नई दिल्ली : हालांकि, अशोक गहलोत, मल्लिकार्जुन खड़गे, गुलाम नबी आजाद, मुकुल वासनिक और यहां तक कि सुशील कुमार शिंदे जैसे कई कांग्रेसी दिग्गजों के नाम पार्टी के गैर-गांधी अध्यक्ष के रूप में देर से चल रहे हैं, उनकी सफलता की संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती.
इस प्रयोग के सफल होने में दिक्कतों के कई वाजिब कारण हो सकते हैं, लेकिन अगर ऐसा हो भी गया तो वह कितना प्रभावी हो पाएगा.
एक गैर गांधी नेता को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का विचार नया नहीं है. पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव और उनके बाद सीताराम केसरी भी 1998 में सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनाने से पहले इस पद पर रह चुके हैं.
2019 लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल ने दिया था इस्तीफा
पिछले साल राहुल गांधी द्वारा 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों की जिम्मेदारी लेने पर कांग्रेस प्रमुख के रूप में इस्तीफा देने के बाद गहलोत, शिंदे, वासनिक और खड़गे जैसे दिग्गजों के नाम फिर से सामने आए थे. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों ने स्पष्ट किया कि जब तक राहुल को अपना इस्तीफा वापस लेने के लिए राजी नहीं किया जाता, तब तक इन दिग्गजों के नामों पर चर्चा की गई थी.
हालांकि इन सभी दिग्गजों का पार्टी प्रणाली में महत्वपूर्ण स्थान था और नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा समान रूप से माना जाता था, लेकिन पार्टी प्रबंधक ने जब विभिन्न राज्य इकाइयों से प्रतिक्रिया प्राप्त करने की कोशिश की तो उनके नामों पर कोई अखिल भारतीय सहमति नहीं मिली. परिणाम मिश्रित मिले और पार्टी के प्रबंधकों को एक निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद नहीं मिली, क्योंकि राहुल ने गैर-गांधी को पार्टी प्रमुख बनाने पर जोर दिया था.
संयोग से या सुनियोजित कारणों से विकल्प फिर सोनिया गांधी ही बनीं जो 19 साल तक कांग्रेस को चलाने के बाद पार्टी के अंतरिम प्रमुख के रूप में वापस आने के लिए सहमत इस शर्त के साथ हुईं कि एक साल के भीतर एक पूर्णकालिक पार्टी प्रमुख को चुन लिया जाएगा. अगले 12 महीनों में, पार्टी पूर्णकालिक अध्यक्ष बनाने के मामले स्पष्ट न हो सकी लेकिन, कांग्रेस के हलकों में राहुल की वापसी के बारे में सहमति बननी शुरू हो गई थी.
सोनिया के समर्थन में उठी आवाज
चूंकि राहुल अपनी मां से बागडोर संभालने से हिचकिचाते थे, इसलिए पार्टी की ओर से सोनिया के समर्थन में कुछ आवाजें भी उठीं, जिनमें कहा गया कि स्थिति की मांग है कि वह अंतरिम प्रमुख बनी रहें. पिछले एक साल के दौरान, पार्टी के नेताओं ने असहाय रूप से भाजपा के खेल को देखा कि कैसे उसने युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में शामिल कर लिया और कांग्रेस के विधायकों पर शिकंजा कस कर मार्च 2020 में मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार को पटखनी दे दी.
कई प्रकार की चेतावनियों के बावजूद राजस्थान में मध्य प्रदेश की तरह ऑपरेशन का दोहराव संभव था, पार्टी प्रबंधकों ने तब तक इंतजार किया जब तक अशोक गहलोत की सरकार को गिराने की योजना सामने न आई और जुलाई में कांग्रेस पर प्रहार न हुआ.
इन दो घटनाओं ने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस एक आलसी विपक्षी पार्टी हो गई है और कोई स्पष्ट फैसला लेने के काबिल नहीं रही. इस बात की प्रतीति ने कि पार्टी गिरावट की ओर बढ़ रही है पार्टी के 23 वरिष्ठ नेताओं में घबराहट फ़ैल गई और उन्होंने सोनिया को पत्र लिख कर एक पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्ष की नियुक्ति और पार्टी संगठन में आमूल चूल परिवर्तन लाने की मांग उठायी ताकि पार्टी को संभाला जा सके.
कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने 24 अगस्त को एक तरह से असंतुष्टों की आशाओं पर पानी फेर दिया जब उसने गांधी परिवार के पास पूरी सत्ता है यह बात दोहराई. इस पृष्ठभूमि में, एक गैर-गांधी पार्टी प्रमुख बनाने के बारे में कोई भी चर्चा तब तक निरर्थक होगी जब तक कि विद्रोहियों में पार्टी के विभाजन लाने के लिए पर्याप्त साहस न हो. लेकिन इस बात की कोई संभावना नहीं दिख रही.
गैर-गांधी को पार्टी प्रमुख के रूप में रखने और उस व्यक्ति को अपनी क्षमता साबित करने देने की बात तर्कसंगत भले ही लगती हो, लेकिन इसे व्यवहार लागू करना मुश्किल है.
बड़े नेताओं को एक साथ रखना आसान नहीं
मुख्य बिंदु यह है कि कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए एक ही नाम पर वरिष्ठों की भूतकाल में सहमति नहीं बन पाई थी जब ऐसा अवसर उन्हें मिला था. इस तथ्य को देखते हुए, एक आज़ाद, खड़गे, शिंदे या सिब्बल या वासनिक के लिए सबको एक साथ रखना आसान नहीं होगा. इसके विपरीत अपनी कमजोरियों के बावजूद गांधी परिवार के सदस्य कांग्रेस को एकजूट होने की प्रतीति करने में मदद करता है उस समय जब कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में एक आक्रामक भाजपा का सामना कर रही हो.
एक अन्य महत्वपूर्ण कारक यह है कि दशकों से कांग्रेस संगठन को इस तरह से संरचित किया गया है कि एक गैर-गांधी पार्टी प्रमुख, अगर गांधी परिवार द्वारा समर्थित नहीं है, प्रभावी ढंग से काम करने में सक्षम नहीं हो सकता है. यह इस लिए होगा क्योंकि गांधी परिवार पार्टी में दो शक्ति केंद्रों के परिणामस्वरूप कार्यकर्ताओं और नेताओं पर अपना प्रभाव बनाए रखेंगे.
इस संदर्भ में यह बताना भी महत्वपूर्ण है कि आमतौर पर पीएम मोदी या किसी भी वरिष्ठ भाजपा पदाधिकारी के राजनीतिक हमले का पहला निशाना गांधी परिवार के सदस्य होते हैं न कि कांग्रेस के कोई अन्य वरिष्ठ नेता.
हालांकि यह गांधी परिवार को पार्टी पर शासन करने के लिए आजीवन समर्थन नहीं देता है, लेकिन पार्टी के कार्यों के तरीके में आमूल-चूल परिवर्तन करने के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी देता है और किसी भी दर्दनाक सर्जरी के लिए उत्प्रेरक हो सकता है जो कांग्रेस पार्टी को लड़ने के लिए फिट बनाने के लिए शायद जरूरी हो.
आपदा से निपटने में जितनी जल्दी की जाए उतना बेहतर होगा. इसमें विलम्ब करने से असंतुष्टों की जमात को फिर से गोलबंद होने में मदद ही मिलेगी, क्योंकि उनमें वे लोग भी शामिल हो सकते हैं जो अब तक शांत पड़े हैं और इससे नेतृत्व फिर से संकट में गिर सकता है.
गांधी द्वारा 23 हस्ताक्षरकर्ताओं में से एक आज़ाद को उचित कार्यवाही का आश्वासन देना एक अच्छी निशानी हो सकती है, लेकिन उतना काफी नहीं उनसे इससे ज्यादा की अपेक्षा है.
(अमित अग्निहोत्री)