मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार पर संकट जारी है. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी ही पार्टी को त्याग दिया. कांग्रेस के कई विधायकों ने त्याग पत्र भेज दिया है. अब सवाल यह है कि क्या कमलनाथ वह भूमिका निभा पाएंगे, जैसा कि शरद पवार ने महाराष्ट्र में किया. पवार ने अपने सभी बागी विधायकों को अपने खेमे में वापस बुला लिया था. ऐसा करना संभव नहीं हुआ, तो कमलनाथ की सरकार पर संकट गहरा सकता है.
संख्या बल की बात करें, तो ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 22 विधायकों से इस्तीफा दिलवा दिया है. प्रदेश में चुनाव के बाद सिंधिया चाहते थे कि उन्हें सीएम बनाय जाए, लेकिन कुर्सी कमलनाथ को दी गई. शायद तभी से सिंधिया के मन में कुछ न कुछ चल रहा हो. आज की स्थिति के अनुसार विधानसभा में विधायकों की संख्याबल घटकर 206 हो गई है.
ऐसे में बहुमत के लिए मात्र 104 विधायकों की जरूरत है. इस स्थिति को भांपते हुए कमलनाथ ने बाकी के अपने विधायकों को जयपुर के रिसॉर्ट में भिजवा दिया. भाजपा ने भी ऐसा ही किया है. दरअसल, यह एक प्रतियोगिता हो चली है. यहां विधायकों को अपनी राजनीतिक निष्ठा बदलने के लिए अरबों रुपये खर्च किए जाते हैं. विरोधी सरकारों के साथ जबरदस्ती वाला व्यवहार किया जाता है. यह एक राजनैतिक अनैतिकता की एक और आशाहीन गाथा है, जहां सरकार बनाने और सरकार गिराने के लिए बेहिसाब धन खर्च किया जा रहा है.
बीजेपी, जो पहले 'नो हैंड्स' पॉलिसी को आगे बढ़ाने का आभास दे रही थी, अब हर काम ऐसे कर रही है, मानो वह झटके से उबरना चाह रही है. भाजपा हर हाल में राज्यसभा में बहुमत चाहती है. इसके लिए वह अधिक से अधिक विधायकों को अपने पाले में करना चाहती है, ताकि राज्यसभा में उनके सांसदों की संख्या बढ़ सके और वह यहां पर बिल पास करवा सकें. संभवतः यही वजह है कि झारखंड, राजस्थान और यहां तक कि महाराष्ट्र में विपक्षी दलों की सरकार को धौंस दिखाई जा रही है. मूर्त और अमूर्त दोनों संसाधनों का प्रयोग किया जा रहा है. यह देखने की जरूरत है कि पार्टी अपने इस उद्यम में कितनी सफल हो सकती है.
तथ्य यह है कि इस ऑपरेशन में पैसा एक अहम मुद्दा है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पाले में फिर से लौटने वाले विधायकों में से एक ने दावा किया कि उसे 25 करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी. एक अन्य व्हिसल ब्लोअर ने 100 करोड़ रुपये का दावा किया है. ऐसे समय में जब अर्थव्यवस्था भारी गिरावट से गुजर रही है, यह दरें विचित्र हैं.
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कई विधायकों के लिए धन एक प्रमुख आकर्षण है जो चुनाव जीतने के लिए भारी मात्रा में धन खर्च करते हैं, कुछ के लिए यह भी महत्वपूर्ण है कि पार्टी अपने युवा नेताओं को उनकी राजनीतिक क्षमता का एहसास कराने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं दे रही है. राहुल गांधी के मित्र और समर्थक ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी के भीतर एक बड़ी भूमिका की मांग कर रहे थे, लेकिन कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के संयुक्त नेतृत्व ने उन्हें इससे दूर रखा. उन्होंने कुछ महीने पहले अपने ट्विटर हैंडल से कांग्रेस के साथ अपने जुड़ाव को हटा दिया था. उन्होंने अनुच्छेद 370 के उन्मूलन पर कांग्रेस के आधिकारिक स्टैंड से अलग राय रखी. देखना है कि दिल्ली दंगों पर वह किस तरह का रुख रखते हैं. विगत में उन्होंने भाजपा की नीतियों की जबरदस्त आलोचना की थी.
ऐसा लगता है कि उनकी वैचारिक स्थिति वास्तविक रूप से वास्तविक और अवसरवाद में गहरे रंग की थी. सिंधिया, जिनकी दादी भाजपा के संस्थापकों में से एक थीं और उनके दो चाची पार्टी में वरिष्ठ पदों पर हैं. 2019 के लोकसभा चुनावों में सिंधिया एक लाख वोटों से हार गए थे. उनके ही मातहत काम करने वाले पुराने कार्यकर्ता ने उन्हें हरा दिया था. गुना भी उनके लिए सुरक्षित सीट नहीं रह गई थी. भाजपा ज्वाइन करने के बाद उन्होंने अपना किला गुना सुरक्षित रखने की कोशिश की है.
कमलनाथ का दावा है कि कई विधायक, जिन्होंने इस्तीफा दिया है, वह लौट आएंगे. राज्यसभा की सीट पर उन्होंने दिग्विजय सिंह का समर्थन किया है.
जाहिर है, सिंधिया के जाने से कांग्रेस पार्टी को एक झटका लगा है. कांग्रेस अपने विधायकों को समेट कर रख नहीं पा रही है. कर्नाटक में उन्होंने 17 विधायकों को खो दिया. वह भाजपा में शामिल हो गए. जीत के चक्कर में कांग्रेस ने वैसे लोगों को टिकट दिया, जो विगत में या तो जदयू एस के साथ थे या फिर भाजपा में. इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा. ऐसे विधायकों को ऐसा करने में कोई गलती महसूस नहीं होती है. अस्पृश्यता की यह कमी हिंदुत्व समर्थक को गुदगुदी करती है क्योंकि यह विधायकों को कहीं से भी आकर्षित कर सकती है.
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यह कांग्रेस पार्टी कहां छोड़ती है ? 2019 के संसद चुनावों के बाद, कांग्रेस की गाड़ी पटरी से उतर चुकी है. राहुल गांधी ने अपनी जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने कहा कि पार्टी अपना अध्यक्ष चुन ले. हालांकि, सोनिया गांधी के चारों ओर घूमने वाले कथित चाटुकारों ने ऐसा होने नहीं दिया. सोनिया को अंतरिम अध्यक्ष बनवा दिया. वह अस्वस्थ रहती हैं. उन्होंने दिल्ली चुनावों में भी प्रचार नहीं किया था. पार्टी की निष्क्रियता की वजह से कांग्रेस का वोट आम आदमी पार्टी को चला गया या उसे होने दिया गया. वैसे उदारवादी, जिनकी जमीनी पकड़ नहीं है, भले ही कांग्रेस की तारीफ कर रहे हों, लेकिन असल में इसने पार्टी को और अधिक कमजोर बना दिया. कुछ कांग्रेस नेताओं ने तो इस चुनाव को भाजपा के लिए झटका बता दिया. उन्होंने आप की तारीफ की. लेकिन उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया कि कांग्रेस का वोट प्रतिशत चार फीसदी पर चला गया.
कांग्रेस का कहना है कि भाजपा का विरोध कैसे किया जाए. कई लोगों का मानना है कि सीएए के विरोध ने सत्तारूढ़ दल के लिए अखिल भारतीय विरोध पैदा कर दिया है और केवल एक राजनीतिक दल ही इस हवा का इस्तेमाल कर सकता है. अन्य लोगों का मानना है कि कांग्रेस, जिसने आजादी के बाद कभी आंदोलन नहीं किया, उसे अगले संसद चुनावों के लिए तैयार रहना होगा, जो अभी भी चार साल दूर है.
कांग्रेस इस भ्रम में है कि उसे और उसकी विचारधारा का नेतृत्व कौन करे. राहुल गांधी को उनके हैंडलर्स ने अल्पसंख्यकों से दूर रहने की सलाह दी थी. उन्होंने गुजरात चुनावों में इसका प्रयोग भी किया. वहां पर सभी तरह के धार्मिक मंदिरों में दर्शन करने गए. उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि फैज कैप वाले किसी के साथ एक भी सेल्फी ना लें. अगर पार्टी अल्पसंख्यों के साथ खड़ी होना नहीं चाहती है, तो वह भाजपा से अलग कैसे होगी.
चूंकि देश में सीएए और एनआरसी के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, कांग्रेस ने केवल सतही तौर पर इसका विरोध किया है. गांधी परिवार का कोई भी सदस्य शाहीन बाग जाने से बचता रहा है. उन्हें भय सता रहा है कि भाजपा वाले फिर से उन्हें अल्पसंख्यकों का पिट्ठू बता देंगे.
अगर कांग्रेस पार्टी को संसद के बाहर एक सुसंगत विपक्ष बनाने के लिए इस आंदोलन का निर्माण करना पड़ता है, तो इससे भाजपा और उसकी वैचारिक मातृशक्ति को नियंत्रण से दूर करना होगा. हालांकि, अगर अवसरवादी कांग्रेसियों का आचरण देखकर लगता है कि भाजपा के लिए खेल आसान है. राजस्थान और छत्तीसगढ़ पर खतरा मंडराता रहेगा.
(लेखक - संजय कपूर)