भोपाल : मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के कई गांव ऐसे हैं, जहां आज भी स्वास्थ्य सुविधाएं खाट के सहारे हैं. इलाज के लिए लोगों को खाट के सहारे ही अस्पताल पहुंचाया जाता है. तस्वीरें इसलिए भी चौकाने वाली हैं, क्योंकि देश कोविड-19 महामारी की चपेट में है. लाख दावे हैं, मगर सिवनी से आई यह तस्वीरें प्रदेश की लचर स्वास्थ्य सुविधा का हाल उजागर करती हैं.
सिवनी के घंसौर क्षेत्र में बरगी बांध के चलते दर्जन भर गांव विस्थापित हुए हैं. विस्थापन के शिकार लोगों का अंतहीन दर्द आज भी खत्म नहीं हुआ. सालों से इनके हाल ऐसे हैं कि, न जीते बनता है न ही मरते. कुदवारी भी एक ऐसा ही गांव है. यहां कोई बीमार पड़ जाए, तो उसे इलाज के लिए दो किलोमीटर लंबा सफर पैदल तय करना होता है. इस बीच उसे दरिया और कच्चा रास्ता पार करना पड़ता है. तब जाकर मरीज अस्पताल पहुंच पाता है. गंभीर मरीज तो अस्पताल पहुंचने से पहले ही तम तोड़ देते हैं. गर्भवती महिलाओं के लिए तो यह जीने-मरने का सबब है.
खाट पर मरीजों के ले जाते हैं अस्पताल
बरगी बांध डूब क्षेत्र से प्रभावित गांवों की यही कहानी है. इन तस्वीरों के आगे शब्दों की जरुरत खत्म हो जाती है. दो किलोमीटर के सफर में सिर्फ पानी ही पानी दिखता है. दरिया पार करने के बाद कीचड़ से भरा कच्चा रास्ता और चारपाई पर मरीज. यह 21वीं सदी के एमपी की हकीकत है. दर्जनभर गांवों में से एक कुदवारी का भी यही हाल है. अस्पताल पहुंचने तक उसकी सांसें चलती रहें, खाट पर लेटा मरीज यही प्रार्थना करता है.
परेशानी का बांध, सुविधा का अभाव
ग्रामीणों की परेशानी का कारण है बरगी बांध, जो नर्मदा नदी पर बना है. इससे चार लाख से ज्यादा हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई होती है. 105 मेगा वाट बिजली का भी उत्पादन होता है. इसके अलावा 325 टन मछली का उत्पादन भी इसी बांध में होता है. जबलपुर जैसे शहर में 127 एमडीजी पेयजल की आपूर्ति बांध के जरिए ही होती है. पर्यटन से भी सरकार को अच्छा खासा लाभ है. लेकिन विस्थापन का शिकार गांवों का हाल बेहाल है. गांव वालों का कहना है कि, बांध से मिलने वाले राजस्व का यदि थोड़ा सा हिस्सा उनके ऊपर भी खर्च किया जाए, तो उनका भला हो जाएगा. कुदवारी गांव नर्मदा के बैक वाटर में बसा है. कुछ लोगों के पास मोटरसाइकिल है, जिससे वह सिर्फ नर्मदा किनारे तक पहुंच पाते हैं, लेकिन आगे का सफर खाट और दरिया में डूब कर ही तय होता है. दिन में नाव मिल भी जाती हैं, रात में कोई साधन नहीं. कई बार रास्ते में ही महिलाओं का प्रसव भी हो जाता है.
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चुनाव बहिष्कार भी बेअसर
गांव का उपसरपंच शेख फारून का कहना है कि 2014 के चुनावों में ग्रामीणों ने पुल की बुनियादी मांग को लेकर चुनावों का बहिष्कार भी किया. आश्वासन भी मिले, लेकिन ग्रामीणों की पुल की मांग पूरी नहीं हुई, इसलिए मजबूरी में गांव के लोगों को नाव का सफर करना पड़ता है. जो बेहद खतरनाक है. यहां हर वक्त जान का खतरा बना रहता है.
विस्थापन का दर्द
गांव विकास की मुख्यधारा से अछूता है. विस्थापन ने इन्हें जो जख्म दिया अब वो नासूर बन चुका है. मरहम कौन लगाएगा, इलाज कैसे होगा कोई जवाबदार नहीं. विस्थापन का खामियाजा यह रोज भुगतते हैं. अब बरसात का मौसम है और मुसीबतें पहाड़ सी हैं. विकास के नाम पर बिखरी रोशनी इन तक नहीं पहुंची है. स्वास्थ्य और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए इन्हें रोज तरसना पड़ता है.