ऐसे समय में जब दो प्रमुख आर्थिक शक्तियों के बीच दरार वैश्विक आर्थिक मंदी को हवा दे रही है, वाशिंगटन और बीजिंग ने आखिरकार बुद्धिमत्ता दिखाई है. दोनों देशों ने संक्रांति के दिन पहले चरण के व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया है. अमेरिका और चीन ने उम्मीद की है कि वैश्विक आर्थिक स्थिति में कुछ राहत मिलेगी. राष्ट्रपति ट्रम्प और चीनी उप प्रधान मंत्री ली द्वारा हस्ताक्षरित 86-पृष्ठ समझौते के अनुसार, बीजिंग ने अगले दो वर्षों में अमेरिका से $ 20,000 बिलियन की अतिरिक्त खरीद के लिए सहमति व्यक्त की है.
2018 में 42,000 डॉलर बिलियन का व्यापार घाटा हुआ था. अमेरिका ने चीन से आने वाले 12,000 अरब डॉलर के माल पर 50% करों को कम करने पर सहमति व्यक्त की है और अतिरिक्त करों के लिए प्रस्तावों को रद्द कर दिया है. निश्चित तौर पर यह समझौता दोनों देशों की आर्थिक और राजनीतिक मजबूरियां हैं. हालांकि, इस साल के अंत तक ही पता चल पाएगा कि यह किस हद तक प्रभावी रहा. लिहाजा, ये भी सच्चाई है कि इस हद तक यह विकासशील देशों की परेशान अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक राहत है.
सोवियत संघ के साथ शीत युद्ध के अंत के बाद 1992 में अमेरिकी नौकरशाही द्वारा बनाई गई रक्षा नीति की मुख्य परिकल्पना एक अजेय अमेरिका की रही है.
1978 में जब चीन ने आर्थिक सुधारों की ओर कदम उठाने शुरू किए, अमेरिका ने इसे बड़े बाजार के रूप में देखा. अमेरिकी नेताओं और बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा इस बड़े बाजार को जीतने के प्रयासों ने पीपुल्स चीन को एक वैश्विक विनिर्माण केंद्र में बदल दिया. चीन, जिसने 1990 के दशक में वैश्विक उत्पादन के मूल्य का तीन प्रतिशत से कम उत्पादन किया था, आज विश्व की एक चौथाई से अधिक हिस्सेदारी के साथ महाशक्ति के प्रतियोगी के रूप में विकसित हुआ है.
बीजिंग, जिसने 1985 में अमेरिका के साथ 600 मिलियन डॉलर का व्यापार अधिशेष प्राप्त किया, 2018 में 420 बिलियन डॉलर से अधिक हो गया. 2016 के दौरान, ट्रम्प ने इस व्यापार असंतुलन को 'दुनिया के इतिहास में अभूतपूर्व लूट' के रूप में घोषित किया, और समाधान के लिए चीनी प्रमुख के साथ 100 दिनों की कार्य योजना की घोषणा की. कोई सकारात्मक परिणाम नहीं होने के कारण, अमेरिका ने चीन से होने वाले आयात पर भारी कर लगाया.
चीन ने भी जवाबी कार्रवाई में अमेरिकी आयात को रोक दिया. इससे अमेरिका में कृषि क्षेत्र को संकट का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप किसानों की आत्महत्याएं हुईं. ऐसे में ट्रंप के लिए चुनावी वर्ष में समझौता करना राजनीतिक आवश्यकता बन गया. ऊपर से महाभियोग की प्रक्रिया अलग ही जारी है. तथ्य यह है कि चीन के पास ताइवान, हांगकांग और दक्षिण चीन के साथ अपनी प्रमुख राजनीतिक समस्याओं के साथ, अमेरिका के साथ सौहार्दपूर्ण समझौते के लिए सहमत होने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.
यह विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का रजत जयंती वर्ष है, जिसे दुनिया में एकाधिकार व्यापार प्रथाओं पर अंकुश लगाने के प्रशंसनीय उद्देश्यों के साथ स्थापित किया गया है. यह विकासशील देशों को विकसित देशों की प्रतिस्पर्धा का सामना करने और व्यापार और वाणिज्य में स्थिरता लाने का समर्थन करता है. ऐसे समय में जब बड़े देश मुक्त व्यापार के दर्शन को बढ़ावा दे रहे हैं और सभी को लाभ पहुंचा रहे हैं, विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व की उपयोगिता पर संदेह पैदा हो रहा है.
यूएस की बैक डोर नीतियां डब्ल्यूटीओ को कमजोर कर रही हैं और चीन और यूएस तथा यूएस और यूरोपियन यूनियन के बीच दस अरब डॉलर के व्यापार और वाणिज्य को मिलाकर तनाव पैदा कर रही हैं. ट्रम्प सरकार ने अपने व्यापार संबंधों के संबंध में भारत के लिए समस्याएं पैदा करने की भी कोशिश की.
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नवीनतम रिपोर्टों के अनुसार, यह पारस्परिक रूप से सहमत व्यापार समझौतों की ओर झुकाव करने की कोशिश कर रहा है. सात महीने पहले यूरोपीय संघ ने भारत सरकार से 'किसानों की आय को दोगुना करने के लिए उठाए गए कदम और ग्रामीण और कृषि विकास के लिए 25 लाख करोड़ रुपये खर्च करने के लिए तैयार की गई योजनाओं के बारे में पूछा है.
अमेरिकी सरकार यह जानना चाहती है कि भारत ने गेहूं के लिए समर्थन मूल्य क्यों बढ़ाया है और क्यों रिकॉर्ड पैमाने पर गेहूं की खरीद की जाती है. प्रमुख शक्तियां 'स्वयं के हितों को पहली प्राथमिकता' दे रही हैं और दूसरों पर व्यापार युद्ध छेड़ रही हैं. वे भारत के वैध सब्सिडी पर सवाल उठा रहे हैं. उनकी दलील है कि भारत अब विकासशील देश नहीं है. जाहिर है, हम जैसे देशों के लिए समान विकास तभी संभव है जब ऐसी अहंकारी और वर्चस्ववादी प्रवृत्तियां गायब हो जाएं