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अयोध्या भूमि विवादः समाधान की ओर बढ़ते 'सुप्रीम' कदम

हजारों सालों से चले आ रहे धार्मिक विश्वास का पर्याय और जहां सदियों पहले कथित तौर पर पूजा स्थल का विनाश कर दिया गया था, उस अयोध्या भूमि विवाद पर दशकों से चले आ रहे कानूनी विवाद का सुप्रीम कोर्ट पटाक्षेप करने जा रहा है. 40 दिनों की लंबी सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट एक महीने के अंदर इस पर फैसला सुनाएगा. इसके बाद कई लोगों में उम्मीद जगी है. मध्यस्थता पैनल ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी है. उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने विवादास्पद जमीन पर अपना दावा छोड़ दिया है. ये सारे संकेत सौहार्द्रपूर्ण समाधान की ओर संकेत कर रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट
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Published : Oct 21, 2019, 4:30 PM IST

वैसे, इस मामले पर जस्टिस दीपक मिश्रा ने साफ तौर पर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है. लेकिन उनके उत्तराधिकारी, रंजन गोगोई ने जनवरी में पांच सदस्यीय पीठ की नियुक्ति कर दी. इसके बाद अदालत को उर्दू, हिंदी, गुरुमुखी, अरबी, संस्कृत और फ़ारसी जैसी कई भाषाओं में महत्वपूर्ण दस्तावेज़ सौंपे गए.

अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2010 में दिए गए फैसले के खिलाफ दायर समेत कुल 14 अपीलों पर अपना फैसला सुरक्षित रखा है.

सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला, श्रीश्री रविशंकर और वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीराम पंचू, जो तीन सदस्यीय मध्यस्थता पैनल में शामिल हैं, लगातार समाधान की दिशा में माहौल बना रहे हैं. वे मतभेदों को पाटने की कोशिश कर रहे हैं. पूरा देश उत्सुकता से अंतिम फैसले का इंतजार कर रहा है.

अयोध्या नरसंहार ने भारत की धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु भावना पर करारा प्रहार किया था. कारसेवकों द्वारा बाबरी विध्वंस के बाद, तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार की प्रतिक्रिया महज एक खानापूर्ति जैसी थी. 1993 में, राव सरकार ने पूरी घटना के बाद मात्र एक-पंक्ति का विवरण दिया था, जिसमें लिखा था, 'क्या 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस से पहले कोई मंदिर था ?'

कुछ राजनीतिक वर्गों ने भारतीय संविधान की धारा 143 की आड़ में अदालत के फैसले का पालन नहीं करने का फैसला किया. चूंकि केंद्र सरकार के अनुसार राष्ट्रपति की रिपोर्ट अप्रासंगिक है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी रिपोर्टों को खारिज कर दिया. चूंकि अधिकांश न्यायाधीशों ने भूमि अधिकारों के लिए न्यायाधिकरणों के तहत लंबित मामलों को खारिज कर दिया था, इसलिए याचिकाओं की बाढ़ आ गई थी.

2010 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक चौंकाने वाला निर्णय दिया था कि विवादित पक्षों में से कोई भी भूमि के अपने सही स्वामित्व को साबित करने के लिए उचित सबूत नहीं दिखा सका. कोर्ट ने 1500 गज की भूमि को तीन समान भागों में विभाजित करने का फैसला सुनाया. इसे हिंदुओं, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच वितरित करने का आदेश दिया. इस फैसले के खिलाफ दायर अपील अभी भी लंबित है.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तुत प्रश्न अयोध्या मुद्दे की गंभीरता को दर्शाते हैं. जब वरिष्ठ अधिवक्ता परासरन ने तर्क दिया कि बाबर ने राम जन्मभूमि की भूमि पर मस्जिद का निर्माण कर गलती की, तो एससी ने जवाब दिया कि ऐतिहासिक गलतियों को सुधारना हमारी जिम्मेदारी नहीं है. इसमें आगे कहा गया है कि अगर कोई ऐतिहासिक त्रुटियों को सामने लाना शुरू करता है, तो सम्राट अशोक को भी उनके कई कार्यों के लिए दोषी ठहराया जा सकता है.

वैसे, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड यह तर्क दे रहा है कि तीन-सदस्यीय बोर्ड के साथ एक निष्कर्ष पर पहुंचना लगभग असंभव है, शांति के लिए भारतीय मुस्लिम नामक एक संगठन हिंदुओं को भूमि का उपहार देना चाहता है, भले ही फैसला मुसलमानों के पक्ष में हो.

1994 में सुप्रीम कोर्ट को उम्मीद थी कि भ्रातृत्व और सहिष्णुता की भावनाएं धीरे-धीरे अयोध्या विवाद को सुलझाएंगी. वाजपेयी ने भी संसद में एक वादा किया था कि सरकार न्यायालय का सम्मान करेगी. अगर सभी संबंधित पक्ष ऐसी ही भावनाओं का प्रदर्शन करेंगे, तो देश में शांति जरूर कायम रहेगी.

वैसे, इस मामले पर जस्टिस दीपक मिश्रा ने साफ तौर पर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है. लेकिन उनके उत्तराधिकारी, रंजन गोगोई ने जनवरी में पांच सदस्यीय पीठ की नियुक्ति कर दी. इसके बाद अदालत को उर्दू, हिंदी, गुरुमुखी, अरबी, संस्कृत और फ़ारसी जैसी कई भाषाओं में महत्वपूर्ण दस्तावेज़ सौंपे गए.

अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2010 में दिए गए फैसले के खिलाफ दायर समेत कुल 14 अपीलों पर अपना फैसला सुरक्षित रखा है.

सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला, श्रीश्री रविशंकर और वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीराम पंचू, जो तीन सदस्यीय मध्यस्थता पैनल में शामिल हैं, लगातार समाधान की दिशा में माहौल बना रहे हैं. वे मतभेदों को पाटने की कोशिश कर रहे हैं. पूरा देश उत्सुकता से अंतिम फैसले का इंतजार कर रहा है.

अयोध्या नरसंहार ने भारत की धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु भावना पर करारा प्रहार किया था. कारसेवकों द्वारा बाबरी विध्वंस के बाद, तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार की प्रतिक्रिया महज एक खानापूर्ति जैसी थी. 1993 में, राव सरकार ने पूरी घटना के बाद मात्र एक-पंक्ति का विवरण दिया था, जिसमें लिखा था, 'क्या 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस से पहले कोई मंदिर था ?'

कुछ राजनीतिक वर्गों ने भारतीय संविधान की धारा 143 की आड़ में अदालत के फैसले का पालन नहीं करने का फैसला किया. चूंकि केंद्र सरकार के अनुसार राष्ट्रपति की रिपोर्ट अप्रासंगिक है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी रिपोर्टों को खारिज कर दिया. चूंकि अधिकांश न्यायाधीशों ने भूमि अधिकारों के लिए न्यायाधिकरणों के तहत लंबित मामलों को खारिज कर दिया था, इसलिए याचिकाओं की बाढ़ आ गई थी.

2010 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक चौंकाने वाला निर्णय दिया था कि विवादित पक्षों में से कोई भी भूमि के अपने सही स्वामित्व को साबित करने के लिए उचित सबूत नहीं दिखा सका. कोर्ट ने 1500 गज की भूमि को तीन समान भागों में विभाजित करने का फैसला सुनाया. इसे हिंदुओं, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच वितरित करने का आदेश दिया. इस फैसले के खिलाफ दायर अपील अभी भी लंबित है.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तुत प्रश्न अयोध्या मुद्दे की गंभीरता को दर्शाते हैं. जब वरिष्ठ अधिवक्ता परासरन ने तर्क दिया कि बाबर ने राम जन्मभूमि की भूमि पर मस्जिद का निर्माण कर गलती की, तो एससी ने जवाब दिया कि ऐतिहासिक गलतियों को सुधारना हमारी जिम्मेदारी नहीं है. इसमें आगे कहा गया है कि अगर कोई ऐतिहासिक त्रुटियों को सामने लाना शुरू करता है, तो सम्राट अशोक को भी उनके कई कार्यों के लिए दोषी ठहराया जा सकता है.

वैसे, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड यह तर्क दे रहा है कि तीन-सदस्यीय बोर्ड के साथ एक निष्कर्ष पर पहुंचना लगभग असंभव है, शांति के लिए भारतीय मुस्लिम नामक एक संगठन हिंदुओं को भूमि का उपहार देना चाहता है, भले ही फैसला मुसलमानों के पक्ष में हो.

1994 में सुप्रीम कोर्ट को उम्मीद थी कि भ्रातृत्व और सहिष्णुता की भावनाएं धीरे-धीरे अयोध्या विवाद को सुलझाएंगी. वाजपेयी ने भी संसद में एक वादा किया था कि सरकार न्यायालय का सम्मान करेगी. अगर सभी संबंधित पक्ष ऐसी ही भावनाओं का प्रदर्शन करेंगे, तो देश में शांति जरूर कायम रहेगी.

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हजारों सालों से चले आ रहे धार्मिक विश्वास का पर्याय और जहां सदियों पहले कथित तौर पर पूजा स्थल का विनाश कर दिया गया था, उस अयोध्या भूमि विवाद पर दशकों से चले आ रहे कानूनी विवाद का सुप्रीम कोर्ट पटाक्षेप करने जा रहा है. 40 दिनों की लंबी सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट एक महीने के अंदर इस पर फैसला सुनाएगा. इसके बाद कई लोगों में उम्मीद जगी है. मध्यस्थता पैनल ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी है. उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने विवादास्पद जमीन पर अपना दावा छोड़ दिया है. ये सारे संकेत सौहार्द्रपूर्ण समाधान की ओर संकेत कर रहे हैं. 

वैसे, इस मामले पर जस्टिस दीपक मिश्रा ने साफ तौर पर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है. लेकिन उनके उत्तराधिकारी, रंजन गोगोई ने जनवरी में पांच सदस्यीय पीठ की नियुक्ति कर दी. इसके बाद अदालत को उर्दू, हिंदी, गुरुमुखी, अरबी, संस्कृत और फ़ारसी जैसी कई भाषाओं में महत्वपूर्ण दस्तावेज़ सौंपे गए. 

अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2010 में दिए गए फैसले के खिलाफ दायर समेत कुल 14 अपीलों पर अपना फैसला सुरक्षित रखा है. 

सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला, श्रीश्री रविशंकर और वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीराम पंचू, जो तीन सदस्यीय मध्यस्थता पैनल में शामिल हैं, लगातार समाधान की दिशा में माहौल बना रहे हैं. वे मतभेदों को पाटने की कोशिश कर रहे हैं. पूरा देश उत्सुकता से अंतिम फैसले का इंतजार कर रहा है.

अयोध्या नरसंहार ने भारत की धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु भावना पर करारा प्रहार किया था. कारसेवकों द्वारा बाबरी विध्वंस के बाद, तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार की प्रतिक्रिया महज एक खानापूर्ति जैसी थी. 1993 में, राव सरकार ने पूरी घटना के बाद मात्र एक-पंक्ति का विवरण दिया था, जिसमें लिखा था, 'क्या 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस से पहले कोई मंदिर था ?'

कुछ राजनीतिक वर्गों ने भारतीय संविधान की धारा 143 की आड़ में अदालत के फैसले का पालन नहीं करने का फैसला किया. चूंकि केंद्र सरकार के अनुसार राष्ट्रपति की रिपोर्ट अप्रासंगिक है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी रिपोर्टों को खारिज कर दिया. चूंकि अधिकांश न्यायाधीशों ने भूमि अधिकारों के लिए न्यायाधिकरणों के तहत लंबित मामलों को खारिज कर दिया था, इसलिए याचिकाओं की बाढ़ आ गई थी. 2010 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक चौंकाने वाला निर्णय दिया था कि विवादित पक्षों में से कोई भी भूमि के अपने सही स्वामित्व को साबित करने के लिए उचित सबूत नहीं दिखा सका. कोर्ट ने 1500 गज की भूमि को तीन समान भागों में विभाजित करने का फैसला सुनाया. इसे हिंदुओं, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच वितरित करने का आदेश दिया. इस फैसले के खिलाफ दायर अपील अभी भी लंबित है.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तुत प्रश्न अयोध्या मुद्दे की गंभीरता को दर्शाते हैं. जब वरिष्ठ अधिवक्ता परासरन ने तर्क दिया कि बाबर ने राम जन्मभूमि की भूमि पर मस्जिद का निर्माण कर गलती की, तो एससी ने जवाब दिया कि ऐतिहासिक गलतियों को सुधारना हमारी जिम्मेदारी नहीं है. इसमें आगे कहा गया है कि अगर कोई ऐतिहासिक त्रुटियों को सामने लाना शुरू करता है, तो सम्राट अशोक को भी उनके कई कार्यों के लिए दोषी ठहराया जा सकता है. 

वैसे, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड यह तर्क दे रहा है कि तीन-सदस्यीय बोर्ड के साथ एक निष्कर्ष पर पहुंचना लगभग असंभव है, शांति के लिए भारतीय मुस्लिम नामक एक संगठन हिंदुओं को भूमि का उपहार देना चाहता है, भले ही फैसला मुसलमानों के पक्ष में हो. 1994 में सुप्रीम कोर्ट को उम्मीद थी कि भ्रातृत्व और सहिष्णुता की भावनाएं धीरे-धीरे अयोध्या विवाद को सुलझाएंगी. वाजपेयी ने भी संसद में एक वादा किया था कि सरकार न्यायालय का सम्मान करेगी. अगर सभी संबंधित पक्ष ऐसी ही भावनाओं का प्रदर्शन करेंगे, तो देश में शांति जरूर कायम रहेगी.


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