाद नेपाल सरकार ने उन तीन जगहों को अपने देश में तत्काल शामिल कर लिया, जिन पर भारत का दावा था. नेपाल ने भारत की प्रतिक्रिया की परवाह तक नहीं की और न ही इस बारे में किसी प्रकार की बातचीत करने का सुझाव रखा. ओली सरकार ने संसद में विधेयक पारित होने के बाद जा कर नई दिल्ली से यह कह कर संपर्क किया कि अब वह भारत से बात करने को तैयार है. नेपाल में भारत के एक पूर्व राजदूत ने कहा, 'अब इस बारे में बात करने को बचा ही क्या है. वैसे बात करने को बहुत है अगर भारत इस बारे में आत्मचिंतन करे कि क्यों नेपाल में भारत के प्रति इतनी कटुता है और क्यों विवादित जगहों के औपचारिक अधिग्रहण को ले कर नेपालियों में इतना उत्साह दिखाई दे रहा है.

ओली सरकार की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाये जा रहे हैं. ओली सरकार द्वारा वैश्विक महामारी से बेतरतीबी से निबटने को लेकर युवा आंदोलन हुए हैं. संक्रमण की संख्या निरंतर बढ़ रही है. यहां भी ओली ने इसके लिए भारत को यह कह कर जिम्मेदार ठहराया कि ज्यादातर संक्रमित लोग सरहद पार से आ रहे थे, जब की सच यह है भारत से बहुत कम लोग नेपाल वापस गए हैं.

ओली नई दिल्ली से इस बात से नाराज है. उनका मानना है कि वह जब बीमार पड़ा था तो उसे गद्दी से हटाने की कोशिश के पीछे नई दिल्ली का हाथ था. यहां तक कि प्रचंड का उसके विरोध करने के पीछे भी भारत का हाथ दिखाई देता है. नेपाल में चीन के राजदूत के हस्तक्षेप के कारण ओली बच गए क्यों कि समाज में उनकी पैठ काफी ज्यादा है.

ओली को एक सुनहरा मौका तब मिला जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बिना सोचे कैलाश मानसरोवर के रोड का उद्घाटन किया जो लिपुलेख हो कर गुजरता है जिसे नेपाल अपने देश का हिस्सा होने का दावा करता है. नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावाली ने कहा, 'भारत ने जिस लिंक रोड का उद्घाटन किया वह उस क्षेत्र से गुजरता है जो ऐतिहासिक काल से नेपाल का है. 1816 की सुगौली संधि के अनुसार महाकाली नदी के पूर्व की जमीन नेपाल की है और दोनों पक्षों ने 1988 में तय की गई सीमा के सिद्धांत के आधार पर नेपाल की सीमा को मान लिया था.'

नेपाल ने उस समय विरोध किया था जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चीन की यात्रा के बाद लिपुलेख पर तीर्थ यात्रियों की मदद के लिए सैनिक चौकी बनाने का फैसला किया था. भारतीय नेताओं द्वारा मानसरोवर यात्रा का इस्तेमाल हिन्दू बहुल देश में हिंदुओं को लामबंद करने के प्रयास से भी नेपालियों में विक्षोभ था. मोदी के नेतृत्व में भारत की सरकार की कोशिश हिन्दू संस्कृति के नाम पर भारत के प्रभाव को बढ़ाने की रही है. इस प्रयास का उल्टा असर पडा है. नेपाल हिंदुवाद को राणा वंश के सामंतवाद के रूप में देखता है, जिसके खिलाफ माओवादियों ने कट्टर संघर्ष किया था. भारत और नेपाल के संबंध उस समय खराब हुए जब काठमांडू ने नेपाल को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने से मना कर दिया.

भारत और नेपाल के सम्बन्ध 2015 से ही बिगड़ने शुरू हो गए और नेपाल के साथ विशेष संबंध होने के बावजूद भारत सरकार इन संबंधों को सुधार नहीं सकी. इस भूखंड से घिरे देश के साथ संबंध के भविष्य में ज्यादा समस्याएं नई दिल्ली का चीन के बिल्लौरी कांच के माध्यम से उस देश को देखने के कारण उपस्थित होंगी चिंता का एक विषय यह भी है कि भारत के अर्थतंत्र की बिगड़ती हालत के कारण अब नेपाल के युवा नौकरी के लिए भारत को आकर्षक देश नहीं समझेंगे.

(संजय कपूर, वरिष्ठ पत्रकार)

किसी ने यह सोचा ही नहीं था कि भारत के निकटतम पड़ोसी और सहयोगी नेपाल को भारत के साथ विवादित भूमि पर दावा जताने के लिए पुराने औपनिवेशिक समझौतों और हिस्सेदारी का फिर से सहारा लेना होगा. उसने जल्दबाजी में अपनी संसद में एक विधेयक ला कर तीन स्थलों, कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल में शामिल कर लिया. इस अप्रत्याशित घटना ने नई दिल्ली को उलझन में डाल दिया कि वह इस पर कैसी प्रतिक्रिया दे. गुस्सा दिखाए, तिरस्कार करे या उदासीन रहे. भारत की उलझन इसलिए भी बढ़ गई क्योंकि चीन ने न केवल अपनी सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा के करीब तैनात कर दिया, बल्कि उसने अनांकित सीमा की सुरक्षा के लिए भारत की कितनी तैयारी है, इसकी भी परीक्षा लेनी शुरू कर दी.

जून 15 को जो हुआ और जिस ढंग से भारत ने चीन के नियंत्रण रेखा और इलाके पर उसके दावे को मान लिया, इसका प्रभाव इस बात पर पड़ेगा कि अब नेपाल कैसे भारत को जमीनी सीमा के सवाल को लेकर चुनौती देगा.

आखिर क्यों इस मोड़ पर नेपाल ने विवादित सीमा पर अपने दावे को मजबूती से रखने का तय किया ? क्या इस मुद्दे को उठाने के पीछे नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली का हाथ था, जो अपनी घरेलू समस्याओं से जनता का ध्यान भटकाना चाहते थे या फिर चीन ने उन्हें ऐसा करने को प्रेरित किया जो आक्रामक रूप से इस भूखंड पर भारत के प्रभाव को कमतर करने की कोशिश में है ? जहां नेपाल की विवादित जमीन को हड़पने की कोशिश का समय चीन से संबंधित लग सकता है. वहीं कई कारण इस बात को भी सूचित करते हैं कि ओली के निर्णय के मूल में किसी अन्य कारणों के बदले नई दिल्ली के साथ उनके असहज संबंध हों.

भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे और ओली के दिमाग में जो चल रहा है. उस पर अनुमान लगा कर यह सोचना गलत था कि नेपाल की आक्रामकता के लिए चीन दोषी है. हालांकि इस पर बाद में थोड़ी पीछे हट की गई, लेकिन इस बात ने कि एक सार्वभौमिक मित्र देश, कोई स्वतंत्र निर्णय लेने के काबिल नहीं है, काठमांडू के सत्तारूढ़ गलियारे में हंगामा खड़ा कर दिया.

इसके बाद नेपाल सरकार ने उन तीन जगहों को अपने देश में तत्काल शामिल कर लिया, जिन पर भारत का दावा था. नेपाल ने भारत की प्रतिक्रिया की परवाह तक नहीं की और न ही इस बारे में किसी प्रकार की बातचीत करने का सुझाव रखा. ओली सरकार ने संसद में विधेयक पारित होने के बाद जा कर नई दिल्ली से यह कह कर संपर्क किया कि अब वह भारत से बात करने को तैयार है. नेपाल में भारत के एक पूर्व राजदूत ने कहा, 'अब इस बारे में बात करने को बचा ही क्या है. वैसे बात करने को बहुत है अगर भारत इस बारे में आत्मचिंतन करे कि क्यों नेपाल में भारत के प्रति इतनी कटुता है और क्यों विवादित जगहों के औपचारिक अधिग्रहण को ले कर नेपालियों में इतना उत्साह दिखाई दे रहा है.

ओली सरकार की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाये जा रहे हैं. ओली सरकार द्वारा वैश्विक महामारी से बेतरतीबी से निबटने को लेकर युवा आंदोलन हुए हैं. संक्रमण की संख्या निरंतर बढ़ रही है. यहां भी ओली ने इसके लिए भारत को यह कह कर जिम्मेदार ठहराया कि ज्यादातर संक्रमित लोग सरहद पार से आ रहे थे, जब की सच यह है भारत से बहुत कम लोग नेपाल वापस गए हैं.

ओली नई दिल्ली से इस बात से नाराज है. उनका मानना है कि वह जब बीमार पड़ा था तो उसे गद्दी से हटाने की कोशिश के पीछे नई दिल्ली का हाथ था. यहां तक कि प्रचंड का उसके विरोध करने के पीछे भी भारत का हाथ दिखाई देता है. नेपाल में चीन के राजदूत के हस्तक्षेप के कारण ओली बच गए क्यों कि समाज में उनकी पैठ काफी ज्यादा है.

ओली को एक सुनहरा मौका तब मिला जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बिना सोचे कैलाश मानसरोवर के रोड का उद्घाटन किया जो लिपुलेख हो कर गुजरता है जिसे नेपाल अपने देश का हिस्सा होने का दावा करता है. नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावाली ने कहा, 'भारत ने जिस लिंक रोड का उद्घाटन किया वह उस क्षेत्र से गुजरता है जो ऐतिहासिक काल से नेपाल का है. 1816 की सुगौली संधि के अनुसार महाकाली नदी के पूर्व की जमीन नेपाल की है और दोनों पक्षों ने 1988 में तय की गई सीमा के सिद्धांत के आधार पर नेपाल की सीमा को मान लिया था.'

नेपाल ने उस समय विरोध किया था जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चीन की यात्रा के बाद लिपुलेख पर तीर्थ यात्रियों की मदद के लिए सैनिक चौकी बनाने का फैसला किया था. भारतीय नेताओं द्वारा मानसरोवर यात्रा का इस्तेमाल हिन्दू बहुल देश में हिंदुओं को लामबंद करने के प्रयास से भी नेपालियों में विक्षोभ था. मोदी के नेतृत्व में भारत की सरकार की कोशिश हिन्दू संस्कृति के नाम पर भारत के प्रभाव को बढ़ाने की रही है. इस प्रयास का उल्टा असर पडा है. नेपाल हिंदुवाद को राणा वंश के सामंतवाद के रूप में देखता है, जिसके खिलाफ माओवादियों ने कट्टर संघर्ष किया था. भारत और नेपाल के संबंध उस समय खराब हुए जब काठमांडू ने नेपाल को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने से मना कर दिया.

भारत और नेपाल के सम्बन्ध 2015 से ही बिगड़ने शुरू हो गए और नेपाल के साथ विशेष संबंध होने के बावजूद भारत सरकार इन संबंधों को सुधार नहीं सकी. इस भूखंड से घिरे देश के साथ संबंध के भविष्य में ज्यादा समस्याएं नई दिल्ली का चीन के बिल्लौरी कांच के माध्यम से उस देश को देखने के कारण उपस्थित होंगी चिंता का एक विषय यह भी है कि भारत के अर्थतंत्र की बिगड़ती हालत के कारण अब नेपाल के युवा नौकरी के लिए भारत को आकर्षक देश नहीं समझेंगे.

(संजय कपूर, वरिष्ठ पत्रकार)

Last Updated : Jun 21, 2020, 4:34 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.