नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय में अयोध्या के राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद भूमि विवाद मामले की सुनवाई बुधवार हुई.
राजनीतिक रूप से संवेदनशील इस मामले में मध्यस्थता प्रक्रिया विफल रही थी. न्यायालय ने इसके बाद नियमित सुनवाई का फैसला किया है. निर्मोही अखाड़े की ओर से वरिष्ठ वकील सुशील जैन इस मामले में पक्षकार हैं. उन्होंने प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष दूसरे दिन भी दलीलें जारी रखीं.
अदालत में पेश की गई दलीलों पर बिंदुवार नजर
- न्यायाधीश चंद्रचूर्ण ने पूछाः अगर मूर्तियां 29 दिसंबर, 1949 से पहले रखी गई थीं तो अटैचमेंट के बाद वह राम चबूतरे पर कैसे आईं
- न्यायाधीश बोबडे ने पूछाः क्या मूर्तियां किसी भी प्रकार से दिनांकित हैं
- मुख्य न्यायाधिश ने परासरन से कहाः आप हमको बताएं कि क्या गलत हुआ है और न्यायिक आदेश उसे कैसे प्रभावित करता है
- राम लला विराजमान की ओर से परासरन ने कहाः भगवान राम को कागजातों से साबित करना मुश्किल है पर लाखों लोगों का विश्वास खोखला नहीं हो सकता
- न्यायालय ने पूछा: क्या दुनिया की किसी अदालत में बेथहेलम में ईसा मसीह के जन्म जैसे सवाल उठे और उन पर विचार किया गया.
- न्यायालय ने राम लला विराजमान के अधिवक्ता से पूछा: क्या किसी धार्मिक व्यक्तित्व के जन्म के बारे में किसी अदालत में सवाल उठा है
- परासरन ने कहा: वाल्मीकि रामायण में तीन स्थानों पर इस बात का उल्लेख है कि अयोध्या में भगवान राम का जन्म हुआ था.
- परासरन ने कहा: राम जन्मभूमि रामलला की मूर्ति का आदर्श बन चुकी है और यह हिन्दुओं की उपासना का माध्यम बन चुकी है.
- राम लला विराजमान के परासरन ने न्यायालय से कहा: सदियों बाद हम यह कैसे साबित कर सकते हैं कि भगवान राम का जन्म इस स्थान पर हुआ था.
- राम लला की ओर से अधिवक्ता ने न्यायालय में कहा: श्रद्धालुओं की अडिग आस्था ही साक्ष्य है कि यह जगह ही राम का जन्म स्थान है.
इससे पहले उच्चतम न्यायालय ने निर्मोही अखाड़े से जानना चाहा कि विवादित स्थल पर अपना कब्जा साबित करने के लिये क्या उसके पास कोई राजस्व रिकार्ड और मौखिक साक्ष्य हैं.
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने मूल वादकारों में शामिल निर्मोही अखाड़े की ओर से बहस कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता सुशील जैन से कहा कि चूंकि वह इस समय कब्जे के बिन्दु पर है, इसलिए हिन्दू संस्था को अपना दावा 'साबित' करना होगा.
संविधान पीठ ने कहा, 'अब, हम कब्जे के मुद्दे पर हैं. आपको अपना कब्जा साबित करना है. यदि आपके पास अपने पक्ष में कोई राजस्व रिकार्ड है तो यह आपके पक्ष में बहुत अच्छा साक्ष्य है.'
निर्मोही अखाड़ा विभिन्न आधारों पर विवादित स्थल पर देखभाल करने और मालिकाना हक का दावा कर रहा है. अखाड़े का कहना है कि यह स्थल प्राचीन काल से ही उसके कब्जे में है और उसकी हैसियत मूर्ति के 'संरक्षक' की है.
पीठ ने जैन से सवाल किया, 'राजस्व रिकार्ड के अलावा आपके पास और क्या साक्ष्य है और कैसे आपने 'अभिभावक' के अधिकार का इस्तेमाल किया.' जैन ने इस तथ्य को साबित करने का प्रयास किया कि इस स्थल का कब्जा वापस हासिल करने के लिये हिन्दू संस्था का वाद परिसीमा कानून के तहत वर्जित नहीं है.
जैन ने कहा, 'यह वाद परिसीमा कानून, 1908 के अनुच्छेद 47 के अंतर्गत आता है. यह संपत्ति दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के तहत मजिस्ट्रेट के कब्जे में थी. परिसीमा की अवधि मजिस्ट्रेट के अंतिम आदेश के बाद शुरू होती है. चूंकि मजिस्ट्रेट ने कोई अंतिम आदेश नहीं दिया है, इसलिए कार्रवाई की वजह जारी है, अत: परिसीमा द्वारा वर्जित होने का कोई सवाल नहीं उठता है.'
उन्होंने कहा कि हमारा वाद तो मंदिर की देखभाल के लिये संरक्षक के अधिकार की बहाली का है और इसमें प्रबंधन और मालिकाना अधिकार भी शामिल हैं. उन्होंने कहा कि 1950 में जब कब्जा लिया गया तो अभिभावक का अधिकार प्रभावित हुआ और इस अधिकार को बहाल करने का अनुरोध कब्जा वापस दिलाने के दायरे में आएगा.
जैन से कहा कि कब्जा वापल लेने के लिये परिसीमा की अवधि 12 साल है. हमसे कब्जा लेने की घटना 1950 में हुई. इस मामले में 1959 में वाद दायर किया गया और इस तरह से यह समय सीमा के भीतर है.
बता दें कि संविधान पीठ अयोध्या में 2.77 एकड़ विवादित भूमि तीनों पक्षकारों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला- के बीच बराबर बराबर बांटने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सितंबर, 2010 के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर सुनवाई कर रही है.
निर्मोही अखाड़े ने मंगलवार को मजबूती के साथ शीर्ष अदालत में विवादित 2.77 एकड़ जमीन पर दावेदारी पेश की. वकील सुशील जैन ने तर्क दिया कि 1934 से मुस्लिमों का उस स्थान पर प्रवेश नहीं हुआ है.
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मामले की सुनवाई कर पांच सदस्यीय संविधान पीठ में न्यायमूर्ति एसए बोबडे, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस ए नजीर भी शामिल हैं.
गौरतलब है कि पीठ ने पिछले शुक्रवार को तीन सदस्यीय मध्यस्थता समिति की रिपोर्ट पर संज्ञान लिया था. मध्यस्थता समिति की अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एफएमआई कलीफुल्ला कर रहे थे. समिति चार महीने की कोशिश के बावजूद किसी सर्वमान्य अंतिम नतीजे पर पहुंच नहीं पाई थी.
(पीटीआई इनपुट के साथ)