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'भाजपा के चाणक्य' बिहार से 'गायब,' क्या बंगाल में ममता को देंगे मात !

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Published : Nov 6, 2020, 7:28 PM IST

Updated : Nov 6, 2020, 10:29 PM IST

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को भारतीय राजनीति का चाणक्य कहा जाता है. देश में चुनाव कहीं भी हो, शाह की रणनीति को भाजपा हर जगह मूलमंत्र मान कर चलती है. लेकिन बिहार महासमर में अमित शाह का गायब रहना कई सवालों को खड़ा करता है. आगामी बंगाल चुनाव के लिए शाह तैयारियों में जुट गए हैं लेकिन उनका बिहार को इस कदर नजरअंदाज करना राजनीतिक गलियारों में सवालिया निशान छोड़ जाता है.

डिजाइन फोटो
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पटनाः सिंहासन के महासंग्राम के फतह की 2020, वादों और दावों की तारीख सहित खत्म हो गई. शनिवार को होने वाले तीसरे और अंतिम चरण के मतदान के लिए बृहस्पतिवार को चुनाव प्रचार समाप्त हो गया. राजनीति अपने लिए फायदे और नुकसान का गुणा-गणित करती रहती है और किसके होने से कहां फायदा हो सकता है, इसका मजमून भी तैयार हो जाता है. बात बिहार विधानसभा चुनाव की करें तो 2015 के लिए बिहार में भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जीतने की राजनीति की चाणक्य नीति बना रहे थे. लेकिन इस बार दिशा देने वाली भाषा देने भी बिहार नहीं आए.

अमित शाह पश्चिम बंगाल में 2021 के लिए अभी से ही तैयारी करने में जुट गए हैं. जिसका सबसे बड़ा उदाहरण बांकुड़ा में दलित परिवार के घर भोजन करना और ममता बनर्जी को विकास वाली सरकार न दे पाने का आरोप भी लगाना रहा है. दरअसल पश्चिम बंगाल की राजनीति बीजेपी के लिए टेढ़ी खीर हो गई है. दक्षिण भारत में बीजेपी ने अपने पैर तो पसार लिए लेकिन पश्चिम बंगाल में वाम दल का किला हिलाने वाली ममता बनर्जी के जवाब में बीजेपी क्या कर पाती है, इसपर सबकी निगाह रहेगी.

नीतीश को शाह से मंच साझा करने में गुरेज

बिहार की राजनीति में अमित शाह का ना आना कई मुद्दों और सवालों को खड़ा कर गया. दरअसल 2015 में नीतीश कुमार से विरोध की राजनीति के लिए सियासत में मुद्दा खड़ी कर रही बीजेपी की हर चाल को अमित शाह हमेशा ही दिशा देते थे. लेकिन इस बार की सियासत में वह पूरे तौर पर गायब रहे. इस बात को कहता तो कोई नहीं है, लेकिन राजनीतिक हकीकत का एक सच यह भी है कि नीतीश कुमार यह चाहते ही नहीं थे कि अमित शाह बिहार में चुनाव प्रचार के लिए आएं. दरअसल अमित शाह की जिस छवि से नीतीश सबसे ज्यादा नाराज रहते हैं, उसे चुनाव में वह मतदाताओं के ऊपर नहीं जाने देना चाह रहे थे. इसकी सबसे बड़ी बानगी यह रही कि नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के साथ तो मंच साझा किया, लेकिन अमित शाह के साथ मंच साझा करने से गुरेज करते रहे.

'बिहार के हर माननीय हमारे पूज्यनीय'

नीतीश कुमार ने बिहार में महादलित की सियासत को एक जगह दी थी. 2015 में 24 जनवरी को कर्पूरी की जयंती मनाने पहुंचे अमित शाह ने कहा था कि बिहार के हर माननीय हमारे पूज्यनीय हैं. मामला साफ था कि पिछड़े और दलित पीएम के नाम पर दलितों से वोट की सहानुभूति बटोरने का काम जो बिहार में अमित शाह ने 2015 में किया था, उसका कोई बड़ा फायदा बीजेपी को नहीं मिला. नीतीश यह चाहते नहीं थे कि जिस मुद्दे पर अमित शाह फेल हो चुके हैं, उसे फिर से मुद्दे में लाया जाए. इसलिए अमित शाह पूरे चुनाव से ही बाहर रह गए. यह अलग बात है कि चिराग पासवान को मनाने का सबसे ज्यादा काम अगर किसी ने किया था तो वो हमेशा से अमित शाह ही थे. एक नहीं कम से कम 3 बार अमित शाह चिराग पासवान के घर गए थे और बिहार में लोजपा एनडीए का हिस्सा रहे, इसके लिए बैठक भी की थी, लेकिन बात नहीं बन पाई. अंदर खाने में चर्चा यह भी है और जदयू के कई नेता आरोपों में भी कह चुके हैं कि चिराग पासवान का जो राजनीतिक तेवर बिहार की राजनीति के लिए है, उसका संरक्षण अमित शाह के घर से ही आता है.

'सियासत के चाणक्य'

तेजस्वी से रोजगार के मुद्दे पर लड़ाई, नीतीश असंभव जैसा चिराग पासवान का दावा और अब नीतीश कुमार द्वारा खुद ही कह देना कि वह आगे की राजनीति नहीं करेंगे, यह उनका अंतिम चुनाव है, कई सवालों को खड़ा कर गया. दरअसल अमित शाह बंद कमरे की सियासत के ऐसे चाणक्य हैं जिनकी रणनीति जमीन पर उतरती है, तो सियासी बदलाव का कारण बन जाती है. बिहार में मुद्दा चर्चा में तो नहीं है लेकिन अमित शाह को लेकर इस बात की एक राजनीति जरूर जगह पकड़ रही है कि आखिर वह बिहार आए क्यों नहीं?

दलित घर में भोजन की राजनीति

दलित भोज की सियासत पिछले कुछ वर्षों से बीजेपी करते आ रही है. उसके कई बड़े नेताओं का दलितों के घर भोजन करना आम बात हो गयी है. लेकिन बिहार में नीतीश कुमार द्वारा जिस सियासी भोज को भाजपा के आगे से खींचा गया था, संभवत: उसका पूरा उत्तर 2020 में बीजेपी किस्त में देना चाहती है. जनता ने इस बात को लेकर चर्चा भी शुरू की है कि 2010 के जनमत को नीतीश कुमार ने 15 तक माना नहीं और 15 में जिस गठबंधन के साथ रहे उसे 20 तक निभाया नहीं. तो ऐसे में बीजेपी अगर कोई भी सियासी दांव खेलती है तो यह बहुत अलग की राजनीति नहीं होगी और चिराग जिस तरीके से अपने सियासी तेवर अख्तियार किए हुए हैं. उससे एक बात तो साफ है कि अमित शाह की जिस किलेबंदी में चिराग अपने आप को सुरक्षित समझते हैं. वह कुनबा बिहार में नीतीश के खिलाफ फल-फूल रहा है.

बंगाल की सियासत कर रहे शाह

अमित शाह पश्चिम बंगाल की रणनीति को तैयार कर रहे हैं. बंगाल फतह को लेकर हर तरीके की तैयारी को मुकम्मल जगह दी जा रही है. बंगाल और बिहार की सियासत में समानता सिर्फ यही है कि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, लालू यादव एक साथ एक मंच पर दिखाई भी पड़े हैं. ममता बनर्जी ने तो लालू के समर्थन में प्रचार भी किया था. रघुवंश प्रसाद सिंह के साथ मंच भी साझा किया था. भले ही फायदा तृणमूल कांग्रेस को ज्यादा न मिला हो लेकिन उनकी उपस्थिति ने सियासत में चर्चा जरूर की थी. बंगाल और बिहार का विभाजन बहुत पहले हो चुका था लेकिन सियासी जुड़ाव तो लगातार रहा है. अमित शाह बंगाल की सियासत कर रहे हैं, बिहार पर इसका कोई सीधा असर तो नहीं पड़ेगा. लेकिन राजनीति सीधी होती भी नहीं है. बिहार की राजनीति के इस दौर से अमित शाह प्रत्यक्ष रुप से तो बाहर रहे हैं. अब देखना यह है कि 20 की सियासत में नीतीश किस तरीके से शाह के बगैर जीत का सेहरा अपने सिर पर बांधते हैं.

पटनाः सिंहासन के महासंग्राम के फतह की 2020, वादों और दावों की तारीख सहित खत्म हो गई. शनिवार को होने वाले तीसरे और अंतिम चरण के मतदान के लिए बृहस्पतिवार को चुनाव प्रचार समाप्त हो गया. राजनीति अपने लिए फायदे और नुकसान का गुणा-गणित करती रहती है और किसके होने से कहां फायदा हो सकता है, इसका मजमून भी तैयार हो जाता है. बात बिहार विधानसभा चुनाव की करें तो 2015 के लिए बिहार में भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जीतने की राजनीति की चाणक्य नीति बना रहे थे. लेकिन इस बार दिशा देने वाली भाषा देने भी बिहार नहीं आए.

अमित शाह पश्चिम बंगाल में 2021 के लिए अभी से ही तैयारी करने में जुट गए हैं. जिसका सबसे बड़ा उदाहरण बांकुड़ा में दलित परिवार के घर भोजन करना और ममता बनर्जी को विकास वाली सरकार न दे पाने का आरोप भी लगाना रहा है. दरअसल पश्चिम बंगाल की राजनीति बीजेपी के लिए टेढ़ी खीर हो गई है. दक्षिण भारत में बीजेपी ने अपने पैर तो पसार लिए लेकिन पश्चिम बंगाल में वाम दल का किला हिलाने वाली ममता बनर्जी के जवाब में बीजेपी क्या कर पाती है, इसपर सबकी निगाह रहेगी.

नीतीश को शाह से मंच साझा करने में गुरेज

बिहार की राजनीति में अमित शाह का ना आना कई मुद्दों और सवालों को खड़ा कर गया. दरअसल 2015 में नीतीश कुमार से विरोध की राजनीति के लिए सियासत में मुद्दा खड़ी कर रही बीजेपी की हर चाल को अमित शाह हमेशा ही दिशा देते थे. लेकिन इस बार की सियासत में वह पूरे तौर पर गायब रहे. इस बात को कहता तो कोई नहीं है, लेकिन राजनीतिक हकीकत का एक सच यह भी है कि नीतीश कुमार यह चाहते ही नहीं थे कि अमित शाह बिहार में चुनाव प्रचार के लिए आएं. दरअसल अमित शाह की जिस छवि से नीतीश सबसे ज्यादा नाराज रहते हैं, उसे चुनाव में वह मतदाताओं के ऊपर नहीं जाने देना चाह रहे थे. इसकी सबसे बड़ी बानगी यह रही कि नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के साथ तो मंच साझा किया, लेकिन अमित शाह के साथ मंच साझा करने से गुरेज करते रहे.

'बिहार के हर माननीय हमारे पूज्यनीय'

नीतीश कुमार ने बिहार में महादलित की सियासत को एक जगह दी थी. 2015 में 24 जनवरी को कर्पूरी की जयंती मनाने पहुंचे अमित शाह ने कहा था कि बिहार के हर माननीय हमारे पूज्यनीय हैं. मामला साफ था कि पिछड़े और दलित पीएम के नाम पर दलितों से वोट की सहानुभूति बटोरने का काम जो बिहार में अमित शाह ने 2015 में किया था, उसका कोई बड़ा फायदा बीजेपी को नहीं मिला. नीतीश यह चाहते नहीं थे कि जिस मुद्दे पर अमित शाह फेल हो चुके हैं, उसे फिर से मुद्दे में लाया जाए. इसलिए अमित शाह पूरे चुनाव से ही बाहर रह गए. यह अलग बात है कि चिराग पासवान को मनाने का सबसे ज्यादा काम अगर किसी ने किया था तो वो हमेशा से अमित शाह ही थे. एक नहीं कम से कम 3 बार अमित शाह चिराग पासवान के घर गए थे और बिहार में लोजपा एनडीए का हिस्सा रहे, इसके लिए बैठक भी की थी, लेकिन बात नहीं बन पाई. अंदर खाने में चर्चा यह भी है और जदयू के कई नेता आरोपों में भी कह चुके हैं कि चिराग पासवान का जो राजनीतिक तेवर बिहार की राजनीति के लिए है, उसका संरक्षण अमित शाह के घर से ही आता है.

'सियासत के चाणक्य'

तेजस्वी से रोजगार के मुद्दे पर लड़ाई, नीतीश असंभव जैसा चिराग पासवान का दावा और अब नीतीश कुमार द्वारा खुद ही कह देना कि वह आगे की राजनीति नहीं करेंगे, यह उनका अंतिम चुनाव है, कई सवालों को खड़ा कर गया. दरअसल अमित शाह बंद कमरे की सियासत के ऐसे चाणक्य हैं जिनकी रणनीति जमीन पर उतरती है, तो सियासी बदलाव का कारण बन जाती है. बिहार में मुद्दा चर्चा में तो नहीं है लेकिन अमित शाह को लेकर इस बात की एक राजनीति जरूर जगह पकड़ रही है कि आखिर वह बिहार आए क्यों नहीं?

दलित घर में भोजन की राजनीति

दलित भोज की सियासत पिछले कुछ वर्षों से बीजेपी करते आ रही है. उसके कई बड़े नेताओं का दलितों के घर भोजन करना आम बात हो गयी है. लेकिन बिहार में नीतीश कुमार द्वारा जिस सियासी भोज को भाजपा के आगे से खींचा गया था, संभवत: उसका पूरा उत्तर 2020 में बीजेपी किस्त में देना चाहती है. जनता ने इस बात को लेकर चर्चा भी शुरू की है कि 2010 के जनमत को नीतीश कुमार ने 15 तक माना नहीं और 15 में जिस गठबंधन के साथ रहे उसे 20 तक निभाया नहीं. तो ऐसे में बीजेपी अगर कोई भी सियासी दांव खेलती है तो यह बहुत अलग की राजनीति नहीं होगी और चिराग जिस तरीके से अपने सियासी तेवर अख्तियार किए हुए हैं. उससे एक बात तो साफ है कि अमित शाह की जिस किलेबंदी में चिराग अपने आप को सुरक्षित समझते हैं. वह कुनबा बिहार में नीतीश के खिलाफ फल-फूल रहा है.

बंगाल की सियासत कर रहे शाह

अमित शाह पश्चिम बंगाल की रणनीति को तैयार कर रहे हैं. बंगाल फतह को लेकर हर तरीके की तैयारी को मुकम्मल जगह दी जा रही है. बंगाल और बिहार की सियासत में समानता सिर्फ यही है कि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, लालू यादव एक साथ एक मंच पर दिखाई भी पड़े हैं. ममता बनर्जी ने तो लालू के समर्थन में प्रचार भी किया था. रघुवंश प्रसाद सिंह के साथ मंच भी साझा किया था. भले ही फायदा तृणमूल कांग्रेस को ज्यादा न मिला हो लेकिन उनकी उपस्थिति ने सियासत में चर्चा जरूर की थी. बंगाल और बिहार का विभाजन बहुत पहले हो चुका था लेकिन सियासी जुड़ाव तो लगातार रहा है. अमित शाह बंगाल की सियासत कर रहे हैं, बिहार पर इसका कोई सीधा असर तो नहीं पड़ेगा. लेकिन राजनीति सीधी होती भी नहीं है. बिहार की राजनीति के इस दौर से अमित शाह प्रत्यक्ष रुप से तो बाहर रहे हैं. अब देखना यह है कि 20 की सियासत में नीतीश किस तरीके से शाह के बगैर जीत का सेहरा अपने सिर पर बांधते हैं.

Last Updated : Nov 6, 2020, 10:29 PM IST
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