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इजराइल-लेबनान संघर्ष में फंसे थे 12 हजार भारतीय, जानें कैसे सुरक्षित बचे 2300 लोग - bk chaturvedi

इजराइल-लेबनान संघर्ष के दौरान 12,000 भारतीय भी फंस गए थे. इन फंसे हुए भारतीय को कैसे भारत लाया गया, इस संघर्ष की कहानी पूर्व कैबिनेट सचिव बीके चतुर्वेदी नें अपनी किताब 'चैलेंजेज ऑफ गवर्नेंस: ऐन इनसाइडर्स व्यू' में लिखी है.

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Published : Jun 16, 2019, 5:21 PM IST

नई दिल्ली: भारत ने वर्ष 2006 में पश्चिम एशिया में युद्ध जैसी स्थिति के दौरान नेपाल और श्रीलंका के कुछ नागरिकों सहित करीब 2,300 लोगों को सुरक्षित स्वदेश वापस लाया था. दरअसल, ये लोग इजराइल-लेबनान संघर्ष में फंस गए थे. एक नई पुस्तक में यह दावा किया गया है.

पूर्व कैबिनेट सचिव बीके चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक 'चैलेंजेज ऑफ गवर्नेंस: ऐन इनसाइडर्स व्यू' में शासन, गठबंधन राजनीति और आपात स्थिति से निपटने के मुद्दों तथा 13 साल पहले युद्ध प्रभावित स्थानों से भारतीय नागरिकों को सुरक्षित वापस लाए जाने जैसे मुद्दों पर अपने अनुभव को साझा किया है.

उन्होंने बताया कि लेबनान-इजराइल के युद्धग्रस्त क्षेत्रों में फंसे लोगों को सहयोग मुहैया करने का यह एक बचाव अभियान था. उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि उस वक्त लेबनान में 12,000 भारतीय मौजूद थे.

पढ़ें: अब्दुल कलाम की जयंती को राष्ट्रीय दिवस घोषित किया जाए: आनंद भास्कर रापोलू

चतुर्वेदी उस वक्त इन घटनाक्रमों की नयी दिल्ली से निगरानी कर रहे थे. उन्होंने पुस्तक में कहा है कि वहां सड़क मार्ग पर काफी खतरा था, इसलिए सरकार ने इन लोगों को साइप्रस में एक बंदरगाह तक लाने के लिए समुद्री मार्ग को चुना, जहां से उन्हें एयर इंडिया के विमान से दिल्ली लाया गया.

गौरतलब है कि इजराइल ने उस वक्त लेबनान के मोर्चों पर बमबारी शुरू कर दी थी. बढ़ती परेशानियों के साथ लेबनान में स्थित भारतीय दूतावास ने अपने स्टाफ के परिवारों को वहां से निकाल. इस बीच वहां पर माहौल काफी बिगड़ चुका था.

इसमें सीरिया ने भारत का सहयोग किया और लोगों को वहां से निकालने में सहायता की. परिवार वहां सड़क मार्ग के रास्ते सीरिया की राजधानी दमिश्क पहुंचे. सबसे परेशानी का बात ये थी कि उस दौरान वहां 12,000 भारतीय लोग रह रहे थे और इसमें से कई को जान का खतरा भी था. वहां कई दक्षिण एशियाई देशों, अमेरिका और यूरोप के लोग रह रहे थे. वे भी किसी तरह वहां से निकलना चाहते थे.

चतुर्वेदी ने रूपा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में कहा है कि 18 जुलाई 2006 को विदेश सचिव और चीफ ऑफ नेवल स्टाफ के साथ हालात पर चर्चा के दौरान उन लोगों को यह जानकारी दी गई थी कि भूमध्य सागर में कई भारतीय जहाज तैनात हैं और वे लौट रहे हैं तथा उनका इस्तेमाल लेबनान से भारतीय नागरिकों को निकालने में किया जा सकता है.

इस दौरान कई समस्याएं भी सामने आ सकती थीं, जिसके लिए भारत को तैयार रहना था. समुद्र में जहाजों के उतरते ही जरूरी निर्णय लेने थे. आवाजाही एकतरफा थी, साथ ही जहाजों को आने जाने पर मिश्र के बंदरगाह निगरानी रख रहे थे. नहर की चौड़ाई भी कम थी, जिसमें कोई भी जहाज अपना रास्ता पलट नहीं सकता था.

उन्होंने उल्लेख किया है, 'हमारे जहाज मानवीय सहायता अभियान में शामिल होने जा रहे थे और हम इस बात को लेकर चिंतित थे कि वे इजराइल और लेबनान के बीच, दोनों ओर से होने वाली झड़प में फंस सकते हैं. इसके लिए साइप्रस के अधिकारियों के साथ समन्वय की जरूरत थी. साइप्रस में हमारे उच्चायुक्त और लेबनान में हमारे राजदूत की स्थानीय अधिकारियों तथा इजराइल सरकार के साथ करीबी संपर्क रखने की जरूरत थी.'

पढ़ें: पीएम मोदी ने 'एक देश एक चुनाव' पर चर्चा के लिए 19 जून को सर्वदलीय बैठक बुलाई

आप्रवासन और सुरक्षा मुद्दों को सुलझाना पड़ा. लेबनानी बंदरगाह प्राधिकरण के साथ समन्वय की आवश्यकता थी, लेकिन समन्वय बना पाना एक बड़ी चुनौती थी. उनका कहना था कि जहाज पर 2,000 से अधिक लोग सवार थे, यात्रा के लिए व्यापक व्यवस्था की आवश्यकता थी.

उन्होंने पुस्तक में लिखा है, '...इसलिए हमें तालमेल बनाने की जरूरत थी ताकि हिजबुल्ला और इजराइल को वहां से नागरिकों को निकालने की प्रक्रिया के दौरान (बमबारी से) अस्थायी रूप से रोका जा सके.'

चतुर्वेदी ने बताया कि इस बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री को भी जानकारी दी गई थी.

उन्होंने इस बात का जिक्र किया है कि उस वक्त एयर इंडिया साइप्रस से संचालित नहीं होता था. इसलिए एयर इंडिया के कई विमानों को पार्किंग स्थल मुहैया करने के लिए विशेष इजाजत मांगी गई थी. साथ ही, उस वक्त साइप्रस में नियुक्त भारतीय राजदूत नीलम सभरवाल भी स्थानीय अधिकारियों के साथ संपर्क में थीं ताकि एयर इंडिया के चालक दल के लिए शीघ्र वीजा जारी हो सके.

उन्होंने पुस्तक में कहा है, 'हमारी तैयारियां रंग लाई और लोगों को वहां से निकालने की प्रक्रिया सुगमता से पूरी हुई. इसकी प्रवासी भारतीयों और पड़ोसी देश- नेपाल एवं श्रीलंका ने भी सराहना की, जिनके नागरिक भी एयर इंडिया की उड़ानों से वापस लाए गए थे. करीब 2300 लोगों को वापस लाया गया था. यह इस बात का संकेत देता है कि आपात स्थिति में हमारी प्रणाली कितनी प्रभावी है.'

नई दिल्ली: भारत ने वर्ष 2006 में पश्चिम एशिया में युद्ध जैसी स्थिति के दौरान नेपाल और श्रीलंका के कुछ नागरिकों सहित करीब 2,300 लोगों को सुरक्षित स्वदेश वापस लाया था. दरअसल, ये लोग इजराइल-लेबनान संघर्ष में फंस गए थे. एक नई पुस्तक में यह दावा किया गया है.

पूर्व कैबिनेट सचिव बीके चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक 'चैलेंजेज ऑफ गवर्नेंस: ऐन इनसाइडर्स व्यू' में शासन, गठबंधन राजनीति और आपात स्थिति से निपटने के मुद्दों तथा 13 साल पहले युद्ध प्रभावित स्थानों से भारतीय नागरिकों को सुरक्षित वापस लाए जाने जैसे मुद्दों पर अपने अनुभव को साझा किया है.

उन्होंने बताया कि लेबनान-इजराइल के युद्धग्रस्त क्षेत्रों में फंसे लोगों को सहयोग मुहैया करने का यह एक बचाव अभियान था. उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि उस वक्त लेबनान में 12,000 भारतीय मौजूद थे.

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चतुर्वेदी उस वक्त इन घटनाक्रमों की नयी दिल्ली से निगरानी कर रहे थे. उन्होंने पुस्तक में कहा है कि वहां सड़क मार्ग पर काफी खतरा था, इसलिए सरकार ने इन लोगों को साइप्रस में एक बंदरगाह तक लाने के लिए समुद्री मार्ग को चुना, जहां से उन्हें एयर इंडिया के विमान से दिल्ली लाया गया.

गौरतलब है कि इजराइल ने उस वक्त लेबनान के मोर्चों पर बमबारी शुरू कर दी थी. बढ़ती परेशानियों के साथ लेबनान में स्थित भारतीय दूतावास ने अपने स्टाफ के परिवारों को वहां से निकाल. इस बीच वहां पर माहौल काफी बिगड़ चुका था.

इसमें सीरिया ने भारत का सहयोग किया और लोगों को वहां से निकालने में सहायता की. परिवार वहां सड़क मार्ग के रास्ते सीरिया की राजधानी दमिश्क पहुंचे. सबसे परेशानी का बात ये थी कि उस दौरान वहां 12,000 भारतीय लोग रह रहे थे और इसमें से कई को जान का खतरा भी था. वहां कई दक्षिण एशियाई देशों, अमेरिका और यूरोप के लोग रह रहे थे. वे भी किसी तरह वहां से निकलना चाहते थे.

चतुर्वेदी ने रूपा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में कहा है कि 18 जुलाई 2006 को विदेश सचिव और चीफ ऑफ नेवल स्टाफ के साथ हालात पर चर्चा के दौरान उन लोगों को यह जानकारी दी गई थी कि भूमध्य सागर में कई भारतीय जहाज तैनात हैं और वे लौट रहे हैं तथा उनका इस्तेमाल लेबनान से भारतीय नागरिकों को निकालने में किया जा सकता है.

इस दौरान कई समस्याएं भी सामने आ सकती थीं, जिसके लिए भारत को तैयार रहना था. समुद्र में जहाजों के उतरते ही जरूरी निर्णय लेने थे. आवाजाही एकतरफा थी, साथ ही जहाजों को आने जाने पर मिश्र के बंदरगाह निगरानी रख रहे थे. नहर की चौड़ाई भी कम थी, जिसमें कोई भी जहाज अपना रास्ता पलट नहीं सकता था.

उन्होंने उल्लेख किया है, 'हमारे जहाज मानवीय सहायता अभियान में शामिल होने जा रहे थे और हम इस बात को लेकर चिंतित थे कि वे इजराइल और लेबनान के बीच, दोनों ओर से होने वाली झड़प में फंस सकते हैं. इसके लिए साइप्रस के अधिकारियों के साथ समन्वय की जरूरत थी. साइप्रस में हमारे उच्चायुक्त और लेबनान में हमारे राजदूत की स्थानीय अधिकारियों तथा इजराइल सरकार के साथ करीबी संपर्क रखने की जरूरत थी.'

पढ़ें: पीएम मोदी ने 'एक देश एक चुनाव' पर चर्चा के लिए 19 जून को सर्वदलीय बैठक बुलाई

आप्रवासन और सुरक्षा मुद्दों को सुलझाना पड़ा. लेबनानी बंदरगाह प्राधिकरण के साथ समन्वय की आवश्यकता थी, लेकिन समन्वय बना पाना एक बड़ी चुनौती थी. उनका कहना था कि जहाज पर 2,000 से अधिक लोग सवार थे, यात्रा के लिए व्यापक व्यवस्था की आवश्यकता थी.

उन्होंने पुस्तक में लिखा है, '...इसलिए हमें तालमेल बनाने की जरूरत थी ताकि हिजबुल्ला और इजराइल को वहां से नागरिकों को निकालने की प्रक्रिया के दौरान (बमबारी से) अस्थायी रूप से रोका जा सके.'

चतुर्वेदी ने बताया कि इस बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री को भी जानकारी दी गई थी.

उन्होंने इस बात का जिक्र किया है कि उस वक्त एयर इंडिया साइप्रस से संचालित नहीं होता था. इसलिए एयर इंडिया के कई विमानों को पार्किंग स्थल मुहैया करने के लिए विशेष इजाजत मांगी गई थी. साथ ही, उस वक्त साइप्रस में नियुक्त भारतीय राजदूत नीलम सभरवाल भी स्थानीय अधिकारियों के साथ संपर्क में थीं ताकि एयर इंडिया के चालक दल के लिए शीघ्र वीजा जारी हो सके.

उन्होंने पुस्तक में कहा है, 'हमारी तैयारियां रंग लाई और लोगों को वहां से निकालने की प्रक्रिया सुगमता से पूरी हुई. इसकी प्रवासी भारतीयों और पड़ोसी देश- नेपाल एवं श्रीलंका ने भी सराहना की, जिनके नागरिक भी एयर इंडिया की उड़ानों से वापस लाए गए थे. करीब 2300 लोगों को वापस लाया गया था. यह इस बात का संकेत देता है कि आपात स्थिति में हमारी प्रणाली कितनी प्रभावी है.'

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BOOK-WAR-EVACUATION
How India evacuated nearly 2,300 citizens during Israel-Lebanon war 2006!
By Kishor Dwivedi
         New Delhi, Jun 16 (PTI) India had carried out one of its best evacuation operations from a war-like zone in 2006, when it brought back home around 2,300 people, including some from Sri Lanka and Nepal, who were caught in the Israel-Lebanon conflict, says a new book.
         In Challenges of Governance: An Insider's View, former Cabinet Secretary B K Chaturvedi recalls his experiences as a top bureaucrat on issues of governance, coalition politics and handling emergencies, like the evacuation of Indian citizens from the simmering war zone 13 years ago.
         It was a rescue operation designed to provide support to those persons, mostly Indian citizens, who were caught in the war-like zone of Lebanon-Israel, he says, noting that 12,000 Indians were living in Lebanon at the time.
         Chaturvedi, who was overseeing the developments from New Delhi, recalls that tension was escalating in the region and travelling by road was becoming increasingly dangerous so the government opted for sea route to bring them to a port in Cyprus from where Air India planes would fly them to Delhi.
         The Israelis started bombarding Lebanese positions, and there was a naval blockade of the Lebanese coast. With escalating tensions, the Indian embassy in Lebanon evacuated families of its staffers, as it was becoming a dangerous conflict zone and lives were in danger.
         This evacuation was done via neighbouring Syria. The families travelled by road to Syria and then from its capital, Damascus, undertook an onward journey to India. But this was worrisome, for there were about 12,000 Indians living in Lebanon then, and many were scared for their lives. There were also a large number of residents from other South Asian countries, the US and Europe who wanted to be evacuated, he says.
         On July 18, 2006, while discussing the situation with the foreign secretary and the chief of naval staff he said they were informed that several Indian ships were in the Mediterranean Sea region for naval exercises, and that they were returning and could be used for the Lebanon evacuation.
         There were, however, several risks, for which we had to be adequately prepared. The decision had to be taken immediately, as our ships would be entering the Suez Canal any time, and once they did, their return would be time-consuming. Traffic was only one-way and the movement was strictly controlled by Egyptian port authorities. The width of the canal was small and did not permit any U-turns.
         "Our ships were going to be involved in a humanitarian exercise and we were worried they might get caught in the crossfire between Israel and Lebanon, Chaturvedi adds.
         Indian ships heard a lot of messages and communication chatter which made it clear that Israel was going to put a blockade on the Lebanese port, while several people who were to be evacuated lost their papers in disturbed conditions and had to be given temporary documents, he recalls.
         Coordination was required with Cyprus authorities. Our High Commissioner in Cyprus and ambassador for Lebanon needed to be in close touch with the local authorities and the government of Israel. We needed an understanding so that the exchange of fire between Hezbollah and Israel could be temporarily stopped when the evacuation process was going on, Chaturvedi says in the book, brought out by Rupa Publications.
         We worked out a plan so that those wishing to be evacuated could be helped by the Indian embassy and moved to Beirut. Ships of the Indian Navy were then to be used to evacuate them to Larnaca, the neighbouring port of Cyprus. Air India was then expected to bring them back to Delhi, he says, adding the prime minister was also briefed.
         Further the Indian authorities needed to negotiate several issues despite previous formal communications to ensure the transit was smooth and seamless.
         ... This required constant liaison with the local authorities. This was important, as many of the people being evacuated from Lebanon did not have complete travel documents.
         Immigration and security issues had to be sorted out. The problem was compounded as coordination with the Lebanese port authority was required and getting to them was a problem. Considering that more than 2,000 people were coming to board the ships, extensive arrangements were required for the journey, he says.
         Chaturvedi recalls Air India did not operate from Cyprus then and special permission was sought for allotting parking bays to the a number of flights of the national career, while the Indian Ambassador to Cyprus Neelam Sabharwal was in touch with local authorities to enable a quick issue of visas to the Air India crew.
         Also, since getting visas for so many people travelling via Cyprus was not acceptable to their government under the European Union (EU) system, a novel system of transit slips was evolved. This would enable a transfer of passengers straight from the naval ships to the Air India aircraft.
         Our preparations paid off and the evacuation process went smoothly, and was well appreciated by both the NRIs and neighbouring Sri Lanka and Nepal, whose citizens were also brought home by the Air India flights. Nearly 2,300 individuals were evacuated. It indicated the effectiveness of our system in emergencies, he says.
         Sabharwal, later recalled to me, India's evacuation operation via Cyprus was considered as best coordinated and most efficient by the government of Cyprus, foreign correspondents, diplomats and international organizations. In fact, it was described a role model for the EU and other nations to emulate', he writes. PTI KIS ZMN
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