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विशेष लेख : ईरान-अमेरिका गतिरोध, कुशल कूटनीतिक कार्य ने बड़े घटनाक्रम को रोका

दुनिया ने उस समय राहत की सांस ली जब ईरान और अमेरिका की तरफ से तेज कूटनीतिक पहलों के चलते, विश्व तेल सप्लाई पर खतरे और वैश्विक आर्थिक मंदी का खतरा पैदा करने वाले हालातों को रोका जा सका.

america iran conflict
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Published : Jan 13, 2020, 9:43 PM IST

8 जनवरी को राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने संबोधन में जैसे ही ईरान के लोगों और नेताओं को शांति के लिए आगे आकर बातचीत के लिए कहा, तेल के दामों में गिरावट और शेयर बाजार में उछाल आने लगा. हालांकि यह केवल एक फ़ौरी राहत साबित हो सकती है. दो अमरीकी सैन्य ठिकानों पर दर्जनों मिसाइल हमले से ईरान ने अपनी बदला लेने की क्षमता तो दिखा दी, लेकिन पूर्ण जंग से दूर रहकर ईरान ने शायद इस बदले को पूरा करने के लिए इंतजार करने का फैसला किया है.

'ग्रेट सैटन' और तेहरान की धर्म पर आधारित सरकार (जिसे जॉर्ज बुश ने ऐक्सिस ऑफ ईवल कहा था) के बीच तनाव तीन जनवरी को उस समय बढ़ गया, जब बगदाद हवाई अड्डे पर अमेरिका ने एक ड्रोन हमले मे ईरान की कुद सेना के जनरल कासिम सुलेमानी को मार गिराया. इसके चलते सारा क्षेत्र अस्थिरता और जंग के खतरे के बादलों से घिर गया.

कट्टर धर्म गुरू और सुप्रीम लीडर आयातुल्लाह रुहुल्लाह खुमेनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामिक शासन की शुरुआत 1979 में शाह के तख्ता पलट के बाद हुई. नवंबर 1979 में कट्टर ईरानी छात्रों ने अमरीकी दूतावास पर धावा बोल 52 राजनयिकों और कर्मचारियों को 444 दिनों तक बंदी बना कर रखा. इसके बाद से अमेरिका और ईरान के रिश्ते कड़वाहट भरे रहे हैं.

ईरान की इस्लामिक सरकार को नकारने के लिए अमेरिका ने लगातार कोशिशें की हैं. 1980-88 के दौरान हुए ईरान-इराक युद्द मे अमेरिका ने खुले तौर पर इराक़ को आर्थिक और प्रशिक्षण की मदद की और आधिकारिक तौर पर मना करने के बाद भी हथियारों से भी इराक की मदद की. ईरान के विरोधी और सुन्नी बहुल्य साउदी अरब से अमेरिका की पारम्परिक दोस्ती और ईरान और इजरायल के रिश्ते, अमेरिका और ईरान के रिश्तों को और कड़वा बनाते रहे है. ईरान के राष्ट्रपति, मोहम्मद अहमदाजीन द्वारा इजरायल के लिया कहा गया था कि, वो एक 'ऐसा बदनुमा धब्बा है जिसे दुनिया के नक्शे से मिटा देना चाहिए', इस तरह के बयानों ने भी हालातों को बेहतर बनाने में मदद नहीं की है.

इसके साथ ही, बाहरी खतरों को दूर करने के लिए ईरान ने चुपचाप तरीके से परमाणु बम बनाने पर भी काम किया. युरेनियम इंरिचमेंट के लिए, ईरान को पाकिस्तान ने तकनीकी मदद दी. ईरान के परमाणु सपनों को तोड़ने के लिए अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने ईरान पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए.

इस मामले में उस समय एक बड़ी पहल हुई जब जुलाई 2015 में संयुक्त राष्ट्र के पांच स्थाई सदस्यों, जर्मनी और ईरान के बीच, जेसीपीओए (ज्वाइंट कॉमप्रहेन्सिव प्लान ऑफ एक्शन) पर सहमति हुई. इस संधि के तहत, ईरान अपने मीडियम इंनरिच्ड युरेनियम के भंडार को कम करने और उसके इस्तेमाल को भी 15 वर्षों के लिए काफी हद तक कम करने पर राजी हुआ. इस संधि की दुनिया भर में तारीफ की गई.

हालांकि, डोन्लड ट्रंप ने इस संधि को नाकामयाब करार दिया और कहा कि अमरीकी इतिहास की यह सबसे खराब संधि है. उन्होंने चुनाव जीतने पर इस संधि को निरस्त करने का वादा किया और मई 2018 में इस संधि से अमेरिका ने अपने हाथ खींच लिए. इसके साथ यह खबरें भी जोर पकड़ने लगी कि इजरायल और अमेरिका, ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला कर सकते हैं. ट्रंप ने ईरान पर दोबारा प्रतिबंध लगा दिया और दुनिया के देशों से भी ईरान से तेल की खरीद रोकने को कहा. यह इस सबके बावजूद था कि इन प्रतिबंधों को संयुक्त राष्ट्र से मंजूरी नहीं मिली थी.

भारत और ईरान के सदियों से पारंपरिक संबंध रहे हैं. इसके अलावा, देश को कच्चे तेल के बड़े सप्लाइयर के तौर पर मध्यपूर्व में शांति के लिहाज से भी भारत-ईरान संबंध जरूरी हैं. इसके अलावा, मध्य पूर्व में काम करने वाले 80 लाख भारतीय और उनसे सालाना देश को आनेवाले $40 बिलियन भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद जरूरी हैं. वहीं, अमेरिका से मजबूत रिश्तों के कारण भारत के पास तटस्थ रहने के अलावा कोई बड़ा विकल्प नहीं है. इस मसले पर भारत के मध्यस्था करने के ईरानी राजदूत के न्योते को भारत से दूरी बना रखी है. इस मामले का निपटारा अगर वॉशिंगटन और तेहरान के बीच हो, तो यह ज्यादा अच्छा रहेगा. वैसे भी भारत ने तीसरे पक्ष की मध्यस्था की खिलाफत की है.

अमेरिका द्वारा दोबारा प्रतिबंधों पर ईरान ने तीखी प्रतिक्रिया दी और ईरान ऐसा करने में अपनी जगह सही था, क्योंकि उसने संधि के अपने हिस्से को निभाया था. इसके कारण, इराक, सीरिया और लेबनान में आतंकी और गैर सैन्य संगठनों को अमेरिका और उसके सहयोगियों को निशाना बनाने का मौका मिल गया. 27 दिसंबर को किरकुक में अमेरिका के सैन्य ठिकाने पर ईरान समर्थित हमले में एक अमरीकी सैन्य ठेकेदार को जान से हाथ धोना पड़ा. इसका नतीजा हुआ बगदाद में जनरल सुलेमानी की ड्रोन हमले में मौत.

पढ़ें-विशेष लेख : अमेरिका के गलत कदम

ईरान ने सुलेमानी की मौत का बदला लेने की क़सम खाई. इराक में अमरीकी सैन्य ठिकाने पर ईरान द्वारा एक दर्जन से भी ज्यादा मिसाइलें दागी गई. इसके तुरंत बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने यह ट्वीट किया कि स्थिति काबू में है और हालात का आकलन किया जा रहा. इसके बाद खबरें आईं कि इस हमले में जान का कोई नुकसान नहीं हुआ है. बहुत जल्द यह साफ हो गया कि ईरान ने जानबूझकर इस हमले को नुकसान न पहुंचाने के लिए रचा था और इससे अपने नागरिकों को खुश करने की कोशिश की थी. ईरान ने हमले के बारे में योजना बनाते ही, इराक, स्विट्जरलैंड के जरिए अमेरिका को आगाह भी कर दिया था. अमेरिका के इस मामले में आर पार की लड़ाई की तैयारी के कारण, तेज कूटनीतिक पहल के चलते स्थिति पर काबू किया जा सका.

लेकिन इस सबका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि ईरान और अमेरिका ने अपने मतभेदों को भुला दिया है. दक्षिण एशिया में माफ़ी देने को कमजोरी की निशानी की तरह नहीं देखा जाता है. ईरान ने एक सोची समझी रणनीति के तहत अपने कदम पीछे खींच आने वाले समय में हमला करने का फैसला किया. इसलिए फिलहाल यह तनाव रोक लिया गया है लेकिन इस पूरे क्षेत्र में लड़ाई और तनाव के बादल फिलहाल छटे नहीं हैं.

(लेखक-पूर्व राजनयिक विष्णु प्रकाश)

8 जनवरी को राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने संबोधन में जैसे ही ईरान के लोगों और नेताओं को शांति के लिए आगे आकर बातचीत के लिए कहा, तेल के दामों में गिरावट और शेयर बाजार में उछाल आने लगा. हालांकि यह केवल एक फ़ौरी राहत साबित हो सकती है. दो अमरीकी सैन्य ठिकानों पर दर्जनों मिसाइल हमले से ईरान ने अपनी बदला लेने की क्षमता तो दिखा दी, लेकिन पूर्ण जंग से दूर रहकर ईरान ने शायद इस बदले को पूरा करने के लिए इंतजार करने का फैसला किया है.

'ग्रेट सैटन' और तेहरान की धर्म पर आधारित सरकार (जिसे जॉर्ज बुश ने ऐक्सिस ऑफ ईवल कहा था) के बीच तनाव तीन जनवरी को उस समय बढ़ गया, जब बगदाद हवाई अड्डे पर अमेरिका ने एक ड्रोन हमले मे ईरान की कुद सेना के जनरल कासिम सुलेमानी को मार गिराया. इसके चलते सारा क्षेत्र अस्थिरता और जंग के खतरे के बादलों से घिर गया.

कट्टर धर्म गुरू और सुप्रीम लीडर आयातुल्लाह रुहुल्लाह खुमेनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामिक शासन की शुरुआत 1979 में शाह के तख्ता पलट के बाद हुई. नवंबर 1979 में कट्टर ईरानी छात्रों ने अमरीकी दूतावास पर धावा बोल 52 राजनयिकों और कर्मचारियों को 444 दिनों तक बंदी बना कर रखा. इसके बाद से अमेरिका और ईरान के रिश्ते कड़वाहट भरे रहे हैं.

ईरान की इस्लामिक सरकार को नकारने के लिए अमेरिका ने लगातार कोशिशें की हैं. 1980-88 के दौरान हुए ईरान-इराक युद्द मे अमेरिका ने खुले तौर पर इराक़ को आर्थिक और प्रशिक्षण की मदद की और आधिकारिक तौर पर मना करने के बाद भी हथियारों से भी इराक की मदद की. ईरान के विरोधी और सुन्नी बहुल्य साउदी अरब से अमेरिका की पारम्परिक दोस्ती और ईरान और इजरायल के रिश्ते, अमेरिका और ईरान के रिश्तों को और कड़वा बनाते रहे है. ईरान के राष्ट्रपति, मोहम्मद अहमदाजीन द्वारा इजरायल के लिया कहा गया था कि, वो एक 'ऐसा बदनुमा धब्बा है जिसे दुनिया के नक्शे से मिटा देना चाहिए', इस तरह के बयानों ने भी हालातों को बेहतर बनाने में मदद नहीं की है.

इसके साथ ही, बाहरी खतरों को दूर करने के लिए ईरान ने चुपचाप तरीके से परमाणु बम बनाने पर भी काम किया. युरेनियम इंरिचमेंट के लिए, ईरान को पाकिस्तान ने तकनीकी मदद दी. ईरान के परमाणु सपनों को तोड़ने के लिए अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने ईरान पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए.

इस मामले में उस समय एक बड़ी पहल हुई जब जुलाई 2015 में संयुक्त राष्ट्र के पांच स्थाई सदस्यों, जर्मनी और ईरान के बीच, जेसीपीओए (ज्वाइंट कॉमप्रहेन्सिव प्लान ऑफ एक्शन) पर सहमति हुई. इस संधि के तहत, ईरान अपने मीडियम इंनरिच्ड युरेनियम के भंडार को कम करने और उसके इस्तेमाल को भी 15 वर्षों के लिए काफी हद तक कम करने पर राजी हुआ. इस संधि की दुनिया भर में तारीफ की गई.

हालांकि, डोन्लड ट्रंप ने इस संधि को नाकामयाब करार दिया और कहा कि अमरीकी इतिहास की यह सबसे खराब संधि है. उन्होंने चुनाव जीतने पर इस संधि को निरस्त करने का वादा किया और मई 2018 में इस संधि से अमेरिका ने अपने हाथ खींच लिए. इसके साथ यह खबरें भी जोर पकड़ने लगी कि इजरायल और अमेरिका, ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला कर सकते हैं. ट्रंप ने ईरान पर दोबारा प्रतिबंध लगा दिया और दुनिया के देशों से भी ईरान से तेल की खरीद रोकने को कहा. यह इस सबके बावजूद था कि इन प्रतिबंधों को संयुक्त राष्ट्र से मंजूरी नहीं मिली थी.

भारत और ईरान के सदियों से पारंपरिक संबंध रहे हैं. इसके अलावा, देश को कच्चे तेल के बड़े सप्लाइयर के तौर पर मध्यपूर्व में शांति के लिहाज से भी भारत-ईरान संबंध जरूरी हैं. इसके अलावा, मध्य पूर्व में काम करने वाले 80 लाख भारतीय और उनसे सालाना देश को आनेवाले $40 बिलियन भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद जरूरी हैं. वहीं, अमेरिका से मजबूत रिश्तों के कारण भारत के पास तटस्थ रहने के अलावा कोई बड़ा विकल्प नहीं है. इस मसले पर भारत के मध्यस्था करने के ईरानी राजदूत के न्योते को भारत से दूरी बना रखी है. इस मामले का निपटारा अगर वॉशिंगटन और तेहरान के बीच हो, तो यह ज्यादा अच्छा रहेगा. वैसे भी भारत ने तीसरे पक्ष की मध्यस्था की खिलाफत की है.

अमेरिका द्वारा दोबारा प्रतिबंधों पर ईरान ने तीखी प्रतिक्रिया दी और ईरान ऐसा करने में अपनी जगह सही था, क्योंकि उसने संधि के अपने हिस्से को निभाया था. इसके कारण, इराक, सीरिया और लेबनान में आतंकी और गैर सैन्य संगठनों को अमेरिका और उसके सहयोगियों को निशाना बनाने का मौका मिल गया. 27 दिसंबर को किरकुक में अमेरिका के सैन्य ठिकाने पर ईरान समर्थित हमले में एक अमरीकी सैन्य ठेकेदार को जान से हाथ धोना पड़ा. इसका नतीजा हुआ बगदाद में जनरल सुलेमानी की ड्रोन हमले में मौत.

पढ़ें-विशेष लेख : अमेरिका के गलत कदम

ईरान ने सुलेमानी की मौत का बदला लेने की क़सम खाई. इराक में अमरीकी सैन्य ठिकाने पर ईरान द्वारा एक दर्जन से भी ज्यादा मिसाइलें दागी गई. इसके तुरंत बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने यह ट्वीट किया कि स्थिति काबू में है और हालात का आकलन किया जा रहा. इसके बाद खबरें आईं कि इस हमले में जान का कोई नुकसान नहीं हुआ है. बहुत जल्द यह साफ हो गया कि ईरान ने जानबूझकर इस हमले को नुकसान न पहुंचाने के लिए रचा था और इससे अपने नागरिकों को खुश करने की कोशिश की थी. ईरान ने हमले के बारे में योजना बनाते ही, इराक, स्विट्जरलैंड के जरिए अमेरिका को आगाह भी कर दिया था. अमेरिका के इस मामले में आर पार की लड़ाई की तैयारी के कारण, तेज कूटनीतिक पहल के चलते स्थिति पर काबू किया जा सका.

लेकिन इस सबका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि ईरान और अमेरिका ने अपने मतभेदों को भुला दिया है. दक्षिण एशिया में माफ़ी देने को कमजोरी की निशानी की तरह नहीं देखा जाता है. ईरान ने एक सोची समझी रणनीति के तहत अपने कदम पीछे खींच आने वाले समय में हमला करने का फैसला किया. इसलिए फिलहाल यह तनाव रोक लिया गया है लेकिन इस पूरे क्षेत्र में लड़ाई और तनाव के बादल फिलहाल छटे नहीं हैं.

(लेखक-पूर्व राजनयिक विष्णु प्रकाश)

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ईरान-अमेरिका गतिरोध: कुशल कूटनीतिक कार्य ने बड़े घटनाक्रम को रोका





दुनिया ने उस समय राहत की सांस ली जब ईरान और अमेरिका की तरफ़ से तेज़ कूटनीतिक पहलों के चलते, विश्व तेल सप्लाई पर ख़तरे और वैश्विक आर्थिक मंदी का ख़तरा पैदा करने वाले हालातों को रोका जा सका.     



8 जनवरी को राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने संबोधन में जैसे ही ईरान के लोगों और नेताओं को शांति के लिये आगे आकर बातचीत के लिये कहा, तेल के दामों में गिरावट और शेयर बाज़ार में उछाल आने लगा. हालाँकि यह केवल एक फ़ौरी राहत साबित हो सकती है. दो अमरीकी सैन्य ठिकानों पर दर्जनों मिसाइल हमले से ईरान ने अपनी बदला लेने की क्षमता तो दिखा दी, लेकिन पूर्ण जंग से दूर रहकर ईरान ने शायद इस बदले को पूरा करने के लिये इंतज़ार करने का फैसला किया है. 



'ग्रेट सैटन’ और तेहरान की धर्म पर आधारित सरकार (जिसे जॉर्ज बुश ने ऐक्सिस ऑफ ईवल कहा था) के बीच तनाव 3 जनवरी को उस समय बढ़ गया, जब बग़दाद हवाई अड्डे पर अमेरिका ने एक ड्रोन हमले मे ईरान की कुद सेना के जनरल क़ासिम सुलेमानी को मार गिराया. इसके चलते सारा क्षेत्र अस्थिरता और जंग के ख़तरे के बादलों से घिर गया.  



कट्टर धर्म गुरू और सुप्रीम लीडर आयातुल्लाह रुहुल्लाह खुमेनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामिक शासन की शुरुआत 1979 में शाह के तख्ता पलट के बाद हुई. नवंबर 1979 में कट्टर ईरानी छात्रों ने अमरीकी दूतावास पर धावा बोल 52 राजनयिकों और कर्मचारियों को 444 दिनों तक बंदी बना कर रखा. इसके बाद से अमेरिका और ईरान के रिश्ते कड़वाहट भरे रहे हैं.   



ईरान की इस्लामिक सरकार को नकारने के लिये अमेरिका ने लगातार कोशिशें की हैं. 1980-88 के दौरान हुए ईरान-इराक युद्द मे अमेरिका ने खुले तौर पर इराक़ को आर्थिक और प्रशिक्षण की मदद की और आधिकारिक तौर पर मना करने के बाद भी हथियारों से भी इराक़ की मदद की. ईरान के विरोधी और सुन्नी बहुल्य साउदी अरब से अमेरिका की पारम्परिक दोस्ती और ईरान और इज़रायल के रिश्ते, अमेरिका और ईरान के रिश्तों को और कड़वा बनाते रहे है. ईरान के राष्ट्रपति, मोहम्मद अहमदाजीन द्वारा इज़रायल के लिया कहा गया था कि, वो एक 'ऐसा बदनुमा धब्बा है जिसे दुनिया के नक़्शे से मिटा देना चाहिये’, इस तरह के बयानों ने भी हालातों को बेहतर बनाने में मदद नहीं की है.    



 इसके साथ ही, बाहरी खतरों को दूर करने के लिये ईरान ने चुपचाप तरीक़े से परमाणु बम बनाने  पर भी काम किया. युरेनियम इंरिचमेंट के लिये, ईरान को पाकिस्तान ने तकनीकी मदद दी. ईरान के परमाणु सपनों को तोड़ने के लिये अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने ईरान पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिये. 



इस मामले में उस समय एक बड़ी पहल हुई जब जुलाई 2015 में संयुक्त राष्ट्र के पाँच स्थाई सदस्यों, जर्मनी और ईरान के बीच, जेसीपीओए (ज्वाइंट कॉमप्रहेन्सिव प्लान ऑफ एक्शन) पर सहमति हुई. इस संधि के तहत, ईरान अपने मीडियम इंनरिच्ड युरेनियम के भंडार को कम करने और उसके इस्तेमाल को भी 15 सालो के लिये काफ़ी हद तक कम करने पर राज़ी हुआ. इस संधि की दुनिया भर में तारीफ की गई.



हालाँकि, डोन्लड ट्रंप ने इस संधि को नाकामयाब करार दिया और कहा कि अमरीकी इतिहास की यह सबसे ख़राब संधि है. उन्होंने चुनाव जीतने पर इस संधि को निरस्त करने का वादा किया और मई 2018 में इस संधि से अमेरिका ने अपने हाथ खींच लिये. इसके साथ यह ख़बरें भी ज़ोर पकड़ने लगी कि, इज़रायल और अमेरिका, ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला कर सकते हैं. ट्रंप ने ईरान पर दोबारा प्रतिबंध लगा दिया और दुनिया के देशों से भी ईरान से तेल की ख़रीद रोकने को कहा. यह इस सबके बावजूद था कि इन प्रतिबंधों को संयुक्त राष्ट्र से मंज़ूरी नहीं मिली थी.     



भारत और ईरान के सदियों से पारंपरिक संबंध रहे हैं. इसके अलावा, देश को कच्चे तेल के बड़े सप्लाइयर के तौर पर मध्यपूर्व में शांति के लिहाज़ से भी भारत-ईरान संबंध ज़रूरी हैं. इसके अलावा, मध्य पूर्व में काम करने वाले 80 लाख भारतीय और उनसे सालाना देश को आनेवाले $40 बिलियन भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद ज़रूरी हैं. वहीं, अमेरिका से मज़बूत रिश्तों के कारण भारत के पास तटस्थ रहने के अलावा कोई बड़ा विकल्प नहीं है. इस मसले पर भारत के मध्यस्था करने के ईरानी राजदूत के न्योते को भारत से दूरी बना रखी है. इस मामले का निपटारा अगर वॉशिंगटन और तेहरान के बीच हो, तो यह ज़्यादा अच्छा रहेगा. वैसे भी भारत ने तीसरे पक्ष की मध्यस्था की ख़िलाफ़त की है.      



अमेरिका द्वारा दोबारा प्रतिबंधों पर ईरान ने तीखी प्रतिक्रिया दी, और ईरान ऐसा करने में अपनी जगह सही था, क्योंकि उसने संधि के अपने हिस्से को निभाया था. इसके कारण, इराक़, सीरिया और लेबनान में आतंकी और ग़ैर सैन्य संगठनों को अमेरिका और उसके सहयोगियों को निशाना बनाने का मौक़ा मिल गया. 27 दिसंबर को, किरकुक में अमेरिका के सैन्य ठिकाने पर ईरान समर्थित हमले में एक अमरीकी सैन्य ठेकेदार को जान से हाथ धोना पड़ा. इसका नतीजा हुआ बग़दाद में जनरल सुलेमानी की ड्रोन हमले में मौत.   



ईरान ने सुलेमानी की मौत का बदला लेने की क़सम खाई. इराक़ में अमरीकी सैन्य ठिकाने पर ईरान द्वारा एक दर्जन से भी ज़्यादा मिसाइलें दागी गई. इसके तुरंत बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने यह ट्वीट किया कि स्थिति क़ाबू में है और हालात का आकलन किया जा रहा.इसके बाद ख़बरें आई कि इस हमले में जान का कोई नुक़सान नहीं हुआ है.  बहुत जल्द यह साफ़ हो गया कि ईरान ने जानभूझकर इस हमले को नुक़सान न पहुँचाने के लिये रचा था और इससे अपने नागरिकों को खुश करने की कोशिश की थी. ईरान ने हमले के बारे में योजना बनाते ही, इराक़, स्विट्ज़रलैंड के ज़रिये अमेरिका को आगाह भी कर दिया था. अमेरिका के इस मामले में आर पार की लड़ाई की तैयारी के कारण, तेज़ कूटनीतिक पहल के चलते स्थिति पर क़ाबू किया जा सका.  



लेकिन इस सबका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि ईरान और अमेरिका ने अपने मतभेदों को भुला दिया है. दक्षिण एशिया में माफ़ी देने को कमजोरी की निशानी की तरह नहीं देखा जाता है. ईरान ने एक सोची समझी रणनीति के तहत अपने कदम पीछे खींच आने वाले समय में हमला करने का फ़ैसला किया. इसलिये फ़िलहाल यह तनाव रोक लिया गया है लेकिन इस पूरे क्षेत्र में लड़ाई और तनाव के बादल फ़िलहाल छटे नहीं हैं. 


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