ETV Bharat / bharat

खेतों से गायब देहरादून का विश्व प्रसिद्ध बासमती चावल, अफगानिस्तान से रहा है कनेक्शन

author img

By

Published : Sep 14, 2021, 2:29 AM IST

बासमती चावल की खेती के लिए उत्तराखंड का देहरादून हमेशा से ही जाना जाता रहा है. देहरादून को जानने वालों के जेहन में यहां पैदा होने वाले बासमती चावल की खेती हमेशा ही रही है. इसकी मिठास, महक और स्वाद के कारण इसे दुनियाभर में पसंद किया जाता है. मगर अब बदलते दौर के साथ देहरादून में बासमती चावल की खेती का प्रचलन कम हो गया है.

अफगानिस्तान से रहा है कनेक्शन
अफगानिस्तान से रहा है कनेक्शन

देहरादून: बासमती चावल का जिक्र हो और उसमें देहरादून का नाम न आए ये कभी नहीं हो सकता. देहरादून के बासमती चावल की देश ही नहीं बल्कि दुनिया में भी काफी डिमांड है. यहां का बासमती चावल अपनी गुणवत्ता, मिठास, महक और स्वाद के कारण दुनियाभर की पसंद बना. एक दौर था जब देहरादून में बड़े पैमाने पर बासमती चावल की खेती की जाती, मगर आज इसका उत्पादन धीरे-धीरे कम हो रहा है. कंक्रीट के जगलों में तब्दील होता देहरादून और बासमती के उत्पादन में आने वाली लागत इसका प्रमुख कारण हैं.

देहरादून की बासमती का अफगान कनेक्शन: देहरादून शहर आज से नहीं बल्कि 1879 के आसपास से ही अपने खुशबूदार T-3 बासमती चावल के लिए देश के साथ ही विदेशों में भी अपनी अलग पहचान रखता है. बहुत कम लोग शायद जानते हैं कि देहरादून की खुशबूदार बासमती का अफगान कनेक्शन भी है. देहरादून की विश्व प्रसिद्ध बासमती का अफगान कनेक्शन के बारे में वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि ये आंग्ल-अफगान युद्ध (1839-1842) में जब अफगानिस्तान के दुर्रानी वंश के शाह शूजा को गद्दी पर बैठा कर बरक्जाई राजवंश के संस्थापक दोस्त मोहम्मद खान को पदच्युत किया गया, तब दोस्त मोहम्मद खान को निर्वासन में सपरिवार मसूरी में रखा गया.

खेतों से गायब देहरादून का विश्व प्रसिद्ध बासमती.

दोस्त मोहम्मद खान के कर्मचारी लाये थे बासमती का बीज: दोस्त मोहम्मद बिरयानी का बड़ा शौकीन था. इसलिए उसके कर्मचारी अपने साथ बांस के खोखले हिस्से में मिट्टी के साथ वहां के सबसे स्वादिष्ट चावल के बीज भी लेकर आए, जो बासमती चावल थे. इसके बाद दोस्त खान 1843 में वापस अपने वतन लौट गए. जिसके बाद वे दोबारा काबुल की गद्दी पर बैठ गए. साल 1863 में उनकी मौत के बाद उनका बेटा शेर अली गद्दी पर बैठा.

साल 1879 में शेर अली की भी मौत हो गई. जिसके बाद उनका बेटा याकूब खान अफगानिस्तान का शहंशाह बना. 1879 में काबुल में ब्रिटिश दूत और उनके अंग रक्षकों के मारे जाने के बाद अंग्रेजों ने दोबारा काबुल पर हमला कर दिया. याकूब को बंदी बनाकर मसूरी ले आए. उसके बाद याकूब देहरादून के ईसी रोड क्षेत्र में अपने लाव-लश्कर के साथ बस गए. याकूब के देहरादून में बसने के बाद से ही देहरादून में बासमती चावल उगाए जाने लगे.

देहरादून के कई इलाकों में होती थी T-3 चावल की बंपर खेती: उस दौर में ईसी रोड नहीं हुआ करती थी. इस पूरे इलाके में पानी की लहरें थीं. इस वजह से ईसी रोड के आस पास याकूब के कर्मचारियों ने बासमती की काफी अच्छी खासी खेती की. 1923 में याकूब का भी देहांत हो गया. जिसके बाद उनके कर्मचारियों ने देहरादून के स्थानीय किसानों को खुशबूदार बासमती के बीज बांट दिए. जिसके बाद से ही देहरादून जिले के डोईवाला, विकासनगर, सहसपुर और रायपुर क्षेत्र में T-3 बासमती चावल की खेती शुरू हो गई.

राज्य गठन के बाद कम हुआ उत्पादन: 1970 से लेकर 1990 के बीच देहरादून की बासमती देहरादून के अलावा बाहरी देशों में निर्यात की जाती थी. राज्य गठन के बाद जब से देहरादून शहर को प्रदेश की राजधानी का दर्जा प्राप्त हुआ, तब से ही शहर में खेत खलिहान कम होने लगे. उनके स्थान पर कंन्क्रीट के जंगल खड़े होने लगे. इस वजह से साल दर साल खुशबूदार बासमती की खेती देहरादून जिले में कम होती चली गई.

बता दें पछवादून क्षेत्र के विकासनगर, सहसपुर, डोईवाला और रायपुर क्षेत्र में सबसे अधिक T-3 बासमती हुआ करती थी. एक दौर में 2200 एकड़ में देहरादूनी बासमती की खेती होती थी, लेकिन, कालांतर में खेतों की जगह कंक्रीट के जंगल उगते चले गए. नतीजा, धीरे-धीरे देहरादूनी बासमती की खेती सिमटने लगी.

बीज प्रमाणीकरण कंपनियों की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1981 तक देहरादून जिले में करीब छह हजार एकड़ में देहरादूनी बासमती की पैदावार होती थी. वर्ष 1990 में घटकर यह 200 एकड़ रह गई. वर्ष 2010 आते-आते यह केवल 55 एकड़ और वर्ष 2019 में मात्र 11 एकड़ के आसपास सिमट गई. अगर साल 2017 से लेकर 2020 तक के आंकड़ों पर गौर करें तो बासमती की पैदावार के क्षेत्रफल में भारी उतार-चढ़ाव आया है.

साल बासमती पैदावार( 1000 हैक्टेयर )
2017- 18 2197
2018-19 1943
2019-202016

बासमती की खेती करने से बच रहे किसान: ईटीवी भारत से बात करते हुए कृषि एवं भूमि संरक्षण अधिकारी अभिलाषा भट्ट ने बताया कि विभाग लगातार किसानों को बासमती की खेती के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. मगर बीते कुछ सालों में जिस तरह मौसम में बदलाव हुआ है उसकी वजह से बासमती की खेती को काफी ज्यादा नुकसान हुआ है. इस वजह से ही अब किसान बासमती की खेती करने से बच रहे हैं. इसके अलावा कृषि भूमि की भी शहर में काफी कमी हो गई है. इस वजह से बासमती की पैदावार बीते कुछ सालों में काफी कम हुई है.

वे कहती हैं कि कृषि विभाग इस प्रयास में है कि किसानों को कुछ हाइब्रिड बासमती चावल के बीच उपलब्ध कराए जाएं, जिससे कम भूमि में ही बासमती की ज्यादा पैदावार हो सके.

मौसम में बदलाव के कारण किसानों ने बदला रुख: वहीं, बीते कई सालों से बासमती की खेती कर रहे देहरादून के अजय भट्ट बताते हैं कि 50 साल पहले से उनके खेतों में बासमती उगाई जा रही है. पहले एक किलो बासमती की कीमत 15 रुपए प्रति किलो के आसपास हुआ करती थी. पहले उनके पिता बासमती उगाते थे. अब वे खुद इस काम को कर रहे हैं.

वे कहते हैं जिस तरह मौसम में बदलाव हुआ है उसकी वजह से बासमती में अब वह पहले वाली बात नहीं रही. मौसम के कारण बासमती के आकार के साथ ही खुशबू में भी कमी आई है. ऐसे में बाजार में मिलने वाले अन्य खूबसूरत दिखने वाले हाइब्रिड वैरायटी के बासमती चावल को खरीदना ही लोग ज्यादा पसंद कर रहे हैं. जिसकी वजह से ही बासमती उगाना अब किसानों के लिए फायदे का सौदा नहीं रह गया है.

देहरादून की बासमती के नाम पर बिकते हैं दूसरे चावल: देहरादून के सबसे पुराने थोक बाजार (आढ़त बाजार ) के स्थानीय व्यापारी प्रमोद गोयल बताते हैं कि आज देहरादून के थोक बाजार में कहीं भी देहरादून का प्रसिद्ध बासमती चावल नहीं मिलता है.

बाजार में भले ही देहरादून बासमती के नाम पर बड़े-बड़े पैकेट्स 180- 200 प्रति किलो की दर पर बेचे जाते हैं, लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि यह वास्तव में देहरादून का बासमती चावल है ही नहीं. ये हाइब्रिड बासमती चावल पड़ोसी राज्य हरियाणा, पंजाब से देहरादून पहुंचता है. इसे देहरादून की बासमती के नाम पर बेचा जाता है.

अन्य प्रदेशों में बदल जाते हैं इसके गुण: देहरादूनी बासमती की सबसे मुख्य विशेषता यह है कि देश-प्रदेश के दूसरे हिस्सों में इसकी उपज में यहां जैसी मिठास, महक और स्वाद पैदा नहीं हो पाता. परीक्षण के तौर पर देहरादूनी बासमती को देश के दूसरे हिस्सों में बोया भी गया, लेकिन सार्थक नतीजे सामने नहीं आए.

पढ़ें- बासमती चावल के लिए भारत-पाकिस्तान में भिड़ंत

देहरादून: बासमती चावल का जिक्र हो और उसमें देहरादून का नाम न आए ये कभी नहीं हो सकता. देहरादून के बासमती चावल की देश ही नहीं बल्कि दुनिया में भी काफी डिमांड है. यहां का बासमती चावल अपनी गुणवत्ता, मिठास, महक और स्वाद के कारण दुनियाभर की पसंद बना. एक दौर था जब देहरादून में बड़े पैमाने पर बासमती चावल की खेती की जाती, मगर आज इसका उत्पादन धीरे-धीरे कम हो रहा है. कंक्रीट के जगलों में तब्दील होता देहरादून और बासमती के उत्पादन में आने वाली लागत इसका प्रमुख कारण हैं.

देहरादून की बासमती का अफगान कनेक्शन: देहरादून शहर आज से नहीं बल्कि 1879 के आसपास से ही अपने खुशबूदार T-3 बासमती चावल के लिए देश के साथ ही विदेशों में भी अपनी अलग पहचान रखता है. बहुत कम लोग शायद जानते हैं कि देहरादून की खुशबूदार बासमती का अफगान कनेक्शन भी है. देहरादून की विश्व प्रसिद्ध बासमती का अफगान कनेक्शन के बारे में वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि ये आंग्ल-अफगान युद्ध (1839-1842) में जब अफगानिस्तान के दुर्रानी वंश के शाह शूजा को गद्दी पर बैठा कर बरक्जाई राजवंश के संस्थापक दोस्त मोहम्मद खान को पदच्युत किया गया, तब दोस्त मोहम्मद खान को निर्वासन में सपरिवार मसूरी में रखा गया.

खेतों से गायब देहरादून का विश्व प्रसिद्ध बासमती.

दोस्त मोहम्मद खान के कर्मचारी लाये थे बासमती का बीज: दोस्त मोहम्मद बिरयानी का बड़ा शौकीन था. इसलिए उसके कर्मचारी अपने साथ बांस के खोखले हिस्से में मिट्टी के साथ वहां के सबसे स्वादिष्ट चावल के बीज भी लेकर आए, जो बासमती चावल थे. इसके बाद दोस्त खान 1843 में वापस अपने वतन लौट गए. जिसके बाद वे दोबारा काबुल की गद्दी पर बैठ गए. साल 1863 में उनकी मौत के बाद उनका बेटा शेर अली गद्दी पर बैठा.

साल 1879 में शेर अली की भी मौत हो गई. जिसके बाद उनका बेटा याकूब खान अफगानिस्तान का शहंशाह बना. 1879 में काबुल में ब्रिटिश दूत और उनके अंग रक्षकों के मारे जाने के बाद अंग्रेजों ने दोबारा काबुल पर हमला कर दिया. याकूब को बंदी बनाकर मसूरी ले आए. उसके बाद याकूब देहरादून के ईसी रोड क्षेत्र में अपने लाव-लश्कर के साथ बस गए. याकूब के देहरादून में बसने के बाद से ही देहरादून में बासमती चावल उगाए जाने लगे.

देहरादून के कई इलाकों में होती थी T-3 चावल की बंपर खेती: उस दौर में ईसी रोड नहीं हुआ करती थी. इस पूरे इलाके में पानी की लहरें थीं. इस वजह से ईसी रोड के आस पास याकूब के कर्मचारियों ने बासमती की काफी अच्छी खासी खेती की. 1923 में याकूब का भी देहांत हो गया. जिसके बाद उनके कर्मचारियों ने देहरादून के स्थानीय किसानों को खुशबूदार बासमती के बीज बांट दिए. जिसके बाद से ही देहरादून जिले के डोईवाला, विकासनगर, सहसपुर और रायपुर क्षेत्र में T-3 बासमती चावल की खेती शुरू हो गई.

राज्य गठन के बाद कम हुआ उत्पादन: 1970 से लेकर 1990 के बीच देहरादून की बासमती देहरादून के अलावा बाहरी देशों में निर्यात की जाती थी. राज्य गठन के बाद जब से देहरादून शहर को प्रदेश की राजधानी का दर्जा प्राप्त हुआ, तब से ही शहर में खेत खलिहान कम होने लगे. उनके स्थान पर कंन्क्रीट के जंगल खड़े होने लगे. इस वजह से साल दर साल खुशबूदार बासमती की खेती देहरादून जिले में कम होती चली गई.

बता दें पछवादून क्षेत्र के विकासनगर, सहसपुर, डोईवाला और रायपुर क्षेत्र में सबसे अधिक T-3 बासमती हुआ करती थी. एक दौर में 2200 एकड़ में देहरादूनी बासमती की खेती होती थी, लेकिन, कालांतर में खेतों की जगह कंक्रीट के जंगल उगते चले गए. नतीजा, धीरे-धीरे देहरादूनी बासमती की खेती सिमटने लगी.

बीज प्रमाणीकरण कंपनियों की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1981 तक देहरादून जिले में करीब छह हजार एकड़ में देहरादूनी बासमती की पैदावार होती थी. वर्ष 1990 में घटकर यह 200 एकड़ रह गई. वर्ष 2010 आते-आते यह केवल 55 एकड़ और वर्ष 2019 में मात्र 11 एकड़ के आसपास सिमट गई. अगर साल 2017 से लेकर 2020 तक के आंकड़ों पर गौर करें तो बासमती की पैदावार के क्षेत्रफल में भारी उतार-चढ़ाव आया है.

साल बासमती पैदावार( 1000 हैक्टेयर )
2017- 18 2197
2018-19 1943
2019-202016

बासमती की खेती करने से बच रहे किसान: ईटीवी भारत से बात करते हुए कृषि एवं भूमि संरक्षण अधिकारी अभिलाषा भट्ट ने बताया कि विभाग लगातार किसानों को बासमती की खेती के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. मगर बीते कुछ सालों में जिस तरह मौसम में बदलाव हुआ है उसकी वजह से बासमती की खेती को काफी ज्यादा नुकसान हुआ है. इस वजह से ही अब किसान बासमती की खेती करने से बच रहे हैं. इसके अलावा कृषि भूमि की भी शहर में काफी कमी हो गई है. इस वजह से बासमती की पैदावार बीते कुछ सालों में काफी कम हुई है.

वे कहती हैं कि कृषि विभाग इस प्रयास में है कि किसानों को कुछ हाइब्रिड बासमती चावल के बीच उपलब्ध कराए जाएं, जिससे कम भूमि में ही बासमती की ज्यादा पैदावार हो सके.

मौसम में बदलाव के कारण किसानों ने बदला रुख: वहीं, बीते कई सालों से बासमती की खेती कर रहे देहरादून के अजय भट्ट बताते हैं कि 50 साल पहले से उनके खेतों में बासमती उगाई जा रही है. पहले एक किलो बासमती की कीमत 15 रुपए प्रति किलो के आसपास हुआ करती थी. पहले उनके पिता बासमती उगाते थे. अब वे खुद इस काम को कर रहे हैं.

वे कहते हैं जिस तरह मौसम में बदलाव हुआ है उसकी वजह से बासमती में अब वह पहले वाली बात नहीं रही. मौसम के कारण बासमती के आकार के साथ ही खुशबू में भी कमी आई है. ऐसे में बाजार में मिलने वाले अन्य खूबसूरत दिखने वाले हाइब्रिड वैरायटी के बासमती चावल को खरीदना ही लोग ज्यादा पसंद कर रहे हैं. जिसकी वजह से ही बासमती उगाना अब किसानों के लिए फायदे का सौदा नहीं रह गया है.

देहरादून की बासमती के नाम पर बिकते हैं दूसरे चावल: देहरादून के सबसे पुराने थोक बाजार (आढ़त बाजार ) के स्थानीय व्यापारी प्रमोद गोयल बताते हैं कि आज देहरादून के थोक बाजार में कहीं भी देहरादून का प्रसिद्ध बासमती चावल नहीं मिलता है.

बाजार में भले ही देहरादून बासमती के नाम पर बड़े-बड़े पैकेट्स 180- 200 प्रति किलो की दर पर बेचे जाते हैं, लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि यह वास्तव में देहरादून का बासमती चावल है ही नहीं. ये हाइब्रिड बासमती चावल पड़ोसी राज्य हरियाणा, पंजाब से देहरादून पहुंचता है. इसे देहरादून की बासमती के नाम पर बेचा जाता है.

अन्य प्रदेशों में बदल जाते हैं इसके गुण: देहरादूनी बासमती की सबसे मुख्य विशेषता यह है कि देश-प्रदेश के दूसरे हिस्सों में इसकी उपज में यहां जैसी मिठास, महक और स्वाद पैदा नहीं हो पाता. परीक्षण के तौर पर देहरादूनी बासमती को देश के दूसरे हिस्सों में बोया भी गया, लेकिन सार्थक नतीजे सामने नहीं आए.

पढ़ें- बासमती चावल के लिए भारत-पाकिस्तान में भिड़ंत

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.