आज जबकि मनुष्य कोरोना वायरस के खतरे के मद्देनजर लॉकडाउन की घोषणा के बाद से डेढ़ महीने से घरों के अंदर रह रहे ज्यादातर लोग मानने लगे हैं कि प्रकृति में जीवन फिर से खुलकर सांस लेने लगा है. हवा ताजा है, पेड़ अधिक हरे दिख रहे हैं और नदियां साफ नज़र आ रहीं हैं. यह एक और बढ़कर और प्रत्यक्ष प्रमाण है कि पर्यावरणीय क्षरण के लिए मानव का हस्तक्षेप जिम्मेदार है.
इससे यह महत्वपूर्ण सन्देश मिलता है कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं है. वो ना तो उससे जीत सकता है और ना ही जीतने की कोशिश करनी चाहिए. वास्तव में, मनुष्य का अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर है. प्रकृति उन्हें जीविका प्रदान करती है और इसलिए उनके जीवन के साथ-साथ मृत्यु को भी नियंत्रित करती है. इंसान जीवन के जटिल का और निर्जीव पदार्थ का केवल एक छोटा सा मात्र हिस्सा है. कई अंतरक्रियाएं चलती रहती हैं जो मानव जीवन का समर्थन करने के लिए आवश्यक संतुलन बनाए रखती हैं.
प्रकृति विविधता की अवधारणा में एकता का एक अद्भुत उदाहरण है. वर्तमान संकट में उभर कर यह परम सत्य के रूप में प्रतीत होता है. मानव को अपनी दुनिया के साथ-साथ बड़े ब्रह्मांड में विविधता में एकता का सम्मान करना सीखना चाहिए.उनकी जीवन शैली प्रकृति के अनुरूप होनी चाहिए न कि जो उसके नाजुक संतुलन के साथ खिलवाड़ करने वाली. इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने से परे कोई भी गतिविधि जिसमें बड़े पैमाने से भी कहीं ज्यादा पर प्राकृतिक प्रणालियों के साथ हस्तक्षेप होता है वह ण सिर्फ़ प्रकृति के लिए हानिकारक है बल्कि उसका विस्तार मानव के लिए भी समस्या का कारण बन जाएगा.
जीवन की आपाधापी, जो ज्यादातर भौतिक लाभ के इरादों से प्रेरित होती है और जो अगले दिन के लिए भी ज़रूरी लगती है वो आज अचानक ठहर गई है. जो लोग हवाई यात्रा करते थे और सोचते थे कि ट्रेन की यात्रा में समय लगता है, वे अपने घरों से बाहर भी नहीं निकल पा रहे हैं. पैसा मायने रखता है लेकिन आज जब उससे आप कुछ खरीद ही नहीं सकते तो वो बेकार सा प्रतीत होता है. ये भी अहसास हो गया है कि हम वास्तव में जीवित रहने के लिए बहुत ज्यादा पैसों या संसाधनों की जरूरत नहीं होती है.
कोरोनावायरस का खतरा एक महान तुल्यकारक रहा है. इसने सभी मनुष्यों को बराबरी पर ला दिया है क्योंकि यह भेदभाव नहीं करता है. अमीर और ताकतवर गरीबों की तरह कमजोर महसूस कर रहे हैं. इसमें एक संदेश है. सभी मानव निर्मित पहचान की श्रेणियों और विशेष रूप से किसी भी संबंधित पदानुक्रम का कोई मतलब नहीं रह गया है. उन में संघर्ष और विजय का कोई मूल्य नहीं है. एक इंसान दूसरे पर विजय प्राप्त कर सकता है लेकिन दोनों को घातक वायरस के सामने आत्मसमर्पण करना होगा. अत: मानव की समानता और सबके लिए समान अधिकार प्रकृति द्वारा स्थापत सिद्धांत हैं. जिंदा रहने का सभी को बराबर अधिकार है, यह तथ्य आज जिस तरह साफ़ तौर पर ज़ाहिर और स्वीकृत है इस तरह से पहले कभी नहीं था. इसलिए, लोकतंत्र ही एकमात्र तरीका है जिसके तहत हम कार्य कर सकते हैं जिसमें सभी को भाग लेने का समान अधिकार है.
मनुष्यों की समानता का मतलब है कि यह पृथ्वी और इसके प्रचुर प्राकृतिक संसाधन सभी के लिए समान रूप से साझा किए जाने के लिए हैं. किसी को भी, विशेष रूप से निजी निगमों को, अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है. विकास का यह प्रारूप जो विकास को बढ़ावा देता है, शून्य हो गया है. यह कोरोनोवायरस जैसी चुनौतियों के मद्देनजर सतत प्रारूप नहीं है. अब कोई भी सकल घरेलू विकास दर के बारे में परेशान नहीं है.
हर कोई अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित है. लॉकडाउन के दौरान मनुष्य ने न्यूनतम बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ जीना सीख लिया है. ये दौर एक सबक है कि अब उपभोक्तावादी प्रारूप को त्यागकर एक आवश्यकता आधारित पूर्ति करने वाले तंत्र का मार्ग प्रशस्त करना होगा. अस्तित्व बनाये रखने की ज़रुरत पर आधरित ढांचें को अधिक से अधिक मुनाफा कमाने वाले पारूप को से प्रतिस्थापित करना होगा. सहयोग की भावना मानव का मार्गदर्शन करेगी प्रतिस्पर्धा नहीं. यदि लोग अपने साथी मनुष्यों को राहत देने के लिए आगे नहीं आए होते, तो लॉकडाउन की अवधि कहीं अधिक दुख का कारण होती. इसलिए करुणा की भावना को सभी नीति निर्धारणों का मार्गदर्शन करना चाहिए, न कि राजनीति या अर्थशास्त्र को.
विभिन्न पहचानों - सांस्कृतिक, जातीय, धार्मिक, राष्ट्रीयताओं के बीच टकराव और घृणा की राजनीति का कोई मतलब नहीं रह गया है और इसे सौहार्द और एकजुटता के पक्ष में खारिज किया जाना चाहिए. सैन्य क्षमता के आधार पर दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश संयुक्त राज्य अमेरिका में कोरोनोवायरस के कारण सबसे अधिक मौतें हुईं हैं. एक ऐसा देश जिसने कभी किसी भी युद्ध में इतने मौतों की कल्पना नहीं की थी, वह वायरस के समक्ष असहाय था. अगर कोई देश अपने ही नागरिकों को नहीं बचा सकता है तो रक्षा पर इतने बड़े खर्च का क्या हासिल है? आज के हालत में दुनिया के सबसे शक्तिशाली परमाणु, रासायनिक या जैविक हथियार इंसानी जान को एक वायरस से बचाने में अप्रभावी है.
देश स्पष्ट रूप से युद्ध के लिए तैयार नहीं है और एक दूसरे के साथ काम करने की इच्छा रखकर मानवता ही को बचा सकेंगे. इसलिए सभी दुश्मनी और प्रतिद्वंदिता को छोड़ दिया जाना चाहिए, यदि संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से सामूहिक रूप से संभव हो, तो युद्ध के खिलाफ समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने चाहिए, और हथियारों के भंडार और सेनाओं को समाप्त कर दिया जाना चाहिए.
जैसे-जैसे राष्ट्रों की पहचान कम होती जाएगी, वैसे-वैसे राष्ट्रवाद का विचार अंतरराष्ट्रीयवाद को जन्म देगा. संयुक्त राष्ट्र को लोकतांत्रिक भागीदारी वाले देशों के लिए वैश्विक शासन का महत्वपूर्ण रूप बनना चाहिए. सुरक्षा परिषद और वीटो शक्ति की नए वैश्विक क्रम में कोई आवश्यकता नहीं होगी और हर देश और समुदायों को आवश्यक रूप से किसी भी देश के साथ खुद की पहचान नहीं करनी चाहिए या जो एक से अधिक देशों में रह सकते हैं उन्हें संयुक्त राष्ट्र में समान वोट होना चाहिए. विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय बाल कोष जैसी विभिन्न संस्थाओं को प्राकृतिक और सामाजिक चुनौतियों से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार रहना होगा. वर्तमान महामारी संकट में जब सरकारों से सामाजिक कल्याण के लिए खर्च बढ़ाने की उम्मीद की जाती है तो विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष या संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियां पीछे क्यों हैं?
संक्षेप में, जिस तरह मुनाफे के अधिकतमकरण पर आधारित विकास के बजाय सभी मनुष्यों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बने ढ़ांचे को लागू करने की ज़रुरत है ठीक उसी तरह विश्व को एक ऐसे राजनैतिक ढ़ांचे की ज़रुरत है जो प्रतिस्पर्धा और एक दुसरे से आगे निकलने की होड़ के बदले सह-अस्तित्व और साथ मिलकर काम करने पर आधारित हो मानव जीवन बारीकी रूप से इस तरह के परिवर्तन पर निर्भर करता है.
लेखक- आईडी खजुरिया और संदीप पांडे
(आईडी खजुरिया इंटरनेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्लेटफॉर्म और संदीप पांडे सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के साथ हैं)