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स्वतंत्रता के ढाई सौ वर्ष बाद भी नस्लवाद से जूझ रहा है अमेरिका

स्वतंत्रता के ढाई सौ वर्ष के बाद भी अमेरिका में नस्लीय भेदभाव में कमी नहीं आई है. अमेरिका में पुलिस द्वारा अत्याचारों में जान गंवाने वाले अधिकांश लोग अश्वेत हैं.

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Published : Jun 4, 2020, 10:39 PM IST

हैदराबाद : जब एक अश्वेत व्यक्ति पुलिस का सामना करता है, तो यह लाजमी है कि वह अपना 'जीवन या स्वतंत्रता खो दे' ... इस बात को एक एफ्र-अमेरिकन ने जुलाई 2016 में ट्विटर पर साझा किया था.

वहीं पूर्व राष्ट्रपति ओबामा ने कहा है कि पुलिस द्वारा अश्वेत युवकों को प्रताड़ित किया जा रहा है. पुलिस द्वारा अत्याचारों में जान गंवाने वाले अधिकांश लोग अश्वेत हैं.

डोनाल्ड ट्रंप, जिन्होंने चुनाव के समय पीड़ितों के परिवारों के साथ एक रिपब्लिकन उम्मीदवार के रूप में सहानुभूति व्यक्त की थी, आज जब अमेरिका उसी तरह के अपराध से पीड़ित है, वह धमकी दे रहे है कि वह आंदोलन को दबाने के लिए सेना को बुलाएगें.

याद दिला दें कि इसी तरह 1968 में मानवाधिकार नेता मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या के बाद भड़की हिंसा में, कई शहर समान संवेदनशील कारण के लिए संघर्ष में शामिल हो गए थे.

पोस्टमार्टम से पहले ही 46 वर्षीय जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या की पुष्टि कर दी गई . पूरी दुनिया ने उस पुलिसवाले को देखा जिसने उसकी गर्दन को फुटपाथ पर घुटने से दबा कर हत्या कर दी थी.

जुलाई 2014 में भी एरिक गार्नर नामक एक अश्वेत व्यक्ति को जब न्यूयॉर्क शहर की पुलिस ने गिरफ्तार किया, उस समय एरिक चिल्लाया कि 'मैं सांस नहीं ले पा रहा' ( 'i Can't take breathe' ) और उसने यह कहते हुए अंतिम सांस ली जबकि फ्लॉयड के भी अंतिम शब्द यह ही थे.

यह अब एक स्लोगन बन गया है, जो न केवल अमेरिका , बल्कि लंदन और बर्लिन में भी फैल रहा है.

वहीं, में ट्रंप की नस्लवादी प्रवृत्ति, प्रदर्शनकारियों पर ठग और लूटपाट के आरोप और गोलियों से जवाब देने की धमकियों ने दंगों भड़काने का काम किया है.

संयुक्त राज्य अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा के बाद लगभग ढाई शताब्दी पहले कहा गया था कि 'सभी मनुष्य समान हैं'. उसके बावजूद वहां नस्लीय भेदभाव खत्म नहीं हुआ है.

मार्टिन लूथर किंग की शहादत के 53 साल बाद भी, जिन्होंने घोषणा की कि अन्याय कहीं भी नहीं है, हर जगह न्याय के लिए खतरा है. उन्होंने नस्लीय भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपना जीवन लगा दिया. वहां अश्वेतों के खिलाफ अभी भी दुर्व्यवहार हो रहे हैं.

जब 2009 में ओबामा ने व्हाइट हाउस में प्रवेश किया, तो अमेरिकी समाज में एक 'परिवर्तन' आया, जो कि सफेद वर्चस्व की नींव पर बढ़ा, अश्वेतों का दिल खुशी से फूट पड़ा,लेकिन सामाजिक भेदभाव कभी कम नहीं हुआ.

ओबामा द्वारा कि गई टिप्पणी कि पुलिस गोरे लोगों की तुलना में एफ्रो-अमेरिकियों के वाहनों को रोकने और व्यक्तियों की तीन गुना अधिक जांच करने की संभावना 30 प्रतिशत अधिक है. इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है.

कोरोना महामारी के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका में 1.07 लाख लोगों की मौत हो गई ... हैरान करने वाली बात यह है कि अश्वेतों की मृत्यु गोरों की तुलना में तीन गुना अधिक थीं! अश्वेतों को काम पर रखने और मरने के लिए आगे रखना अमेरिका नस्लीय भेदभाव का एक जीवंत उदाहरण है!

अश्वेत, जो 40 मिलियन से अधिक आबादी वाले अमेरिकी का 13.4 प्रतिशत हिस्सा है ने कोरोना के कारण सबसे अधिक नौकरिया गंवाई हैं और आर्थिक तनाव झेला है.

मार्टिन लूथर किंग के शब्दों सही थे कि 'एक दंगा अनसुना भाषा है', महाशक्ति अब हिंसा के तहत उबल रही है और ट्रंप के उकसाने वाले शब्द इसमें ईंधन डालने का काम कर रहे हैं.

पढ़ें - अमेरिका : हिंसक प्रदर्शन के खिलाफ सेना को बुलाए जाने की सलाह पर घिरे रक्षा मंत्री

नस्लीय घृणा के ज्वार पर चुनाव फिर से शुरू करने और दूसरी बार सत्ता में आने की ट्रंप की प्रवृत्ति चौंकाने वाली है.

उन्हें विश्वास है कि निचले और मध्यम वर्ग के गोरे उसे सत्ता में वापस लाएंगे जैसा कि उन्होंने पिछली बार किया था.

वहीं, प्रतिद्वंद्वी जो बिडेन का कहना है कि वह सत्ता में आने के पहले सौ दिनों के भीतर संगठित नस्लवाद की समस्या को हल करने के लिए काम करेंगे. अगर नस्लवाद राजनीति के लिए कच्चा माल बन जाता है, तो अमेरिका नस्लवाद से कब उबर पाएगा?

हैदराबाद : जब एक अश्वेत व्यक्ति पुलिस का सामना करता है, तो यह लाजमी है कि वह अपना 'जीवन या स्वतंत्रता खो दे' ... इस बात को एक एफ्र-अमेरिकन ने जुलाई 2016 में ट्विटर पर साझा किया था.

वहीं पूर्व राष्ट्रपति ओबामा ने कहा है कि पुलिस द्वारा अश्वेत युवकों को प्रताड़ित किया जा रहा है. पुलिस द्वारा अत्याचारों में जान गंवाने वाले अधिकांश लोग अश्वेत हैं.

डोनाल्ड ट्रंप, जिन्होंने चुनाव के समय पीड़ितों के परिवारों के साथ एक रिपब्लिकन उम्मीदवार के रूप में सहानुभूति व्यक्त की थी, आज जब अमेरिका उसी तरह के अपराध से पीड़ित है, वह धमकी दे रहे है कि वह आंदोलन को दबाने के लिए सेना को बुलाएगें.

याद दिला दें कि इसी तरह 1968 में मानवाधिकार नेता मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या के बाद भड़की हिंसा में, कई शहर समान संवेदनशील कारण के लिए संघर्ष में शामिल हो गए थे.

पोस्टमार्टम से पहले ही 46 वर्षीय जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या की पुष्टि कर दी गई . पूरी दुनिया ने उस पुलिसवाले को देखा जिसने उसकी गर्दन को फुटपाथ पर घुटने से दबा कर हत्या कर दी थी.

जुलाई 2014 में भी एरिक गार्नर नामक एक अश्वेत व्यक्ति को जब न्यूयॉर्क शहर की पुलिस ने गिरफ्तार किया, उस समय एरिक चिल्लाया कि 'मैं सांस नहीं ले पा रहा' ( 'i Can't take breathe' ) और उसने यह कहते हुए अंतिम सांस ली जबकि फ्लॉयड के भी अंतिम शब्द यह ही थे.

यह अब एक स्लोगन बन गया है, जो न केवल अमेरिका , बल्कि लंदन और बर्लिन में भी फैल रहा है.

वहीं, में ट्रंप की नस्लवादी प्रवृत्ति, प्रदर्शनकारियों पर ठग और लूटपाट के आरोप और गोलियों से जवाब देने की धमकियों ने दंगों भड़काने का काम किया है.

संयुक्त राज्य अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा के बाद लगभग ढाई शताब्दी पहले कहा गया था कि 'सभी मनुष्य समान हैं'. उसके बावजूद वहां नस्लीय भेदभाव खत्म नहीं हुआ है.

मार्टिन लूथर किंग की शहादत के 53 साल बाद भी, जिन्होंने घोषणा की कि अन्याय कहीं भी नहीं है, हर जगह न्याय के लिए खतरा है. उन्होंने नस्लीय भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपना जीवन लगा दिया. वहां अश्वेतों के खिलाफ अभी भी दुर्व्यवहार हो रहे हैं.

जब 2009 में ओबामा ने व्हाइट हाउस में प्रवेश किया, तो अमेरिकी समाज में एक 'परिवर्तन' आया, जो कि सफेद वर्चस्व की नींव पर बढ़ा, अश्वेतों का दिल खुशी से फूट पड़ा,लेकिन सामाजिक भेदभाव कभी कम नहीं हुआ.

ओबामा द्वारा कि गई टिप्पणी कि पुलिस गोरे लोगों की तुलना में एफ्रो-अमेरिकियों के वाहनों को रोकने और व्यक्तियों की तीन गुना अधिक जांच करने की संभावना 30 प्रतिशत अधिक है. इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है.

कोरोना महामारी के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका में 1.07 लाख लोगों की मौत हो गई ... हैरान करने वाली बात यह है कि अश्वेतों की मृत्यु गोरों की तुलना में तीन गुना अधिक थीं! अश्वेतों को काम पर रखने और मरने के लिए आगे रखना अमेरिका नस्लीय भेदभाव का एक जीवंत उदाहरण है!

अश्वेत, जो 40 मिलियन से अधिक आबादी वाले अमेरिकी का 13.4 प्रतिशत हिस्सा है ने कोरोना के कारण सबसे अधिक नौकरिया गंवाई हैं और आर्थिक तनाव झेला है.

मार्टिन लूथर किंग के शब्दों सही थे कि 'एक दंगा अनसुना भाषा है', महाशक्ति अब हिंसा के तहत उबल रही है और ट्रंप के उकसाने वाले शब्द इसमें ईंधन डालने का काम कर रहे हैं.

पढ़ें - अमेरिका : हिंसक प्रदर्शन के खिलाफ सेना को बुलाए जाने की सलाह पर घिरे रक्षा मंत्री

नस्लीय घृणा के ज्वार पर चुनाव फिर से शुरू करने और दूसरी बार सत्ता में आने की ट्रंप की प्रवृत्ति चौंकाने वाली है.

उन्हें विश्वास है कि निचले और मध्यम वर्ग के गोरे उसे सत्ता में वापस लाएंगे जैसा कि उन्होंने पिछली बार किया था.

वहीं, प्रतिद्वंद्वी जो बिडेन का कहना है कि वह सत्ता में आने के पहले सौ दिनों के भीतर संगठित नस्लवाद की समस्या को हल करने के लिए काम करेंगे. अगर नस्लवाद राजनीति के लिए कच्चा माल बन जाता है, तो अमेरिका नस्लवाद से कब उबर पाएगा?

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