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असम : प्रदेश की राजनीति में 'महंत युग' का अंत या फिर लौटेंगे प्रफुल्ल - पार्टी संस्थापक को टिकट नहीं

असोम गण परिषद (एजीपी) ने महंत को बहरामपुर निर्वाचन क्षेत्र से टिकट देने से इनकार कर दिया, जहां से वे 1991 से लगातार जीतते रहे हैं. क्षेत्रीय दल, जो सत्तारूढ़ भाजपा के साथ चुनाव लड़ने जा रहे हैं, इस सीट को खाली रखने का फैसला किया है. गठबंधन के हिस्से के रूप में यह सीट भगवा पार्टी को दी गई है.

Mahanta
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Published : Mar 10, 2021, 9:52 PM IST

गुवाहाटी : असम की राजनीति में यह किसी युग के अंत से कम नहीं है. असम के सबसे मजबूत और सबसे प्रसिद्ध क्षेत्रीय नेता प्रफुल्ल कुमार महंत ने आगामी चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है. हालांकि, महंत की पत्नी ने महंत को पार्टी से टिकट न मिलने पर पिछले कुछ दिनों में वर्तमान एजीपी नेतृत्व के खिलाफ मुखर रही हैं.

उन्होंने बार-बार कहा कि वह या तो अलग पार्टी के टिकट पर या निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ेंगे. फिर भी महंत ने बुधवार को घोषणा कर दी कि वे अब चुनाव नहीं लड़ेंगे. अपनी लोकप्रियता या बदनामी के बावजूद महंत असम की राजनीति से अविभाज्य हैं. उन्होंने असम में क्षेत्रीय पार्टी की सरकारों का दो कार्यकाल के लिए नेतृत्व किया है. उन्होंने चार बार असम विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में भी पारी खेली है. असोम गण परिषद (एजीपी) के संस्थापक अध्यक्ष महंत ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान सबसे अधिक अवधि के दौरान राज्य का नेतृत्व किया है.

चुनौतियों भरा रहा कार्यकाल

1952 में नागांव में जन्मे महंत ने छह साल लंबे चले असम आंदोलन का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया और असम के मुख्यमंत्री बने. 1985 में महंत भारत के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने. महंत के राजनीतिक करियर में गंभीर चुनौतियां देखी गईं, क्योंकि 1985 से 1990 के बीच महंत की अगुआई वाली सरकार के पहले कार्यकाल में यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असोम (उल्फा) जैसे प्रतिबंधित संगठनों की गतिविधियां कई गुना बढ़ गईं थी.

उग्रवाद विरोधी अभियान चलाया

विद्रोही गतिविधियों को रोकने के लिए भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन बजरंग' चलाया. जो कि असम में उस स्थिति को रोकने के लिए अपनी तरह का पहला उग्रवाद विरोधी अभियान था. बजरंग के बाद ऑपरेशन राइनो भी चलाया गया, जिसमें राज्यभर में मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले सामने आए. इस अवधि के कई दौरान असाधारण हत्याओं के आरोप भी लगाए गए. यद्यपि क्षेत्रीय पार्टी 1991 का चुनाव हार गई, लेकिन उसने 1996 में महंत ने मुख्यमंत्री के रूप में फिर से वापसी की.

दूसरे कार्यकाल में लगे गंभीर आरोप

मुख्यमंत्री के रूप में महंत का दूसरा कार्यकाल भी विवादों से जुड़ा रहा. पत्रकार पराग कुमार दास की हत्या इस कार्यकाल के दौरान हुए विवादों में से एक थी. इस अवधि में 'गुप्त हत्याएं' भी देखी गईं, जो राज्य और केंद्र सरकार द्वारा कथित तौर पर उल्फा कैडरों के कुछ सदस्यों को खत्म करने के लिए की गई अतिरिक्त हत्याओं की श्रृंखला थी. इन 'गुप्त हत्याओं' के लिए अक्सर महंत पर उंगली उठाई जाती थी, क्योंकि उन्होंने इस अवधि के दौरान अपने पास गृह मंत्रालय का पोर्टफोलियो भी रखा था.

बचाए रखी बहरामपुर की सीट

एजीपी 2001 का चुनाव कांग्रेस से हार गई, लेकिन महंत इन सभी वर्षों में सभी बाधाओं के बावजूद अपनी बहरामपुर सीट को बरकरार रख पाए. महंत 2016 में भाजपा के साथ क्षेत्रीय पार्टी के गठबंधन के खिलाफ थे. महंत और एजीपी के वर्तमान नेतृत्व के बीच अंतर तब सामने आया जब महंत ने 2019 में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ सख्त रुख अख्तियार किया. इतना ही नहीं महंत अपने सीएए विरोधी रुख के बारे में दृढ़ रहे.

पार्टी संस्थापक को टिकट नहीं

आगामी चुनाव लड़ने के लिए महंत को एजीपी टिकट से इनकार करना चौंकाने वाला नहीं है, बल्कि कई ने ऐसा अंदेशा जताया था. महंत को पार्टी में दरकिनार कर दिया गया है, जिसे उन्होंने 1985 में स्थापित किया था. इतना ही नहीं पार्टी ने महंत को विधायक दल की बैठकों में आमंत्रित करना भी बंद कर दिया था.

यह भी पढ़ें-सीएम ममता बनर्जी चुनाव प्रचार के दौरान घायल, साजिश का लगाया आरोप

जैसा कि पिछले कुछ समय से मुख्यमंत्री नवीनतम घटनाओं पर चुप रहे हैं, राज्य के लोग अब यह देखने के लिए इंतजार कर रहे हैं कि क्या महंत गुमनामी में चले जाते हैं या एक नए क्षेत्रीय बल के रूप में वापस लौटते हैं. जिसकी कमी वर्तमान में असम में देखी जा रही है.

गुवाहाटी : असम की राजनीति में यह किसी युग के अंत से कम नहीं है. असम के सबसे मजबूत और सबसे प्रसिद्ध क्षेत्रीय नेता प्रफुल्ल कुमार महंत ने आगामी चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है. हालांकि, महंत की पत्नी ने महंत को पार्टी से टिकट न मिलने पर पिछले कुछ दिनों में वर्तमान एजीपी नेतृत्व के खिलाफ मुखर रही हैं.

उन्होंने बार-बार कहा कि वह या तो अलग पार्टी के टिकट पर या निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ेंगे. फिर भी महंत ने बुधवार को घोषणा कर दी कि वे अब चुनाव नहीं लड़ेंगे. अपनी लोकप्रियता या बदनामी के बावजूद महंत असम की राजनीति से अविभाज्य हैं. उन्होंने असम में क्षेत्रीय पार्टी की सरकारों का दो कार्यकाल के लिए नेतृत्व किया है. उन्होंने चार बार असम विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में भी पारी खेली है. असोम गण परिषद (एजीपी) के संस्थापक अध्यक्ष महंत ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान सबसे अधिक अवधि के दौरान राज्य का नेतृत्व किया है.

चुनौतियों भरा रहा कार्यकाल

1952 में नागांव में जन्मे महंत ने छह साल लंबे चले असम आंदोलन का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया और असम के मुख्यमंत्री बने. 1985 में महंत भारत के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने. महंत के राजनीतिक करियर में गंभीर चुनौतियां देखी गईं, क्योंकि 1985 से 1990 के बीच महंत की अगुआई वाली सरकार के पहले कार्यकाल में यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असोम (उल्फा) जैसे प्रतिबंधित संगठनों की गतिविधियां कई गुना बढ़ गईं थी.

उग्रवाद विरोधी अभियान चलाया

विद्रोही गतिविधियों को रोकने के लिए भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन बजरंग' चलाया. जो कि असम में उस स्थिति को रोकने के लिए अपनी तरह का पहला उग्रवाद विरोधी अभियान था. बजरंग के बाद ऑपरेशन राइनो भी चलाया गया, जिसमें राज्यभर में मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले सामने आए. इस अवधि के कई दौरान असाधारण हत्याओं के आरोप भी लगाए गए. यद्यपि क्षेत्रीय पार्टी 1991 का चुनाव हार गई, लेकिन उसने 1996 में महंत ने मुख्यमंत्री के रूप में फिर से वापसी की.

दूसरे कार्यकाल में लगे गंभीर आरोप

मुख्यमंत्री के रूप में महंत का दूसरा कार्यकाल भी विवादों से जुड़ा रहा. पत्रकार पराग कुमार दास की हत्या इस कार्यकाल के दौरान हुए विवादों में से एक थी. इस अवधि में 'गुप्त हत्याएं' भी देखी गईं, जो राज्य और केंद्र सरकार द्वारा कथित तौर पर उल्फा कैडरों के कुछ सदस्यों को खत्म करने के लिए की गई अतिरिक्त हत्याओं की श्रृंखला थी. इन 'गुप्त हत्याओं' के लिए अक्सर महंत पर उंगली उठाई जाती थी, क्योंकि उन्होंने इस अवधि के दौरान अपने पास गृह मंत्रालय का पोर्टफोलियो भी रखा था.

बचाए रखी बहरामपुर की सीट

एजीपी 2001 का चुनाव कांग्रेस से हार गई, लेकिन महंत इन सभी वर्षों में सभी बाधाओं के बावजूद अपनी बहरामपुर सीट को बरकरार रख पाए. महंत 2016 में भाजपा के साथ क्षेत्रीय पार्टी के गठबंधन के खिलाफ थे. महंत और एजीपी के वर्तमान नेतृत्व के बीच अंतर तब सामने आया जब महंत ने 2019 में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ सख्त रुख अख्तियार किया. इतना ही नहीं महंत अपने सीएए विरोधी रुख के बारे में दृढ़ रहे.

पार्टी संस्थापक को टिकट नहीं

आगामी चुनाव लड़ने के लिए महंत को एजीपी टिकट से इनकार करना चौंकाने वाला नहीं है, बल्कि कई ने ऐसा अंदेशा जताया था. महंत को पार्टी में दरकिनार कर दिया गया है, जिसे उन्होंने 1985 में स्थापित किया था. इतना ही नहीं पार्टी ने महंत को विधायक दल की बैठकों में आमंत्रित करना भी बंद कर दिया था.

यह भी पढ़ें-सीएम ममता बनर्जी चुनाव प्रचार के दौरान घायल, साजिश का लगाया आरोप

जैसा कि पिछले कुछ समय से मुख्यमंत्री नवीनतम घटनाओं पर चुप रहे हैं, राज्य के लोग अब यह देखने के लिए इंतजार कर रहे हैं कि क्या महंत गुमनामी में चले जाते हैं या एक नए क्षेत्रीय बल के रूप में वापस लौटते हैं. जिसकी कमी वर्तमान में असम में देखी जा रही है.

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