हैदराबाद: कुछ विसंगतियों को शुरुआती अवस्था में ही यदि दूर नहीं किया गया तो बीतते समय के साथ वे असाधारण हो जाएंगी और तब उन्हें नियंत्रित करना बहुत मुश्किल होगा. भारतीय लोकतंत्र में आपराधिक राजनीति चर्चा का एक बिंदु है. राजनीतिक दलों की आपराधिक राजनीति की बदरूपता ने देश के लोकतंत्र को सतही बना डाला है जो वास्तव में शर्मनाक है.
चौदहवीं लोकसभा में अपराधिक रिकॉर्ड वाले प्रतिनिधियों की संख्या 24 फीसद थी जो 15वीं लोकसभा में बढ़कर 30 फीसद हो गई. 16वीं लोकसभा में इसमें और बढ़ोतरी हुई और 34 फीसद हुई और वर्तमान लोकसभा में तो ऐसे सदस्यों की संख्या तो 43 फीसद हैं. इस खराब स्थिति में सुधार के लिए लोकहित याचिका के जरिए अदालत में लड़ाई चल रही है. इस पर केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पेश नवीनतम हलफनामा सोचने वालों को परेशान कर रहा है.
जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा पर डालें एक नजर
जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (3) यह कहती है कि जो संसद सदस्य दोषी हैं और जिन्हें दो साल कारावास की सजा सुनाई गई है वह उसी तारीख से अयोग्य हो जाएगा और उसकी रिहाई की तारीख से उसे छह साल के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है. न्यायपालिका ने इस विवाद पर केंद्र सरकार का रुख पूछा कि संविधान के अनुच्छेद 14 की शर्तों के अनुसार यह अनुचित है कि एक जन प्रतिनिधि के दोषी होने पर उसे एक निश्चित अवधि के लिए निष्कासित किया जाता है जबकि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के साथ-साथ अन्य कानूनों के तहत दोषी पाए गए सरकारी मुलाजिमों को जीवनभर के लिए बर्खास्त कर दिया जाता है.
चुनाव आयोग ने किया था स्पष्ट
जबकि चुनाव आयोग ने स्पष्ट कर दिया है कि दोषी लोक सेवकों को जीवनभर के लिए निष्कासित कर दिया जाना चाहिए तो केंद्र सरकार इससे सहमत हो गई और घोषणा की कि कानून के लिए हर कोई समान है, लेकिन काम इसके उल्टा की. सरकार ने दावे के साथ कहा कि सरकारी सेवकों की सेवाएं कुछ-कुछ सेवा शर्तों के अधीन हैं, इसके विपरीत जन प्रतिनिधि देश और लोगों की सेवा के लिए प्रतिबद्ध हैं. केंद्र सरकार की ओर से कहा गया कि जन प्रतिनिधित्व कानून के नियमों और विनियमों में संशोधन की जरूरत नहीं है. केंद्र सरकार ने दोषी करार दिए गए नेताओं पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगाने या उन्हें कोई पार्टी बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति में प्रवेश करने या किसी राजनीतिक दल में कोई प्रमुख पद स्वीकर करने से रोकने के लिए दायर किए गए मुकदमे में शामिल जनहित की पूरी तरह से अनदेखी की.
2014 अप्रैल में मोदी ने दिया था बयान
प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में वर्ष 2014 के अप्रैल में नरेंद्र मोदी ने एक बयान में कहा था कि भारतीय लोकतंत्र को आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों से मुक्त करने की आवश्यकता है, मैं राजनीतिक सफाई के लिए आया हूं. जब वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने नियमन दिया था कि जेल में बंद लोग वोट देने का अधिकार खो देंगे और ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने का अधिकार भी नहीं रहेगा तो तत्कालीन संप्रग की सरकार इसे समाप्त करने के लिए युद्ध स्तर पर सक्रिय हो गई. मोदी ने हालांकि जनता की बहुमत राय ली है कि आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को राजनीति में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, लेकिन इतने वर्षों में उस दिशा में कोई उचित कार्रवाई नहीं की गई.
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बनाना चाहिए सख्त कानून
न्यायिक परिषद ने उल्लेख किया कि यदि आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को उसी तारीख से प्रतिबंधित कर दिया जाए जिस तारीख को प्रारंभिक साक्ष्य के आधार पर उसके खिलाफ आरोप तय किया गया तो आपराधिक राजनीति की संभावना को शुरुआत में समाप्त हो जाएगी. इसका भी उल्लेख किया गया है कि इसकी रिपोर्ट में सावधानियां बरती जानी चाहिए. वर्ष 2018 के सितंबर में पांच सदस्यीय संवैधानिक न्यायाधिकरण ने कहा कि आपराधिक राजनीति लोकतंत की जड़ों को कमजोर कर रहा है और जघन्य अपराधियों में लिप्त अपराधियों को चुनावी राजनीति में प्रवेश रोकने के लिए सख्त कानून बनाया जाना चाहिए.
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सलाह की हुई उपेक्षा
इस तरह की बुद्धिमानी वाली सलाह की उपेक्षा की गई. बिहार विधानसभा में आज 58 फीसदी पक्के अपराधी और बाहुबली जो हाल ही में पुलिस के वाहन में जेल से सीधे आए, नामांकन जमा किया और चुनाव जीत गए. जैसे गिरगिट रंग बदलता है उस तरह से ये अपराधी राजनेता राजनीतिक दल बना रहे हैं और लोकतंत्र को बर्बाद कर रहे हैं. इस तरह की आफत वाली स्थिति में उचित कड़े कानून के लिए सुप्रीम कोर्ट की सिफारिश के बावजूद राजग सरकार के लिए चुप्पी साधना ठीक नहीं है. भारत में लोकतंत्र तभी सुरक्षित रहेगा जब आपराधिक राजनीति को बेरहमी से खारिज कर दिया जाए!