नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या भूमि विवाद पर 15वें दिन सुनवाई की गई. इस दौरान अदालत ने कहा कि 500 साल पहले के दावों की पुष्टि 'थोड़ी परेशानी' का मामला है. शुक्रवार को आगे की सुनवाई जारी रहेगी.
दरअसल, गुरुवार को ये दलील दी गई कि, मुगल सम्राट बाबर ने अयोध्या में विवादित ढांचे को 'अल्लाह' को समर्पित किया था, इसके लिए इस्लाम के सिद्धांतों के तहत एक वैध मस्जिद होना चाहिए. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 500 साल पुराने मामले की जांच 'थोड़ी परेशानी' वाली है.
अखिल भारतीय श्री राम जन्मभूमि पुनरूद्धार समिति के वकील ने मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में 5-न्यायाधीशों की संविधान पीठ को बताया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए इसे दलील को यह कहते हुए खत्म कर दिया था कि वो इस विवाद में जाना नहीं चाहते जिसमें यह कहा गया है कि बाबर ने मस्जिद शरिया, हदीस और इस्लामिक नियमों के अनुसार बनाई है या नहीं.
हिंदू पक्ष की ओर से पेश वरिष्ठ वकील पीएन मिश्रा ने मामले में एक मुस्लिम पक्षकार द्वारा दायर मुकदमे के हवाले से कहा कि बाबर जमीन का मालिक नहीं था और यह आरोप लगाने में असमर्थ था कि वह वैध रूप से 'वक्फ' को क्रियान्वित करने में असमर्थ था.
उच्च न्यायालय ने कहा कि लगभग 500 साल बीत जाने के बाद, यह उस मुद्दे पर बहस नहीं करेगा जो 'इतिहासकारों के लिए बहस' का विषय हो सकता है.
राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद के राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले में सुनवाई के 15 वें दिन जस्टिस एसए बोबडे, डी वाई चंद्रचूड़, अशोक भूषण और एसए नाजे की पीठ को बताया कि इस्लाम में बाबर जैसे लोग भी पूरी तरह संप्रभू नहीं था वो कुछ नहीं कर सकता था.था। उसे अभी भी धर्म का पालन करना था.
मिश्रा ने हाईकोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि कि बाबर के पास पूर्ण शक्ति थी और उसने कुछ किया था ... जिसकी समीक्षा नहीं की जा सकती. इस पर पीठ ने कहा कि कि अब हम इस सवाल में नहीं पड़ सकते कि बाबर ने जो किया वह 'शरिया' के खिलाफ था. कोर्ट ने आगे कहा वो इस्लामिक नियमों के उल्लंघन मामले में पढ़ना नही चाहते. कोर्ट ने कहा कि कि यह लोगों के पहलू के साथ समझौता करेगा जो इसे मस्जिद मानते हैं.
पीठ ने कहा कि होगा, अगर हमने बाबर द्वारा मस्जिद के रूप में भूमि के समर्पण की न्यायिक वैधता पूछी तो यह काफी समय लेगा.
फिर यह कहेगा कि इस जगह 400 सालों से मुसलमान इबादत कर रहे और हिंदू भी पिछली दो सदियों से पूजा कर रहे हैं जबकि तर्क यह है कि दालतें इस दलील की जांच करें कि क्या सम्राट का कृत्य अवैध था.
मिश्रा ने कहा कि इस तरह के विवादों को तय करने के लिए कोई धार्मिक मंच नहीं था और अदालतें इस तरह के मुद्दों पर निर्णय लेने से इंकार नहीं कर सकती हैं.इस तरह के मामलों पर फैसला हिंदू-मुस्लिम कानूनों के आधार पर फैसला किया जा सकता है.
इस पर कोर्ट ने कहा कि इस बात का फैसला कोर्ट करे कि बाबर ने जो किया वो सही था या गलत.
इस पर, वरिष्ठ वकील ने कहा, अदालत कैसे कह सकती है कि वह फैसला नहीं करेगी यह मामला 70 सालों से कोर्ट में है.
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मिश्रा ने कहा कि अगर दो समुदायों के बीच निरंतर संघर्ष होता है, तो यह तय करते समय धार्मिक पक्ष पर विचार किया जाना चाहिए कि किस पक्ष को विवादित पक्ष पर दावा करने के लिए बेहतर मामला मिला है क्योंकि दोनों धार्मिक स्थल एक भूखंड पर नहीं हो सकते हैं.
इससे पहले मिश्रा ने कहा था कि विवाद को तय करने के लिए ऐतिहासिक पुस्तकों को साक्ष्य कानून के तहत माना जा सकता है. उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालय के बहुमत के फैसले ने माना था कि मुस्लिम यह साबित करने में विफल रहे थे कि विवादित ढांचे की संरचना बाबर ने की थी.
इस पर न्यायमूर्ति एसयू खान ने इस पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के साथ सहमति जताई, लेकिन कहा कि चूंकि हिंदुओं द्वारा कोई विपरीत सबूत नहीं दिया गया था, इसलिए संभावना थी कि संरचना एक मस्जिद थी.
मिश्रा ने कहा कि उन्होंने यह बात इसलिए कही कि हाईकोर्ट के फैसले के अवुसार बाबर जमीन का मालिक नहीं था.
उन्होंने कहा कि मुस्लिमों ने दो शिलालेखों पर भरोसा किया था, जो संरचना के प्रवेश द्वार और लुगदी पर रखे गए थे, उन्होंने कहा कि वे जाली थे क्योंकि उन्हें पहली बार 1934 के बाद एक मजिस्ट्रेट द्वारा देखा गया था.
इसपर पीठ ने कहा कि इस तथ्य के बावजूद वो वक्फ वैध नहीं था,एक मस्जिद वहां मौजूद थी.
पीठ ने कहा कि दो पहलू हैं, पहला यह कि वहां ढांचा है, संरचना का निर्माण विवादित नहीं है और दूसरा जो कि आप कह रहे हैं कि यह समर्पित था या नहीं.
पीठ ने मिश्रा से पूछा कि वहां एक एक संरचना थी जो एक मस्जिद के आकार में थी .. आप इसके अस्तित्व से कैसे इनकार कर सकते हैं, और यह मस्जिद की वैधता से भी इंकार नहीं करता.
इसपर मिश्रा ने जवाब दिया कि इस ढांचे को मस्जिद के रूप में नहीं माना जा सकता. इस दौरान उन्होंने और इस्लामिक ग्रंथों और विभिन्न धार्मिक विशेषज्ञों की गवाही का उल्लेख किया, जो इस मामले पर गवाहों के तौर पर शामिल किए गए.
उन्होंने कहा कि अगर कोई मस्जिद दूसरे धर्म के लोगों की जमीन पर बनी है तो वह वैध नहीं है और 'वाकिफ' (जमीन वक्फ करना वाला) को जमीन का मालिक होना चाहिए.तभी वो जमीन को खुदा के समर्पित कर सकता है.
इसके बाद उन्होंने एक शाही फरमान का जिक्र करते हुए कहा है कि एक बार गुजरात में सती दास नामक एक हिंदू मंदिर के मालिक से औरंगजेब ने जमीन हड़प कर उस पर मस्जिद बनवा दी थी. जिसपर शाहजहां ने एक फरमान जारी कर उस जमीन को उसके मालिक को लौटाने का आदेश दिया.
उन्होंने कहा कि मंदिर को जमीन के वैध होने के बाद असली मालिक को वापस लौटाया जा सकता है. उसके बाद तब एक मंदिर और मस्जिद की विशेषताओं को प्रतिष्ठित किया और कहा कि विवादित ढांचे में मस्जिद होने के गुणों की कमी थी.
बता दें कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चार सिविल मुकदमों पर 2010 के अपने फैसले में, 2.77 एकड़ विवादित भूमि को तीन पक्षों सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लल्ला के बीच समान रूप से विभाजित किया था. इस फैसले के के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चौदह अपील दायर की गई थीं.