कोलकाता/पटना : बिहार विधानसभा का शंखनाद हो चुका है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लगातार चौथी बार राज्य की सत्ता की बागडोर थामने के अपने प्रयास में कई महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. कुमार की जद(यू) के लिए चुनौती राजद, कांग्रेस, भाकपा (एमएल), भाकपा (एम) के एकजुट विपक्ष की बजाय राजग के उनके पहले के साथी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) से अधिक है. जद (यू) और लोजपा दोनों के ही भाजपा के साथ अपने-अपने पक्के गठजोड़ हैं. फिलहाल, लोजपा प्रमुख चिराग पासवान ने स्पष्ट कर दिया है कि वह केवल जद (यू) के खिलाफ ही मैदान में उतरेंगे, भाजपा के खिलाफ नहीं.
सहानुभूति की लहर से डर
परंपरागत रूप से जाति-आधारित राजनीति के प्रभुत्व वाले बिहार में कुमार एक अलग ‘महादलित’ वर्ग बनाकर इसके जरिए निम्न जाति के मतदाताओं के विश्वास को हासिल करने की कोशिश कर रहे थे. चुनाव के समय लोजपा के संस्थापक और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का आकस्मिक निधन मुख्यमंत्री के लिए एक झटके के रूप में सामने आया है. पासवान निम्न जाति की पृष्ठभूमि से आते थे. उनकी मौत के परिणामस्वरूप एक सहानुभूति की लहर जद (यू) के दलित अनुयायियों में लोजपा के पक्ष में बनी है. यह झुकाव या तो लोजपा या एकजुट विपक्ष की मदद करेगा.
विश्वसनीय राजपूत चेहरे की कमी
एक जो दूसरा कारक कुमार के खिलाफ है, वह उनकी पार्टी में एक विश्वसनीय राजपूत चेहरे की कमी है. वास्तव में, यही समस्या बिहार में भाजपा को भी सता रही है. राज्य के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से कम से कम 45 ऐसे हैं, जहां राजपुत वोट बैंक एक फैक्टर है. दूसरी ओर, राजद के पास अब भी जगदानंद सिंह के रूप में एक अत्यंत विश्वसनीय राजपूत चेहरा है. हालांकि, राजद के सबसे लोकप्रिय राजपूत चेहरा रहे दिवंगत नेता रघुवंश प्रसाद सिंह के बड़े बेटे सत्य प्रकाश सिंह हाल ही में जद (यू) में शामिल हो गए हैं. यह कहना जल्दबाजी होगी कि कुमार राजपूत वोटों को हासिल करने में रघुवंश प्रसाद सिंह की छवि का कितना फायदा उठा पाते हैं?
उद्योगों की दुर्दशा और रोजगार के अवसरों की कमी
मुख्यमंत्री के लिए एक और बड़ी चुनौती राज्य की खराब होती वित्तीय स्थिति, उद्योगों की दुर्दशा और रोजगार के अवसरों की कमी है. इसे सभी विपक्षी दलों ने विशेष रूप से राजद ने प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया है. राजद नेता और बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता व लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी प्रसाद यादव ने अपने सभी चुनाव अभियानों में बिहार में बेरोजगारी की दर पर प्रकाश डाला है, जो 46.6 फीसद है. यह देश में सबसे ज्यादा है. उन्होंने कुमार पर खाली पदों को नहीं भरने के कारण प्रवासन को बढ़ावा देने का भी आरोप लगाया है और बिहार में इस बार एकजुट विपक्ष को वोट दिलाने के लिए 10 लाख स्थायी सरकारी नौकरी देने का वादा किया है. नीतीश कुमार ने जिस तरह से बिहार में बंदी लागू की, उससे न केवल राज्य के कर राजस्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, बल्कि राज्य का पर्यटन उद्योग लगभग ध्वस्त हो गया, जिसके परिणामस्वरूप कई होटल बंद हो गए और हजारों लोग बेरोजगार हो गए.
नीतीश कुमार ने खुद महसूस किया
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद महसूस किया है कि बेरोजगारी का मुद्दा उनके लिए आने वाले चुनावों के लिए असुविधाजनक कारक हो सकता है, क्योंकि 14 अक्टूबर को आभासी माध्यम से 11 विधानसभा क्षेत्रों के लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि देश में कोई ऐसा राज्य नहीं है और दुनिया का कोई भी ऐसा देश नहीं है, जो हर व्यक्ति को नौकरी दे सके.
अन्य गठबंधन भी काटेंगे वोट
अंत में, हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) और पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) जैसे समुदाय-आधारित दलों का ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट (जीडीएसएफ ) के नाम से गठबंधन का नया प्रयोग भी है. इससे जुड़कर मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा), पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र प्रसाद का समाजवादी जनता दल (एसजेडी), डॉ. संजय चौहान की जनवादी पार्टी (समाजवादी) और ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी जदयू को तनाव दे रही है. अगर ओवैसी की एआईएमआईएम मुस्लिम वोट बैंक में और कुशवाहा की आरएलएसपी जदयू के कोइरी-कुर्मी समुदाय के वोट बैंक में सेंध लगा पाती हैं, तो चुनावी गणना जदयू के खिलाफ बदल सकती है. खासकर इस तथ्य को देखते हुए कि कुमार खुद कुर्मी समुदाय से आते हैं.
तेजस्वी और चिराग की राह भी नहीं आसान
जहां कुमार के लिए ये बड़ी चुनौतियां हैं, वहीं विपक्ष के पास भी कुछ निश्चित बाधाएं हैं. पहली चुनौती यह है कि तेजस्वी प्रसाद यादव और चिराग पासवान दोनों के पास सरकार चलाने का अनुभव नहीं है. यह एक कारक है, जिसे नीतीश कुमार और उनकी पार्टी प्रचार के दौरान उजागर करने की कोशिश कर रही है. दूसरा नकारात्मक कारक जो कुमार के लिए सकारात्मक रूप से काम कर सकता है, वह विपक्षी गठबंधन और लोजपा के दो सबसे लोकप्रिय चेहरों का इस बार के चुनाव से गायब होना है. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव (जो 2017 में चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने के बाद अभी जेल की सजा काट रहे हैं) वह इस साल चुनाव प्रचार में नहीं उतरेंगे. दूसरा राम विलास पासवान का आकस्मिक निधन हो गया है. ये निश्चित रूप से नीतीश कुमार को अपने प्रतिद्वंद्वियों से कम से कम प्रचार अभियान के चरण में कुछ कदम आगे रखेंगे.