नई दिल्ली: भारत की गिरती अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए वाणिज्यिक खनन के लिए कोयला ब्लॉकों की नीलामी करने के केंद्र के फैसले ने पूरे देश और दुनिया भर के लोगों में बहस और चर्चा शुरू कर दी है.
न केवल भारतीय बल्कि वैश्विक गैर सरकारी संगठनों ने भी कोयला ब्लॉकों की नीलामी पर चिंता जताई है. उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए कोयले के उपयोग को रोकने के लिए कहा है. उन्होंने कहा है कि कोयले की खदानें ज्यादातर उन लोगों की भूमि पर हैं जो पहले से COVID-19 महामारी का खामियाजा भुगत रहे हैं. अब इस नीलामी से उनकी रोजी-रोटी और ठौर ठिकानों पर संकट आ सकता है.
डेनमार्क स्थित इंटरनेशनल वर्क ग्रुप फॉर इंडीजीनियस अफेयर्स, इंडीजीनियस लॉयर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया और अत्याचार के खिलाफ राष्ट्रीय अभियान ने कोल ब्लॉक की नीलामी से पहले सरकार से अपील की है कि आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत 29 सितंबर को होने वाली 41 कोल ब्लॉक की नीलामी को रोक दी जाए.
इंटरनेशनल वर्क ग्रुप फॉर इंडीजीनस अफेयर्स के निदेशक कैथरीन वेसडॉर्फ ने कहा कि ज्यादातर कोयला खदानें भारत के महाराष्ट्र, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की भूमि पर हैं. महाराष्ट्र में तीन खदानें, झारखंड में नौ खदानें, ओडिशा में नौ खदानें, छत्तीसगढ़ में नौ खदानें और मध्यप्रदेश में 11 खदानें हैं.
भारत सरकार के इस्पात मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में आने वाले MSTC लिमिटेड की वेबसाइट पर उपलब्ध 41 कोयला खदानों के बारे में बताया गया हैं. विवरणों के मुताबिक 30 कोयला ब्लॉकों के पास वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत क्लीयरेंस सर्टिफिकेट नहीं है. 37 कोल ब्लॉक के पर्यावरण प्रभाव आकलन 2006 के तहत पर्यावरणीय क्लीयरेंस नहीं है.
उन्होंने कहा कि अनिवार्य कानूनी मंजूरी प्राप्त किए बिना कोयला ब्लॉक की नीलामी लोगों के लिए बुरी खबर है. उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए कोयले का उपयोग वहां के मूल निवासियों की कीमत पर होगा. इसकी भारी कीमत देश की जनता को चुकानी पड़ेगी.
इतिहास गवाह है कि भारत के विकास का खामियाजा वहां के मूल निवासियों को भुगतना पड़ा है. भारत के योजना आयोग ने अक्टूबर 2001 में कहा कि 1951-1990 के दौरान 21.3 मिलियन लोग विभिन्न विकास परियोजनाओं से विस्थापित हुए जिनमें से 8.54 मिलियन यानी 40.1 प्रतिशत आदिवासी थे.
भारतीय स्वदेशी वकील संघ के अध्यक्ष दिलीप चकमा ने कहा कि कोविड की वजह से भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए इन आदिवासियों को तकलीफ नहीं देनी चाहिए.
लॉकडाउन के दौरान नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ और वन सलाहकार समिति सहित भारत के सर्वोच्च सलाहकार निकायों ने वर्चुअल बैठक के माध्यम से इसपर गहरी चिंता जताई.
इन परियोजनाओं में अरुणाचल प्रदेश में दिबांग घाटी परियोजना के रूप में जानी जाने वाली एटलिन हाइड्रो इलेक्ट्रिक परियोजना, असम में देहिंग पटकाई एलिफेंट रिजर्व में कोयला खनन प्रस्ताव, गोवा में भगवान महावीर वन्यजीव अभयारण्य के जरिये राजमार्ग, गिर नेशनल पार्क के पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र में एक चूना खदान शामिल हैं.
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ईआईए 2020 के मसौदे में कई ऐसे प्रस्ताव हैं जो पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर सकता हैं. चकमा ने कहा कि मूल निवासियों के संबंध में कानून का शासन शायद ही कभी लागू हो पाता है. उन्होंने सरकार पर अराजकता को बढ़ावा देने का आरोप लगाया.
विशेषज्ञों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान मूल निवासियों को जबरन प्रताड़ित किया गया. 6 अप्रैल 2020 को, वन विभाग के अधिकारियों ने गुजरात के डांग जिले के कामत गांव में कोंकणी, भील और वारली समुदायों की झोपड़ियों में आग लगा दी.
24 अप्रैल 2020 को, वन विभाग के अधिकारियों ने ओडिशा के खांडुमाली वन क्षेत्र के सागदा गांव में रहने वाले 32 आदिवासियों के घरों को ढहा दिया, जिससे वे महुआ के पेड़ों के नीचे रहने और महुआ के पत्तों पर कई दिनों तक जीवित रहने के लिए मजबूर हो गए. जून 2020 में तेलंगाना के गुनगुप्पडू के सत्यनारायणम के 80 कोया आदिवासी परिवारों को वन विभाग द्वारा निकाला गया था.