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विशेष : पढ़िए लद्दाख और जम्मू-कश्मीर पर चीनी घुसपैठ का असर

पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी घुसपैठ के बाद से दोनों देशों के बीच गतिरोध बना हुआ है. लद्दाख के केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद चीनी घुसपैठ ने कई सवालों को जन्म दिया है. लद्दाख के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर की स्थानीय आबादी पर भी इसका असर पड़ा है. पढ़ें हमारी विशेष रिपोर्ट...

IMPACT ON JAMMU AND KASHMIR
लद्दाख और जम्मू-कश्मीर पर चीनी घुसपैठ
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Published : Aug 5, 2020, 8:20 AM IST

Updated : Aug 5, 2020, 2:38 PM IST

श्रीनगर : केंद्र की मोदी सरकार ने पिछले साल 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A को निरस्त कर दिया था. इसके नौ महीने बाद नवगठित केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख के गलवान घाटी में चीनी घुसपैठ की खबरें सामने आईं.

चीनी घुसपैठ की खबरों ने न केवल 1999 के कारगिल युद्ध की यादों को ताजा किया, बल्कि लद्दाख के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर की स्थानीय आबादी पर भी इसका असर पड़ा है.

स्थानीय लोग पूर्ण शटडाउन और संचार प्रतिबंध के काल से गुजरे ही थे कि वे एक और प्रतिकूल स्थिति की दहलीज पर थे.

अनुच्छेद 370 हटाने की वर्षगांठ पर हम आपको बता रहे हैं कि कोरोना महामारी के बीच जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित करने के बाद वहां के निवासियों के जीवन में क्या बदलाव हुआ और चीनी घुसपैठ ने उनके जीवन को कैसे प्रभावित किया.

जम्मू-कश्मीर पर प्रभाव

उत्तरी कश्मीर के हंदवाड़ा और सोपोर क्षेत्र में पिछले महीने दो अलग-अलग मुठभेड़ के दौरान छह केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवानों की मौत हो गई थी. जिसके बाद सेना के अधिकारियों ने दावा किया था कि इस क्षेत्र में एक बार फिर आतंकी गतिविधियां बढ़ेंगी.

श्रीनगर में तैनात एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने खुफिया जानकारी साझा करते हुए ईटीवी भारत को बताया, 'वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर मौजूदा हालात से क्षेत्र में उग्रवाद की नई लहर पैदा हो सकती है. पाकिस्तान नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर तनाव बढ़ा कर और सीमा पार आतंकी गतिविधियों को सक्रिय रखते हुए लाभ उठाने की कोशिश कर रहा है.

उन्होंने आगे कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल ने भी जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा स्थिति के बारे में समीक्षा बैठक के दौरान यही बात कही थी.

नौ मई को, नई दिल्ली में जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा स्थिति की समीक्षा करते हुए डोभाल ने सुरक्षाबलों को विपरीत परिस्थिति के लिए तैयार रहने को कहा था.

जबकि सेना और अन्य सुरक्षा एजेंसियां कश्मीर ​​घाटी में आतंकवाद को पूर्ण रूप से खत्म करने की तैयारी कर रही हैं. सुरक्षा विशेषज्ञों ने ईटीवी भारत को बताया कि घबराने की कोई बात नहीं थी.

रक्षा विशेषज्ञ जय कुमार वर्मा ने कहा, 'ऐसी रिपोर्ट्स हो सकती हैं और हमारे सुरक्षाबलों को किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए, लेकिन आंकड़े आतंकवाद, संघर्ष विराम उल्लंघन या सुरक्षाबलों पर घातक हमले में वृद्धि का इशारा नहीं करते हैं. कम से कम मेरे लिए, घबराने की कोई बात नहीं है और आपको भी आराम महसूस करना चाहिए.'

वर्मा के अनुसार, सुरक्षाबलों को उनके द्वारा शुरू किए गए लक्षित अभियानों में जनहानि का सामना करना पड़ा है, न कि आतंकवादियों के कारण. वर्मा ने कहा, 'वे (सुरक्षाबल) समन्वित तरीके से काम करते हैं और पूरा ऑपरेशन पहले से संचालित सामान्य घेराबंदी और सर्च ऑपरेशन की बजाय खुफिया जानकारी पर आधारित है.'

श्रीनगर में मौजूद पर्यवेक्षकों के लिए, एलएसी पर तनाव और घाटी में आतंकवाद के बढ़ने के बीच सीधा संबंध है. स्थानीय निवासियों में गुस्सा, कश्मीर पर पाकिस्तान सरकार की बयानबाजी और लद्दाख में तनाव, ये सभी जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त करने से जुड़े हुए हैं.

कश्मीर के एक वरिष्ठ राजनेता ने नाम न छापने की शर्त पर ईटीवी भारत को बताया, 'भारत सरकार पांच अगस्त के बाद चीन की आक्रामक कूटनीतिक की स्थिति को ठीक से नहीं आंक सकी.'

उन्होंने कहा, 'चीन अब कश्मीर मुद्दे में तीसरा पक्ष बन गया है. मुझे लगता है कि लद्दाख अब चीन द्वारा विनियोजित है और पाकिस्तान को कश्मीर संभालने के लिए छोड़ दिया गया है. पाकिस्तान और चीन रणनीतिक साझेदार हैं और सामरिक अभियान भी शुरू कर चुके हैं. आप देखते हैं कि लगभग हर दिन एलओसी पर युद्धविराम का उल्लंघन होता है. अगर इन बातों को जोड़ कर देखें तो चीजें स्पष्ट हो जाएंगी.'

हालांकि, रक्षा विशेषज्ञ जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में होने वाले विकास को चीन और पाकिस्तान के समन्वित प्रयास के रूप में नहीं देखते हैं, मगर यह महसूस करते हैं कि दोनों देश स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं.

वर्मा ने कहा, 'फिलहाल मुझे पाकिस्तान की तरफ से पैटर्न में कोई बदलाव नहीं दिख रहा है. एलओसी पर गोलीबारी कोई नई बात नहीं है, और यह नियमित रूप से बढ़ रहा है. लद्दाख गतिरोध एक गंभीर मुद्दा है, लेकिन अभी तक यह अकेले चल सकने योग्य है. अभी तक मैं यह नहीं मानता कि जम्मू-कश्मीर के मौजूदा हालात के साथ चीन की घुसपैठ से कोई संबंध है. लेकिन मैं कोई भाग्य बताने वाला नहीं हूं. इसलिए भविष्य में कुछ भी संभव है.'

राजनीतिक परिणाम में देरी

21 मई को, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव ने एक अखबार के लेख, जिसका शीर्षक था- 'यह जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राजनीतिक गतिविधि की अनुमति देने का समय है' में कहा था कि जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त, 2019 के प्रस्ताव से किया गया परिवर्तन एक तार्किक अंत तक पहुंच गया था और यह एक संकेत था कि केंद्र सरकार नवगठित केंद्रशासित प्रदेश की राजनीति में पूर्व की स्थिति बहाल करने के लिए तैयार थी.

इसके बाद तय हुआ था कि जम्मू-कश्मीर में एक सलाहकार परिषद का गठन किया जाएगा, जिसके अध्यक्ष अपनी पार्टी के नेता अल्ताफ बुखारी होंगे.

जम्मू-कश्मीर में दिल्ली के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अपनी पार्टी को माध्यम बनाया गया था. मीडिया में कहा गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में 14 मार्च को अल्ताफ बुखारी और उनके 24 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ एक सलाहकार परिषद के गठन पर चर्चा की. जून के पहले सप्ताह में इसकी लॉन्चिंग की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन कोरोना महामारी के कारण इसे स्थगित कर दिया गया.

हालांकि, विशेषज्ञों का मानना ​​है कि सलाहकार परिषद में देरी के पीछे कई और कारण हो सकते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार भरत भूषण ने ईटीवी भारत को बताया, 'अगर महामारी ने केंद्र को 18 मई को जम्मू-कश्मीर के लिए नए अधिवास नियमों को अधिसूचित करने से नहीं रोका, तो एक सलाहकार परिषद की नियुक्ति के लिए एक साधारण प्रशासनिक आदेश पारित करने से क्यों रोका जाएगा? देरी के पीछे कोई और कारण हो सकता है.'

उन्हें लगता है कि लद्दाख में चीनी घुसपैठ ने भूमिका निभाई होगी.

भरत भूषण ने कहा, 'पाकिस्तान की तरह, चीन भी नहीं चाहेगा कि जम्मू-कश्मीर में 'सामान्य स्थिति' बहाल करने के लिए भारत कोई कदम उठाए. एक सलाहकार परिषद का निर्माण उस दिशा में एक कदम होगा, जो लोगों की भागीदारी (लंबित चुनाव) के माध्यम से शासन व्यवस्था देगा.

उन्होंने आगे कहा, 'चीन, विशेष रूप से, केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख में रुचि रखता है, जो कि जम्मू-कश्मीर से जुड़ा है. एलओसी पर पाकिस्तान की हरकतों की तुलना में लद्दाख में चीन की आक्रामकता से बहुत अलग तरीके से निपटा जा रहा है.'

गृह मंत्री अमित शाह के संसद में पिछले साल 6 अगस्त के भाषण का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, 'जब गृह मंत्री भूतपूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य का उल्लेख करते हैं, तो उसमें पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर ('आजाद कश्मीर' और गिलगित-बाल्टिस्तान) और अक्साई चिन शामिल हैं. सर्वे ऑफ इंडिया ने 2 नवंबर, 2019 को केंद्रशासित प्रदेशों लद्दाख और जम्मू-कश्मीर के नए नक्शे प्रकाशित किए. कुछ लोग कहेंगे कि लद्दाख की सीमा के भीतर गिलगित-बाल्टिस्तान और अक्साई चिन का चित्रण सिर्फ रूटीन था - पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य के पुराने नक्शे की सीमाएं चिन्हित हैं. हालांकि, सरकारी घोषणाओं के साथ जोड़े गए नए मानचित्रों को भारत के हिस्से में वृद्धि की जुगलबंदी के संकेत के रूप में देखा जा सकता है.'

दावों की सच्चाई

जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के अनुसार, लद्दाख एक अलग केंद्रशासित प्रदेश होगा, जिसमें कोई विधायिका नहीं होगी. अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद से, सरकार और स्थानीय राजनेता दावा कर रहे हैं कि माहौल शांतिपूर्ण है और लद्दाख सहित तीनों क्षेत्रों के लोगों ने फैसलों का स्वागत किया है.

लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन के लिए यह फैसला लद्दाखियों के सपने सरकार होने जैसा है.

लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष पीटी कुंजंग ने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा, 'हम, लद्दाखी, 1949 से अगल केंद्रशासित प्रदेश की मांग कर रहे थे. हमने अपनी मांग को पूरा करने के लिए पिछले सात दशकों में कई आंदोलन किए, यूटी (केंद्रशासित राज्य) का दर्जा प्राप्त करना हमारे लिए सपने सच होने जैसा है.

उन्होंने इस निर्णय के लिए मोदी सरकार की तारीफ भी की. उन्होंने कहा, 'कई सरकारें आईं और गईं. उन्होंने वादे किए, मुद्दे पर राजनीति की, लेकिन हमारे लिए कुछ नहीं किया. पीएम मोदी ने एक ऐतिहासिक रुख अपनाया जो बहुत सराहनीय है. हम इस तरह का साहसिक कदम उठाने के लिए वर्तमान सरकार के शुक्रगुजार हैं.'

लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास निगम, लेह के मुख्य कार्यकारी पार्षद पी वांग्याल को लगता है कि केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा लद्दाख के लोगों के लिए एक उपहार था.

उन्होंने कहा, 'मेरे पास यह बताने के लिए कोई शब्द नहीं है कि लद्दाख के लोग आज कितने खुश हैं. पिछले सात दशकों से हम 'फ्री लद्दाख' की मांग कर रहे थे और अब हमें यह मिल गया है. हमने इसे कश्मीर से अलग कर दिया है.'

वांग्याल ने आगे कहा, 'केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा पीएम मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और हमारे पूर्वजों की ओर से एक उपहार है, जिन्होंने हमारी भावी पीढ़ियों के लिए ऐसी स्थिति के लिए कड़ी मेहनत की है.'

लद्दाखी कश्मीर से लद्दाख को अलग क्यों करना चाहते थे, इसको बताते हुए उन्होंने कहा, 'केंद्र सरकार से आने वाला पूरा फंड केवल कश्मीर में जाता है. जबकि लद्दाख पूरे क्षेत्र का लगभग 70 प्रतिशत है, लेकिन यहां न के बराबर फंड आता है और फंड का बड़ा हिस्सा कश्मीर को मिल रहा है.

उन्होंने कहा, 'मोदी सरकार ने 2014 में जम्मू-कश्मीर को 80,000 करोड़ रुपये का विकास पैकेज दिया, लेकिन लद्दाख को कुछ नहीं मिला. हालांकि, राज्य में तीन क्षेत्र जम्मू, कश्मीर और लद्दाख थे, सिर्फ कश्मीर को हमेशा प्राथमिकता मिली.

हालांकि, स्थानीय लद्दाखी इन दावों का खंडन करते हैं, उनका कहना है कि ये दावे निराधार और वास्तविकता से परे हैं.

स्थानीय निवासी सरवर हुसैन ने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा, 'हमारे राजनेता और नेता अवसरवादी हैं. उन्होंने क्षेत्र के लोगों के बारे में कभी नहीं सोचा है. हम भ्रमित हैं और खुश नहीं हैं. कुछ भी स्पष्ट नहीं है और हमारी स्थिति को संबोधित करने के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा है.'

उन्होंने कहा, 'राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित हुए लगभग एक साल बीत चुके हैं, लेकिन हम अभी भी नए नियमों और बदलावों के बारे में कुछ नहीं जानते हैं. पहले, सूचनाएं आती थीं, लेकिन अब कुछ भी नहीं हो रहा है. यहां तक ​​कि हमारे नौकरशाहों को भी कुछ नहीं पता है.'

स्थानीय छात्रा एंगमो डेस्किट का कहना है, 'मैं सिविल सेवाओं की तैयारी कर रही थी और केंद्रीय और राज्य दोनों स्तर की परीक्षाओं के लिए उपस्थित होने की योजना बनाई थी. अब, मुझे नहीं पता कि क्या हो रहा है. ऐसी खबरें हैं कि राज्य का कोटा कम किया जा रहा है, लेकिन आधिकारिक तौर पर कुछ भी पुष्टि नहीं की जाती है. अगर ऐसा होता है, तो यह हमारे के लिए कैसे लाभदायक होगा. हमारे राजनेता अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों को पूरा करने में व्यस्त हैं. उन्होंने कभी भी हमारे या इस क्षेत्र के बारे में नहीं सोचा. उन्हें इस समय पूछताछ करनी चाहिए, लेकिन चुप हैं और सरकार समर्थक साक्षात्कार देने में व्यस्त हैं.'

वह कहती हैं, 'इस देश के एक नागरिक के रूप में, मुझे यह जानने का पूरा अधिकार है कि क्या हो रहा है, लेकिन किसी को कोई जानकारी नहीं है. और सबसे खराब बात यह है कि फिर भी कोई नहीं पूछ रहा है.'

डेस्किट से जब पूछा गया कि क्या वह भी चाहती थी कि लद्दाख को कश्मीर से अलग किया जाना चाहिए, उन्होंने कहा, 'यह मुद्दा नहीं है. एक आम लद्दाखी को विकास, बेहतर शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं की आवश्यकता है. हमारी साक्षरता दर कम है. बहुत सारे मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है. कश्मीर समस्या नहीं थी बल्कि भ्रष्टाचार और वरीयता थी. ये मुद्दे एक स्वायत्त राज्य को विभाजित करने की बजाय रचनात्मक कदम उठाकर हल किए जा सकते थे.'

अधिवास का मुद्दा

इस साल अप्रैल में केंद्र सरकार की अधिवास कानून की अधिसूचना के बाद लद्दाख प्रशासन की चुप्पी पर स्थानीय लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है, जिससे लोगों में गुस्सा है.

जब ईटीवी भारत ने लद्दाख प्रशासन और स्थानीय नेताओं से इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की तो उन्होंने यह कहते हुए टिप्पणी करने से इनकार कर दिया कि मुद्दे के बारे में बात करने का अभी सही समय नहीं है.

लद्दाख प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर ईटीवी भारत को बताया कि लद्दाख नया केंद्रशासित प्रदेश है. हमें सब कुछ शून्य से शुरू करना है और सभी चीजों में समय लगेगा.

उन्होंने आगे कहा, 'जम्मू-कश्मीर में, केंद्र से निर्देशों को लागू करना आसान है क्योंकि उनके पास पहले से ही प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए संसाधन हैं. दूसरी तरफ, हमारे पास सीमित विकल्प हैं.'

उन्होंने कहा कि अधिवास के मुद्दों के बारे में बात करने का यह उचित समय नहीं है. हमें कुछ समय के लिए प्रतीक्षा करनी चाहिए.

हालांकि, स्थानीय लोगों ने इस क्षेत्र की मौजूदा स्थिति के बारे में अपनी निराशा व्यक्त की है.

उनका कहना है कि यहां के नेताओं और अधिकारियों को कुछ भी पता नहीं है. ई-गोव पोर्टल पर लेह में अधिवास के संबंध में कुछ भी नहीं है.

लद्दाख गतिरोध

भारत और चीन इस तथ्य पर सहमत हुए हैं कि दोनों पक्षों को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से सैनिकों के विघटन के लिए वरिष्ठ कमांडरों के बीच हुए समझौते को लागू करना चाहिए. लद्दाख के निवासियों के लिए यह राहत की बात है.

ईटीवी भारत के साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए चुशूल कोंचोक स्टानजिन के पार्षद ने कहा, 'यह अच्छी खबर है कि दोनों सेनाएं किसी निष्कर्ष पर पहुंची हैं और विघटन चल रहा है. मेरे क्षेत्र के लोग अधिक चिंतित थे. उनकी आय का एकमात्र स्रोत - चरागाह भूमि है. चरागाहें हमारी जीवन रेखा हैं और अगर दोनों सेनाओं के बीच बातचीत फिर से विफल होती है, तो इसका मतलब है कि हमारी आजीविका को नुकसान. लेकिन शुक्र है कि सब कुछ ठीक हो गया.'

उन्होंने कहा कि सैनिकों की तैनाती के कारण लोगों के बीच डर अभी भी कम नहीं हुआ है. पिछले कुछ महीनों से क्षेत्र में तैनात विशाल सैन्य टुकड़ी ने 1962 के युद्ध की यादों को ताजा कर दिया. हर जगह घबराहट थी. हर दिन गांवों से 150-300 सेना के वाहन गुजरते थे.

पढ़ें :...तो चीन की चाल के पीछे है, 'कीमती खनिज वाली घाटी' का खजाना

उन्होंने कहा, मुझे उम्मीद है कि आगे कोई वृद्धि नहीं होगी.

श्रीनगर : केंद्र की मोदी सरकार ने पिछले साल 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A को निरस्त कर दिया था. इसके नौ महीने बाद नवगठित केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख के गलवान घाटी में चीनी घुसपैठ की खबरें सामने आईं.

चीनी घुसपैठ की खबरों ने न केवल 1999 के कारगिल युद्ध की यादों को ताजा किया, बल्कि लद्दाख के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर की स्थानीय आबादी पर भी इसका असर पड़ा है.

स्थानीय लोग पूर्ण शटडाउन और संचार प्रतिबंध के काल से गुजरे ही थे कि वे एक और प्रतिकूल स्थिति की दहलीज पर थे.

अनुच्छेद 370 हटाने की वर्षगांठ पर हम आपको बता रहे हैं कि कोरोना महामारी के बीच जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित करने के बाद वहां के निवासियों के जीवन में क्या बदलाव हुआ और चीनी घुसपैठ ने उनके जीवन को कैसे प्रभावित किया.

जम्मू-कश्मीर पर प्रभाव

उत्तरी कश्मीर के हंदवाड़ा और सोपोर क्षेत्र में पिछले महीने दो अलग-अलग मुठभेड़ के दौरान छह केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवानों की मौत हो गई थी. जिसके बाद सेना के अधिकारियों ने दावा किया था कि इस क्षेत्र में एक बार फिर आतंकी गतिविधियां बढ़ेंगी.

श्रीनगर में तैनात एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने खुफिया जानकारी साझा करते हुए ईटीवी भारत को बताया, 'वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर मौजूदा हालात से क्षेत्र में उग्रवाद की नई लहर पैदा हो सकती है. पाकिस्तान नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर तनाव बढ़ा कर और सीमा पार आतंकी गतिविधियों को सक्रिय रखते हुए लाभ उठाने की कोशिश कर रहा है.

उन्होंने आगे कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल ने भी जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा स्थिति के बारे में समीक्षा बैठक के दौरान यही बात कही थी.

नौ मई को, नई दिल्ली में जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा स्थिति की समीक्षा करते हुए डोभाल ने सुरक्षाबलों को विपरीत परिस्थिति के लिए तैयार रहने को कहा था.

जबकि सेना और अन्य सुरक्षा एजेंसियां कश्मीर ​​घाटी में आतंकवाद को पूर्ण रूप से खत्म करने की तैयारी कर रही हैं. सुरक्षा विशेषज्ञों ने ईटीवी भारत को बताया कि घबराने की कोई बात नहीं थी.

रक्षा विशेषज्ञ जय कुमार वर्मा ने कहा, 'ऐसी रिपोर्ट्स हो सकती हैं और हमारे सुरक्षाबलों को किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए, लेकिन आंकड़े आतंकवाद, संघर्ष विराम उल्लंघन या सुरक्षाबलों पर घातक हमले में वृद्धि का इशारा नहीं करते हैं. कम से कम मेरे लिए, घबराने की कोई बात नहीं है और आपको भी आराम महसूस करना चाहिए.'

वर्मा के अनुसार, सुरक्षाबलों को उनके द्वारा शुरू किए गए लक्षित अभियानों में जनहानि का सामना करना पड़ा है, न कि आतंकवादियों के कारण. वर्मा ने कहा, 'वे (सुरक्षाबल) समन्वित तरीके से काम करते हैं और पूरा ऑपरेशन पहले से संचालित सामान्य घेराबंदी और सर्च ऑपरेशन की बजाय खुफिया जानकारी पर आधारित है.'

श्रीनगर में मौजूद पर्यवेक्षकों के लिए, एलएसी पर तनाव और घाटी में आतंकवाद के बढ़ने के बीच सीधा संबंध है. स्थानीय निवासियों में गुस्सा, कश्मीर पर पाकिस्तान सरकार की बयानबाजी और लद्दाख में तनाव, ये सभी जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त करने से जुड़े हुए हैं.

कश्मीर के एक वरिष्ठ राजनेता ने नाम न छापने की शर्त पर ईटीवी भारत को बताया, 'भारत सरकार पांच अगस्त के बाद चीन की आक्रामक कूटनीतिक की स्थिति को ठीक से नहीं आंक सकी.'

उन्होंने कहा, 'चीन अब कश्मीर मुद्दे में तीसरा पक्ष बन गया है. मुझे लगता है कि लद्दाख अब चीन द्वारा विनियोजित है और पाकिस्तान को कश्मीर संभालने के लिए छोड़ दिया गया है. पाकिस्तान और चीन रणनीतिक साझेदार हैं और सामरिक अभियान भी शुरू कर चुके हैं. आप देखते हैं कि लगभग हर दिन एलओसी पर युद्धविराम का उल्लंघन होता है. अगर इन बातों को जोड़ कर देखें तो चीजें स्पष्ट हो जाएंगी.'

हालांकि, रक्षा विशेषज्ञ जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में होने वाले विकास को चीन और पाकिस्तान के समन्वित प्रयास के रूप में नहीं देखते हैं, मगर यह महसूस करते हैं कि दोनों देश स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं.

वर्मा ने कहा, 'फिलहाल मुझे पाकिस्तान की तरफ से पैटर्न में कोई बदलाव नहीं दिख रहा है. एलओसी पर गोलीबारी कोई नई बात नहीं है, और यह नियमित रूप से बढ़ रहा है. लद्दाख गतिरोध एक गंभीर मुद्दा है, लेकिन अभी तक यह अकेले चल सकने योग्य है. अभी तक मैं यह नहीं मानता कि जम्मू-कश्मीर के मौजूदा हालात के साथ चीन की घुसपैठ से कोई संबंध है. लेकिन मैं कोई भाग्य बताने वाला नहीं हूं. इसलिए भविष्य में कुछ भी संभव है.'

राजनीतिक परिणाम में देरी

21 मई को, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव ने एक अखबार के लेख, जिसका शीर्षक था- 'यह जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राजनीतिक गतिविधि की अनुमति देने का समय है' में कहा था कि जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त, 2019 के प्रस्ताव से किया गया परिवर्तन एक तार्किक अंत तक पहुंच गया था और यह एक संकेत था कि केंद्र सरकार नवगठित केंद्रशासित प्रदेश की राजनीति में पूर्व की स्थिति बहाल करने के लिए तैयार थी.

इसके बाद तय हुआ था कि जम्मू-कश्मीर में एक सलाहकार परिषद का गठन किया जाएगा, जिसके अध्यक्ष अपनी पार्टी के नेता अल्ताफ बुखारी होंगे.

जम्मू-कश्मीर में दिल्ली के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अपनी पार्टी को माध्यम बनाया गया था. मीडिया में कहा गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में 14 मार्च को अल्ताफ बुखारी और उनके 24 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ एक सलाहकार परिषद के गठन पर चर्चा की. जून के पहले सप्ताह में इसकी लॉन्चिंग की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन कोरोना महामारी के कारण इसे स्थगित कर दिया गया.

हालांकि, विशेषज्ञों का मानना ​​है कि सलाहकार परिषद में देरी के पीछे कई और कारण हो सकते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार भरत भूषण ने ईटीवी भारत को बताया, 'अगर महामारी ने केंद्र को 18 मई को जम्मू-कश्मीर के लिए नए अधिवास नियमों को अधिसूचित करने से नहीं रोका, तो एक सलाहकार परिषद की नियुक्ति के लिए एक साधारण प्रशासनिक आदेश पारित करने से क्यों रोका जाएगा? देरी के पीछे कोई और कारण हो सकता है.'

उन्हें लगता है कि लद्दाख में चीनी घुसपैठ ने भूमिका निभाई होगी.

भरत भूषण ने कहा, 'पाकिस्तान की तरह, चीन भी नहीं चाहेगा कि जम्मू-कश्मीर में 'सामान्य स्थिति' बहाल करने के लिए भारत कोई कदम उठाए. एक सलाहकार परिषद का निर्माण उस दिशा में एक कदम होगा, जो लोगों की भागीदारी (लंबित चुनाव) के माध्यम से शासन व्यवस्था देगा.

उन्होंने आगे कहा, 'चीन, विशेष रूप से, केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख में रुचि रखता है, जो कि जम्मू-कश्मीर से जुड़ा है. एलओसी पर पाकिस्तान की हरकतों की तुलना में लद्दाख में चीन की आक्रामकता से बहुत अलग तरीके से निपटा जा रहा है.'

गृह मंत्री अमित शाह के संसद में पिछले साल 6 अगस्त के भाषण का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, 'जब गृह मंत्री भूतपूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य का उल्लेख करते हैं, तो उसमें पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर ('आजाद कश्मीर' और गिलगित-बाल्टिस्तान) और अक्साई चिन शामिल हैं. सर्वे ऑफ इंडिया ने 2 नवंबर, 2019 को केंद्रशासित प्रदेशों लद्दाख और जम्मू-कश्मीर के नए नक्शे प्रकाशित किए. कुछ लोग कहेंगे कि लद्दाख की सीमा के भीतर गिलगित-बाल्टिस्तान और अक्साई चिन का चित्रण सिर्फ रूटीन था - पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य के पुराने नक्शे की सीमाएं चिन्हित हैं. हालांकि, सरकारी घोषणाओं के साथ जोड़े गए नए मानचित्रों को भारत के हिस्से में वृद्धि की जुगलबंदी के संकेत के रूप में देखा जा सकता है.'

दावों की सच्चाई

जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के अनुसार, लद्दाख एक अलग केंद्रशासित प्रदेश होगा, जिसमें कोई विधायिका नहीं होगी. अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद से, सरकार और स्थानीय राजनेता दावा कर रहे हैं कि माहौल शांतिपूर्ण है और लद्दाख सहित तीनों क्षेत्रों के लोगों ने फैसलों का स्वागत किया है.

लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन के लिए यह फैसला लद्दाखियों के सपने सरकार होने जैसा है.

लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष पीटी कुंजंग ने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा, 'हम, लद्दाखी, 1949 से अगल केंद्रशासित प्रदेश की मांग कर रहे थे. हमने अपनी मांग को पूरा करने के लिए पिछले सात दशकों में कई आंदोलन किए, यूटी (केंद्रशासित राज्य) का दर्जा प्राप्त करना हमारे लिए सपने सच होने जैसा है.

उन्होंने इस निर्णय के लिए मोदी सरकार की तारीफ भी की. उन्होंने कहा, 'कई सरकारें आईं और गईं. उन्होंने वादे किए, मुद्दे पर राजनीति की, लेकिन हमारे लिए कुछ नहीं किया. पीएम मोदी ने एक ऐतिहासिक रुख अपनाया जो बहुत सराहनीय है. हम इस तरह का साहसिक कदम उठाने के लिए वर्तमान सरकार के शुक्रगुजार हैं.'

लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास निगम, लेह के मुख्य कार्यकारी पार्षद पी वांग्याल को लगता है कि केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा लद्दाख के लोगों के लिए एक उपहार था.

उन्होंने कहा, 'मेरे पास यह बताने के लिए कोई शब्द नहीं है कि लद्दाख के लोग आज कितने खुश हैं. पिछले सात दशकों से हम 'फ्री लद्दाख' की मांग कर रहे थे और अब हमें यह मिल गया है. हमने इसे कश्मीर से अलग कर दिया है.'

वांग्याल ने आगे कहा, 'केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा पीएम मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और हमारे पूर्वजों की ओर से एक उपहार है, जिन्होंने हमारी भावी पीढ़ियों के लिए ऐसी स्थिति के लिए कड़ी मेहनत की है.'

लद्दाखी कश्मीर से लद्दाख को अलग क्यों करना चाहते थे, इसको बताते हुए उन्होंने कहा, 'केंद्र सरकार से आने वाला पूरा फंड केवल कश्मीर में जाता है. जबकि लद्दाख पूरे क्षेत्र का लगभग 70 प्रतिशत है, लेकिन यहां न के बराबर फंड आता है और फंड का बड़ा हिस्सा कश्मीर को मिल रहा है.

उन्होंने कहा, 'मोदी सरकार ने 2014 में जम्मू-कश्मीर को 80,000 करोड़ रुपये का विकास पैकेज दिया, लेकिन लद्दाख को कुछ नहीं मिला. हालांकि, राज्य में तीन क्षेत्र जम्मू, कश्मीर और लद्दाख थे, सिर्फ कश्मीर को हमेशा प्राथमिकता मिली.

हालांकि, स्थानीय लद्दाखी इन दावों का खंडन करते हैं, उनका कहना है कि ये दावे निराधार और वास्तविकता से परे हैं.

स्थानीय निवासी सरवर हुसैन ने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा, 'हमारे राजनेता और नेता अवसरवादी हैं. उन्होंने क्षेत्र के लोगों के बारे में कभी नहीं सोचा है. हम भ्रमित हैं और खुश नहीं हैं. कुछ भी स्पष्ट नहीं है और हमारी स्थिति को संबोधित करने के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा है.'

उन्होंने कहा, 'राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित हुए लगभग एक साल बीत चुके हैं, लेकिन हम अभी भी नए नियमों और बदलावों के बारे में कुछ नहीं जानते हैं. पहले, सूचनाएं आती थीं, लेकिन अब कुछ भी नहीं हो रहा है. यहां तक ​​कि हमारे नौकरशाहों को भी कुछ नहीं पता है.'

स्थानीय छात्रा एंगमो डेस्किट का कहना है, 'मैं सिविल सेवाओं की तैयारी कर रही थी और केंद्रीय और राज्य दोनों स्तर की परीक्षाओं के लिए उपस्थित होने की योजना बनाई थी. अब, मुझे नहीं पता कि क्या हो रहा है. ऐसी खबरें हैं कि राज्य का कोटा कम किया जा रहा है, लेकिन आधिकारिक तौर पर कुछ भी पुष्टि नहीं की जाती है. अगर ऐसा होता है, तो यह हमारे के लिए कैसे लाभदायक होगा. हमारे राजनेता अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों को पूरा करने में व्यस्त हैं. उन्होंने कभी भी हमारे या इस क्षेत्र के बारे में नहीं सोचा. उन्हें इस समय पूछताछ करनी चाहिए, लेकिन चुप हैं और सरकार समर्थक साक्षात्कार देने में व्यस्त हैं.'

वह कहती हैं, 'इस देश के एक नागरिक के रूप में, मुझे यह जानने का पूरा अधिकार है कि क्या हो रहा है, लेकिन किसी को कोई जानकारी नहीं है. और सबसे खराब बात यह है कि फिर भी कोई नहीं पूछ रहा है.'

डेस्किट से जब पूछा गया कि क्या वह भी चाहती थी कि लद्दाख को कश्मीर से अलग किया जाना चाहिए, उन्होंने कहा, 'यह मुद्दा नहीं है. एक आम लद्दाखी को विकास, बेहतर शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं की आवश्यकता है. हमारी साक्षरता दर कम है. बहुत सारे मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है. कश्मीर समस्या नहीं थी बल्कि भ्रष्टाचार और वरीयता थी. ये मुद्दे एक स्वायत्त राज्य को विभाजित करने की बजाय रचनात्मक कदम उठाकर हल किए जा सकते थे.'

अधिवास का मुद्दा

इस साल अप्रैल में केंद्र सरकार की अधिवास कानून की अधिसूचना के बाद लद्दाख प्रशासन की चुप्पी पर स्थानीय लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है, जिससे लोगों में गुस्सा है.

जब ईटीवी भारत ने लद्दाख प्रशासन और स्थानीय नेताओं से इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की तो उन्होंने यह कहते हुए टिप्पणी करने से इनकार कर दिया कि मुद्दे के बारे में बात करने का अभी सही समय नहीं है.

लद्दाख प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर ईटीवी भारत को बताया कि लद्दाख नया केंद्रशासित प्रदेश है. हमें सब कुछ शून्य से शुरू करना है और सभी चीजों में समय लगेगा.

उन्होंने आगे कहा, 'जम्मू-कश्मीर में, केंद्र से निर्देशों को लागू करना आसान है क्योंकि उनके पास पहले से ही प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए संसाधन हैं. दूसरी तरफ, हमारे पास सीमित विकल्प हैं.'

उन्होंने कहा कि अधिवास के मुद्दों के बारे में बात करने का यह उचित समय नहीं है. हमें कुछ समय के लिए प्रतीक्षा करनी चाहिए.

हालांकि, स्थानीय लोगों ने इस क्षेत्र की मौजूदा स्थिति के बारे में अपनी निराशा व्यक्त की है.

उनका कहना है कि यहां के नेताओं और अधिकारियों को कुछ भी पता नहीं है. ई-गोव पोर्टल पर लेह में अधिवास के संबंध में कुछ भी नहीं है.

लद्दाख गतिरोध

भारत और चीन इस तथ्य पर सहमत हुए हैं कि दोनों पक्षों को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से सैनिकों के विघटन के लिए वरिष्ठ कमांडरों के बीच हुए समझौते को लागू करना चाहिए. लद्दाख के निवासियों के लिए यह राहत की बात है.

ईटीवी भारत के साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए चुशूल कोंचोक स्टानजिन के पार्षद ने कहा, 'यह अच्छी खबर है कि दोनों सेनाएं किसी निष्कर्ष पर पहुंची हैं और विघटन चल रहा है. मेरे क्षेत्र के लोग अधिक चिंतित थे. उनकी आय का एकमात्र स्रोत - चरागाह भूमि है. चरागाहें हमारी जीवन रेखा हैं और अगर दोनों सेनाओं के बीच बातचीत फिर से विफल होती है, तो इसका मतलब है कि हमारी आजीविका को नुकसान. लेकिन शुक्र है कि सब कुछ ठीक हो गया.'

उन्होंने कहा कि सैनिकों की तैनाती के कारण लोगों के बीच डर अभी भी कम नहीं हुआ है. पिछले कुछ महीनों से क्षेत्र में तैनात विशाल सैन्य टुकड़ी ने 1962 के युद्ध की यादों को ताजा कर दिया. हर जगह घबराहट थी. हर दिन गांवों से 150-300 सेना के वाहन गुजरते थे.

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उन्होंने कहा, मुझे उम्मीद है कि आगे कोई वृद्धि नहीं होगी.

Last Updated : Aug 5, 2020, 2:38 PM IST
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