इतिहास में चंबल में जो भी घटा, उसका कारण दिल्ली ही रही. सालों पहले दिल्ली में तोमर शासन का अंत हो गया था. तोमर राजवंश के लोगों ने बीहड़ में आकर अपनी जान बचाई. उसी समय धौलपुर के सामंत को भी हटा दिया गया. ये काम मालवा के शासक ने किया था. ऐसे में धौलपुर के युवराज ने बगावत कर दी. फिर उसने अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए चंबल में शरण ली. यहां के लोगों ने उसे अधिकारों की लड़ाई में समर्थन दिया. यहीं से 'चंबल' और 'बगावत' के रिश्ते की शुरुआत मानी जाती है.
'महलों' ने कभी भी बगावत का साथ नहीं दिया, बल्कि हमेशा बगावत का 'दमन' ही किया. बगावत, अपने आत्मसम्मान के लिए 'महलों' के तेवर के खिलाफ हुई है. बीहड़ ने भी ऐसे 'आत्मसम्मान' को पनाह दी. अब जब समय बदला तो 'महल' में रहने वालों ने भी बागी तेवर अपनाने शुरू कर दिए. ऐसे तेवर के कारण ही ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी. चंबल का पानी ही उनकी रगों में भी है. इसी वजह से कांग्रेस से बगावत का रास्ता उनको ठीक लगा. इस बार भी कारण दिल्ली में बैठे कांग्रेस के आलाकमान बने. सिंधिया जब बीजेपी में आए तो उनके साथ 22 विधायकों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था. इनमें से 19 विधायक सिंधिया खेमे के थे, जबकि तीन विधायकों एदल सिंह कंषाना, बिसाहू लाल और हरदीप सिंह डंग को बीजेपी ने बगावत का रास्ता सुझाया था. इनमें से कंषाना चंबल से हैं.
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सवाल ये है कि चंबल की तासीर कितनी बदली ? समय के साथ अभी भी बगावत पसंद की जाती है! या फिर ना-पसंद. इसको देखना जरूरी है, क्योंकि जब चुनाव प्रचार के लिए पूर्व सीएम कमलनाथ चंबल में थे तो उन्होंने कहा था कि चंबल सब कुछ बर्दास्त कर लेता है. चंबल का खून गर्म है, लड़ सकता है, बिक नहीं सकता. चंबल के पानी की तासीर में बगावत है, लेकिन गद्दारी नहीं, जिसने चंबल के साथ गद्दारी की, उसे चंबल कभी माफ नहीं करता है. क्या कमलनाथ ने बगावत को गद्दारी समझा ? या फिर वे चंबल के लोगों को समझने में चूक गए. ये चुनाव परिणाम से साफ दिख रहा है. चंबल में बगावत की जय-जय हो रही है. सिंधिया समर्थक 19 प्रत्याशी में से 6 प्रत्याशी चुनाव हारे हैं, जबकि 13 चुनाव जीते हैं. इससे उनकी स्थिति मजबूत हुई है, लेकिन चंबल में कांग्रेस की सीटें आने से दाग भी लग गया है.
प्रजातंत्र में फैसला जनता करती है. जो फैसला आया है, उसमें चंबल की 16 सीटों पर उप-चुनाव हुआ. इसमें से एक सीट जौरा विधायक की मृत्यु के बाद खाली हुई थी, जबकि देखा जाए, तो बगावत के कारण 15 सीटों पर उपचुनाव हुआ. इसमें से कांग्रेस के खाते में सात सीटें आईं हैं, जबकि कांग्रेस से बीजेपी में आकर चुनाव लड़ने वाले आठ प्रत्याशी चुनाव जीत गए हैं.
बात उनकी जिनकी 'बगावत' को जनता ने सही माना. इनमें कांग्रेस से बगावत करके बीजेपी से चुनाव लड़ने वाले ग्वालियर सीट से प्रद्युम्न सिंह चुनाव जीत गए हैं. अंबाह सीट से कमलेश जाटव ने 13,892 वोट से जीत हासिल की, भांडेर से रक्षा सिरोनिया केवल 161 वोट से जीतीं, इन्होंने फूल सिंह बरैया को हराया. मेहगांव से ओपीएस भदौरिया को करीब 45 फीसदी वोट मिले और वो जीते, पोहरी सीट से सुरेश धाकड़ को 22,496 वोटों से जीत मिली. इनसे हारे बीएसपी के कैलाश कुशवाहा. यहां कांग्रेस तीसरे नंबर पर पहुंच गई. मुंगावली सीट से बृजेंद्र सिंह यादव जीते, ये उनकी लगातार तीसरी जीत थी. बमोरी विधानसभा सीट से महेन्द्र सिंह सिसोदिया ने 53,153 वोटों से जीत हासिल की. वे पहले इसी सीट पर कांग्रेस से जीते थे. तब की जीत 27920 वोटों से थी, यानि इस बार जनता ने ज्यादा समर्थन दिया है. अशोकनगर सीट से जजपाल सिंह जज्जी दूसरी बार सफल हुए. 2018 में ये कांग्रेस से खड़े हुए थे तो बीजेपी को सत्ता में आने से रोका था. अब बीजेपी से चुनाव लड़ रहे थे तो कांग्रेस की आशा दोहरे का हराया.
अब उनकी बात जो कांग्रेस से बीजेपी में आए और हार गए. जिनकी बगावत को जनता ने सिरे से नकार दिया. इसमें सबसे पहला नाम डबरा से इमरती देवी का है. कमलनाथ ने इनके लिए असंसदीय शब्द कहे. इसका फायदा बीजेपी को तो हुआ, पर वे खुद को फायदा नहीं पहुंचा सकी. खास बात ये थी कि डबरा सीट हमेशा से कांग्रेस की रही है. इमरती देवी को कांग्रेसी मतदातों ने तीन बार विधायक बनाया, पर शायद वे भूल गईं थीं कि यहां इमरती देवी को नहीं कांग्रेस को वोट मिलते हैं. डबरा में 66.72 फीसदी मतदान हुआ था. इस पर कांग्रेस प्रत्याशी सुरेश राजे को 49.4 फीसदी वोट मिले, जबकि इमरती देवी को 44.4 फीसदी. यानी इमरती देवी का बागी होना जनता को रास नहीं आया. करैरा से जसमंत जाटव की बगावत भी फेल हो गई. उनको हार का सामना करना पड़ा. यहां प्रागीलाल जाटव जीते, जो पहले बीएसपी में थे. कांग्रेस में आते ही उनके भाग्य खुल गए.
ग्वालियर पूर्व सीट से मुन्ना लाल गोयल चुनाव हार गए, वोट का अंतर भी बहुत ज्यादा रहा. करीब 8,555 वोटों से इनकी हार हुई. इस सीट से कांग्रेस का जीतना ज्योतिरादित्य सिंधिया को हमेशा अखरेगा. ये एक दाग की तरह है, क्योंकि जिस महल में वे रहते हैं वो इसी विधानसभा क्षेत्र में पड़ता है. यहीं उनकी हार हो गई. दिमनी से गिर्राज दंडोतिया चुनाव हार गए. दिमनी में दूसरी बार कांग्रेस जीती है. दंडोतिया की बगावत का हाल वैसा ही था, जैसा इमरती देवी का. यहां की जनता पहले भी कांग्रेस के साथ थी और इस बार भी रही. दंडोतिया मंत्री होने के बाद भी हार गए. सुमावली से एदल सिंह कंषाना की हार हुई. हालांकि, ये सिंधिया के साथ बीजेपी में नहीं आए थे. इनको तोड़ने में बीजेपी का हाथ ज्यादा था. बीजेपी में आने के बाद मंत्री भी बने. इन पर अजब सिंह कुशवाहा ने जीत दर्ज की. जो पहले बीएसपी और बीजेपी से चुनाव लड़ चुके थे, लेकिन हार गए थे. गोहद सीट से रणवीर सिंह जाटव भी हार गए. इनको कांग्रेस में ही रहना था क्योंकि यहां से कांग्रेस ही जीती है. जौरा सीट पर कोई बागी नहीं था. यहां बीजेपी के सुबेदार सिंह रजौधा जीते.
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मुरैना की बात अलग से, यहां अपने सांसद से ही जनता ने बगावत की. केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर यहां से आते है. साथ ही सिंधिया का असर इस सीट पर माना जाता है. दोनों की बातों को जनता ने मिथक में तब्दील कर दिया. दोनों का ही जादू नहीं चला. यहां से कांग्रेस के राकेश मावई 5,751 वोटों से चुनाव जीते हैं. बीजेपी के रघुराज कंषाना चुनाव हार गए. यहां की सीट को बीएसपी ने रोचक बनाया था. मुरैना में कमल नहीं खिलने की टीस नरेन्द्र सिंह तोमर को जरूर रहेगी. उनको लोकसभा चुनाव 2019 में 5,41,689 (47.63 फीसदी) वोट मिले थे. कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी थी. उसे 37.66 फीसदी वोट मिले थे, जबकि बीएसपी तीसरे नंबर पर थी. बीएसपी को 11.38 फीसदी वोट मिले थे. इस इलाके में शिवराज सिंह चौहान जब चुनाव प्रचार कर रहे थे. तब नरेन्द्र सिंह तोमर उनके साथ थे. शिवराज सिंह ने बार-बार जनता को यह भी बताया था कि तोमर साहब पीएम मोदी के बाजू में बैठते हैं. जनता को अहसास कराया था कि विधानसभा में मुरैना सीट बीजेपी की झोली में डालिए तो ही विकास होगा. पर बगावती तेवर रखने वाली जनता ने बीजेपी से ही बगावत कर ली और कांग्रेस के हाथ का साथ दिया. आखिर, चंबल में जनता का खून गरम है. यहां हमेशा बगावत की जय-जय होती रही है.