ETV Bharat / bharat

कश्मीर के लिए भारत की रणनीति बदल रही है, जानें कैसे - undefined

ये बात देश के तीन बड़े नेता, 5 अगस्त 2019, जिस दिन जम्मू और कश्मीर में धारा 370  को समाप्त कर दिया गया था, के बाद पहले ही बोल चुके थे. गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस. जयशंकर सभी ने सटीक तालमेल के साथ कहा था कि पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर (पीओके) भारत का है जैसा कि लद्दाख में अक्साई चिन है. और फिर एक सप्ताह पहले, राष्ट्रीय राजधानी में मानेकशा केंद्र में करियप्पा पर व्याख्यान के दौरान सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने भी इसी वक्तव्य को दोहराया.

अमित शाह और नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो)
author img

By

Published : Nov 3, 2019, 8:01 AM IST

यह दोहराता हुआ पुनर्मूल्यांकन भारत की विदेश नीति में एक नियोजित और प्रतिमान परिवर्तन को रेखांकित करता है जो कश्मीर की पारंपरिक समझ और परंपरागत भारतीय स्थिति को ध्वस्त करता है जो उसे द्विपक्षीय मुद्दा बनाये हुए था.

जबकि पाकिस्तान की पारंपरिक स्थिति पीओके पर ध्यान आकर्षित करके कश्मीर पर केंद्रित है, जिसमें 'आजाद कश्मीर' और गिलगित-बाल्टिस्तान शामिल हैं, भारत केवल यह कह रहा है कि विवाद सिर्फ यहां नहीं बल्कि नियंत्रण रेखा के दूसरी तरफ (एलओसी) का भी है. इसके मूल में पीओके पर पाकिस्तानी सेना के कब्जे का सवाल है और यह भी इंगित करते हुए कि वैश्विक खोज-दीप कहां केन्द्रित होना चाहिए.

इस कूटनीति को कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए एक सचेत भारतीय प्रयास के रूप में माना जा सकता है, जिससे दक्षिण ब्लॉक में बैठे हुक्मरानों को लगता है कि लाभ होगा.

मंगलवार (29 अक्टूबर) को श्रीनगर में एक यूरोपीय संघ के सांसदों के प्रतिनिधिमंडल की अभूतपूर्व यात्रा वास्तव में इस नीति का एक उदाहरण है.

इस नीति को अपनाकर पाकिस्तान को उसके हिस्से के पीओके के बचाओ में उतरने के लिए मजबूर कर दिया जायेगा. इस स्थिति में वह असहज हो जायेगा क्योंकि इस क्षेत्र में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीईपीसी) की एक महत्वाकांक्षी योजना है - जिसमें राजमार्ग, रेलवे और बुनियादी ढांचों की परियोजनाएं शामिल हैं, जो चीन के काशगर से लेकर अरब सागर तट पर पाकिस्तान के ग्वादर तक फैली हुई हैं.

चीन अब तक इस परियोजना में 50 बिलियन अमरीकी डालर से अधिक का निवेश कर चुका है. दिलचस्प बात यह है कि यह परियोजना पीओके से चलती है और इसलिए इसमें चीन भी शामिल हो जाता है. वैश्विक स्तर पर छानबीन करने के बाद इस तरह की परियोजना के निर्विवाद रूप से वैध होने के विषय पर चीन का संदेह बढ़ेगा.

हालिया भारतीय स्थिति में चीन द्वारा 1963 के समझौते के तहत पाकिस्तान को दिए गए एक निश्चित खंड के कब्जे पर वैश्विक ध्यान केंद्रित करना भी शामिल है.

गुरुवार को विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने इस रणनीतिक स्थिति को और अधिक स्पष्ट रूप से सामने रखा: 'केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में एक बड़े इलाके पर चीन का कब्ज़ा जारी है. इसने 1963 के तथाकथित चीन-पाकिस्तान सीमा समझौते के तहत पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर से भारतीय क्षेत्रों पर अवैध रूप से कब्जा कर लिया है.'

'भारत ने लगातार चीन-पाकिस्तान-आर्थिक गलियारे में परियोजनाओं पर चीन और पाकिस्तान दोनों को अपनी चिंताओं से अवगत कराया है, जो उस क्षेत्र में है जिसपर 1947 में पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से कब्जा कर लिया गया था.'

इससे पहले कभी भी इस मुद्दे पर भारतीय रणनीतिक स्थिति इतनी साहसिक और स्पष्टवादी नहीं थी. इस समय इस मुद्दे पर बात करना दिलचस्प है.

पारंपरिक कश्मीर नीति इस विश्वास पर आधारित थी कि यदि कश्मीर एक द्विपक्षीय मुद्दा बना रहता है, तो इससे भारत को लाभ होता है. और इसके अनुसार, एक सहायक राजनीतिक वास्तुकला जिसमें राजनीतिक कुलीन वर्ग भी शामिल है, इसके चारों ओर बनाया गया था, जो इस स्थिति को आगे बढ़ाने के लिए था कि मुस्लिम बहुल कश्मीर भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सर का ताज है. नवीनतम रणनीतिक परिवर्तन इस धारणा को ध्वस्त कर देता है और यहां तक कि नियंत्रण रेखा की पवित्रता पर भी सवाल उठाता है. हम दिलचस्प समय में जी रहें हैं.

लेखक-संजीब कु. बरुआ

यह दोहराता हुआ पुनर्मूल्यांकन भारत की विदेश नीति में एक नियोजित और प्रतिमान परिवर्तन को रेखांकित करता है जो कश्मीर की पारंपरिक समझ और परंपरागत भारतीय स्थिति को ध्वस्त करता है जो उसे द्विपक्षीय मुद्दा बनाये हुए था.

जबकि पाकिस्तान की पारंपरिक स्थिति पीओके पर ध्यान आकर्षित करके कश्मीर पर केंद्रित है, जिसमें 'आजाद कश्मीर' और गिलगित-बाल्टिस्तान शामिल हैं, भारत केवल यह कह रहा है कि विवाद सिर्फ यहां नहीं बल्कि नियंत्रण रेखा के दूसरी तरफ (एलओसी) का भी है. इसके मूल में पीओके पर पाकिस्तानी सेना के कब्जे का सवाल है और यह भी इंगित करते हुए कि वैश्विक खोज-दीप कहां केन्द्रित होना चाहिए.

इस कूटनीति को कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए एक सचेत भारतीय प्रयास के रूप में माना जा सकता है, जिससे दक्षिण ब्लॉक में बैठे हुक्मरानों को लगता है कि लाभ होगा.

मंगलवार (29 अक्टूबर) को श्रीनगर में एक यूरोपीय संघ के सांसदों के प्रतिनिधिमंडल की अभूतपूर्व यात्रा वास्तव में इस नीति का एक उदाहरण है.

इस नीति को अपनाकर पाकिस्तान को उसके हिस्से के पीओके के बचाओ में उतरने के लिए मजबूर कर दिया जायेगा. इस स्थिति में वह असहज हो जायेगा क्योंकि इस क्षेत्र में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीईपीसी) की एक महत्वाकांक्षी योजना है - जिसमें राजमार्ग, रेलवे और बुनियादी ढांचों की परियोजनाएं शामिल हैं, जो चीन के काशगर से लेकर अरब सागर तट पर पाकिस्तान के ग्वादर तक फैली हुई हैं.

चीन अब तक इस परियोजना में 50 बिलियन अमरीकी डालर से अधिक का निवेश कर चुका है. दिलचस्प बात यह है कि यह परियोजना पीओके से चलती है और इसलिए इसमें चीन भी शामिल हो जाता है. वैश्विक स्तर पर छानबीन करने के बाद इस तरह की परियोजना के निर्विवाद रूप से वैध होने के विषय पर चीन का संदेह बढ़ेगा.

हालिया भारतीय स्थिति में चीन द्वारा 1963 के समझौते के तहत पाकिस्तान को दिए गए एक निश्चित खंड के कब्जे पर वैश्विक ध्यान केंद्रित करना भी शामिल है.

गुरुवार को विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने इस रणनीतिक स्थिति को और अधिक स्पष्ट रूप से सामने रखा: 'केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में एक बड़े इलाके पर चीन का कब्ज़ा जारी है. इसने 1963 के तथाकथित चीन-पाकिस्तान सीमा समझौते के तहत पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर से भारतीय क्षेत्रों पर अवैध रूप से कब्जा कर लिया है.'

'भारत ने लगातार चीन-पाकिस्तान-आर्थिक गलियारे में परियोजनाओं पर चीन और पाकिस्तान दोनों को अपनी चिंताओं से अवगत कराया है, जो उस क्षेत्र में है जिसपर 1947 में पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से कब्जा कर लिया गया था.'

इससे पहले कभी भी इस मुद्दे पर भारतीय रणनीतिक स्थिति इतनी साहसिक और स्पष्टवादी नहीं थी. इस समय इस मुद्दे पर बात करना दिलचस्प है.

पारंपरिक कश्मीर नीति इस विश्वास पर आधारित थी कि यदि कश्मीर एक द्विपक्षीय मुद्दा बना रहता है, तो इससे भारत को लाभ होता है. और इसके अनुसार, एक सहायक राजनीतिक वास्तुकला जिसमें राजनीतिक कुलीन वर्ग भी शामिल है, इसके चारों ओर बनाया गया था, जो इस स्थिति को आगे बढ़ाने के लिए था कि मुस्लिम बहुल कश्मीर भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सर का ताज है. नवीनतम रणनीतिक परिवर्तन इस धारणा को ध्वस्त कर देता है और यहां तक कि नियंत्रण रेखा की पवित्रता पर भी सवाल उठाता है. हम दिलचस्प समय में जी रहें हैं.

लेखक-संजीब कु. बरुआ

Intro:Body:

ये बात देश के तीन बड़े नेता, 5 अगस्त 2019, जिस दिन जम्मू और कश्मीर में धारा 370  को समाप्त कर दिया गया था, के बाद पहले ही बोल चुके थे. गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस. जयशंकर सभी ने सटीक तालमेल के साथ कहा था कि पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर (पीओके) भारत का है जैसा कि लद्दाख में अक्साई चिन है. और फिर एक सप्ताह पहले, राष्ट्रीय राजधानी में मानेकशा केंद्र में करियप्पा पर व्याख्यान के दौरान सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने भी इसी वक्तव्य को दोहराया.



यह दोहराता हुआ पुनर्मूल्यांकन भारत की विदेश नीति में एक नियोजित और प्रतिमान परिवर्तन को रेखांकित करता है जो कश्मीर की पारंपरिक समझ और परंपरागत भारतीय स्थिति को ध्वस्त करता है जो उसे द्विपक्षीय मुद्दा बनाये हुए था.



जबकि पाकिस्तान की पारंपरिक स्थिति पीओके पर ध्यान आकर्षित करके कश्मीर पर केंद्रित है, जिसमें 'आजाद कश्मीर' और गिलगित-बाल्टिस्तान शामिल हैं, भारत केवल यह कह रहा है कि विवाद सिर्फ यहां नहीं बल्कि नियंत्रण रेखा के दूसरी तरफ (एलओसी) का भी है. इसके मूल में पीओके पर पाकिस्तानी सेना के कब्जे का सवाल है और यह भी इंगित करते हुए कि वैश्विक खोज-दीप कहां केन्द्रित होना चाहिए.



इस कूटनीति को कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए एक सचेत भारतीय प्रयास के रूप में माना जा सकता है, जिससे दक्षिण ब्लॉक में बैठे हुक्मरानों को लगता है कि लाभ होगा.



मंगलवार (29 अक्टूबर) को श्रीनगर में एक यूरोपीय संघ के सांसदों के प्रतिनिधिमंडल की अभूतपूर्व यात्रा वास्तव में इस नीति का एक उदाहरण है.



इस नीति को अपनाकर पाकिस्तान को उसके हिस्से के पीओके के बचाओ में उतरने के लिए मजबूर कर दिया जायेगा. इस स्थिति में वह असहज हो जायेगा क्योंकि इस क्षेत्र में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीईपीसी) की एक महत्वाकांक्षी योजना है - जिसमें राजमार्ग, रेलवे और बुनियादी ढांचों की परियोजनाएं शामिल हैं, जो चीन के काशगर से लेकर अरब सागर तट पर पाकिस्तान के ग्वादर तक फैली हुई हैं. 

चीन अब तक इस परियोजना में 50 बिलियन अमरीकी डालर से अधिक का निवेश कर चुका है. दिलचस्प बात यह है कि यह परियोजना पीओके से चलती है और इसलिए इसमें चीन भी शामिल हो जाता है. वैश्विक स्तर पर छानबीन करने के बाद इस तरह की परियोजना के निर्विवाद रूप से वैध होने के विषय पर चीन का संदेह बढ़ेगा.



हालिया भारतीय स्थिति में चीन द्वारा 1963 के समझौते के तहत पाकिस्तान को दिए गए एक निश्चित खंड के कब्जे पर वैश्विक ध्यान केंद्रित करना भी शामिल है.



गुरुवार को विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने इस रणनीतिक स्थिति को और अधिक स्पष्ट रूप से सामने रखा: 'केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में एक बड़े इलाके पर चीन का कब्ज़ा जारी है. इसने 1963 के तथाकथित चीन-पाकिस्तान सीमा समझौते के तहत पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर से भारतीय क्षेत्रों पर अवैध रूप से कब्जा कर लिया है.'



'भारत ने लगातार चीन-पाकिस्तान-आर्थिक गलियारे में परियोजनाओं पर चीन और पाकिस्तान दोनों को अपनी चिंताओं से अवगत कराया है, जो उस क्षेत्र में है जिसपर 1947 में पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से कब्जा कर लिया गया था.' 

इससे पहले कभी भी इस मुद्दे पर भारतीय रणनीतिक स्थिति इतनी साहसिक और स्पष्टवादी नहीं थी. इस समय इस मुद्दे पर बात करना दिलचस्प है.



पारंपरिक कश्मीर नीति इस विश्वास पर आधारित थी कि यदि कश्मीर एक द्विपक्षीय मुद्दा बना रहता है, तो इससे भारत को लाभ होता है. और इसके अनुसार, एक सहायक राजनीतिक वास्तुकला जिसमें राजनीतिक कुलीन वर्ग भी शामिल है, इसके चारों ओर बनाया गया था, जो इस स्थिति को आगे बढ़ाने के लिए था कि मुस्लिम बहुल कश्मीर भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सर का ताज है. नवीनतम रणनीतिक परिवर्तन इस धारणा को ध्वस्त कर देता है और यहां तक कि नियंत्रण रेखा की पवित्रता पर भी सवाल उठाता है. हम दिलचस्प समय में जी रहें हैं.

लेखक-संजीब कु. बरुआ


Conclusion:

For All Latest Updates

TAGGED:

ETV Bharat Logo

Copyright © 2025 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.