नई दिल्ली : कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसान आंदोलन पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि सरकार परिस्थितियों को बेहतर तरीके से नहीं संभाल पाई. आज की सुनवाई में कोई निर्णय नहीं सुनाया गया लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के प्रति निराशा व्यक्त करते हुए एक कमेटी गठित करने की बात कही है और यह संकेत भी दिए हैं कि वह कानून को होल्ड पर रखने के आदेश दे सकते हैं.
दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने किसानों के पक्ष को सुनते हुए उनसे भी कुछ कड़े सवाल किए. सुप्रीम कोर्ट ने आंदोलन में वृद्ध, महिलाओं और बच्चों को शामिल किए जाने पर आपत्ति जताते हुए आंदोलन के कारण आने वाले दिनों में कानून व्यवस्था खराब होने की आशंका भी जताई है.
उम्मीद आगे भी नहीं दिख रही
ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार और किसानों के बीच जब आठ दौर की वार्ता के बाद भी हल नहीं निकल पाया, तब आगे क्या सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से ही कुछ रास्ता निकल सकता है? 15 जनवरी को सरकार और आंदोलनरत किसान संगठनों के बीच एक बार फिर वार्ता होनी है लेकिन निष्कर्ष की उम्मीद आगे भी नहीं दिख रही.
इन विषयों पर ईटीवी भारत ने कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री विजय सरदाना से विशेष बातचीत की है. विजय सरदाना ने कहा है कि सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानून आज के समय की मांग हैं और इनमें कहीं भी किसानों के अहित की बात नहीं है. जब भी कोई बड़े बदलाव या सुधार की बात देश में हुई है तब उसका विरोध भी हुआ है लेकिन, उसके कारण सुधार या बदलाव की प्रक्रिया को रोका जाना नहीं चाहिए.
उन्होंने कहा कि कृषि कानूनों के मुद्दे पर मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा है. वहां इसकी सुनवाई चल रही है और निर्णय आने से पहले इस पर टिप्पणी करना उचित नहीं होगा लेकिन, कृषि क्षेत्र में लंबे समय से सुधार की दरकार रही है. देश की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा कृषि क्षेत्र में कार्यरत है. आज तक जितने भी सुधार के प्रयास कृषि क्षेत्र के लिए किए गए हैं वह कहीं न कहीं विफल रहे हैं और किसानों की माली हालत में उनसे सुधार नहीं हुआ.
क्या मुद्दा राजनीतिक हो गया
आज इन तीन कृषि कानूनों के माध्यम से सरकार ने बड़ा कदम उठाया है लेकिन, अब यह मुद्दा राजनीतिक हो गया है. बहरहाल यह देखना होगा कि इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय क्या होता है. कृषि कानूनों में कुल 21 क्षेत्र शामिल हैं जबकि, इनके विरोध में खड़े संगठन केवल दो क्षेत्रों से हैं और मुख्यतः दो राज्यों से हैं.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या केवल उनके लिए हम बाकी के क्षेत्रों को नजरअंदाज कर इन कानूनों को स्थगित कर सकते हैं? किसानों का एक बड़ा तबका इन सुधारों के पक्ष में भी है, ऐसे में उनकी राय को क्या अलग कर दिया जाएगा? आंदोलनरत किसान संगठन इस बात पर लगातार नाराजगी जताते रहे हैं कि उनके आंदोलन को केवल दो राज्यों का विरोध करार दिया जाता है. जबकि, आंदोलन में अन्य राज्यों के किसान भी शामिल हैं और देश के अलग अलग राज्यों में भी किसान संगठन कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं.
इस पर विशेषज्ञ विजय सरदाना कहते हैं कि लोकतंत्र में नाराजगी व्यक्त करने का सबसे अच्छा तरीका चुनाव होते हैं. यदि किसानों में सरकार के प्रति नाराजगी है तो, वह अगले चुनावों में अपने मत के इस्तेमाल से नाराजगी जाहिर कर सकते हैं लेकिन, जिस तरह से सड़कों को रोककर 45 दिनों से ज्यादा से प्रदर्शन किया जा रहा है वह सही नहीं है.
कमेटी गठित करने के प्रस्ताव
सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार और किसान संगठनों के बीच के गतिरोध को खत्म करने के लिए एक कमेटी गठित करने की बात कही है. हालांकि किसान संगठनों ने सरकार से बातचीत के शुरुआती दौर में ही कमेटी गठित करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था. ऐसे में क्या सरकार से अलग सुप्रीम कोर्ट की कमेटी से कुछ निर्णायक स्तर के मध्यस्थता की उम्मीद की जा सकती है?
इस सवाल पर विजय सरदाना ने कहा कि अब तक के जो बातचीत और नतीजे रहे हैं उसके अनुसार किसानों को किसी भी कमेटी में विश्वास नहीं है. उन्होंने स्पष्ट कहा है कि उन्हें कमेटी नहीं चाहिए. संसद में पास कानून किसानों को मंजूर नहीं, कमेटी का गठन भी उन्हें मंजूर नहीं. इसका मतलब यह है कि आंदोलनकारियों को भारत के संविधान में भरोसा नहीं है.