देहरादून: ग्लेशियर का पिघलना वैसे तो आम बात है और प्राकृतिक रूप से इसे पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा माना जा सकता है. इसी प्रक्रिया के कारण दुनिया भर के तमाम देशों में बहने वाली नदियों को ग्लेशियर के जरिए ही पानी मिलता है. लेकिन अगर ग्लेशियर के रूप में पानी से लबालब भरे इन पहाड़ों में अचानक ग्लेशियर पिघलना तेज हो जाए और नदियों में कई गुना पानी पहुंचने लगे तो, इसका अंजाम आप समझ सकते हैं. गर्म होती धरती हिमालय के इसी खतरे को बयां कर रही है. वैसे तो तमाम वैज्ञानिक और शोध संस्थान ग्लेशियर के पिघलने को लेकर अपनी रिपोर्ट देते रहे हैं, लेकिन अब हीट वेव के नए खतरे ने ग्लेशियर की सेहत को और भी तेजी से बिगड़ने के संकेत दे दिए हैं.
क्या है हीट वेव: हीट वेव मौसम में बदलाव को लेकर वह स्थिति है, जब तापमान सामान्य से कई डिग्री ज्यादा हो जाता है और इसके बाद जो गर्म हवाओं के थपेड़े लोगों को महसूस होते हैं, उन्हें हीट वेव कहा जाता है. सामान्य तौर पर पहाड़ी क्षेत्रों में 30 डिग्री से अधिक तापमान के बाद हीट वेव चलने लगती है. इसी तरह मैदानी जनपदों में 40 से 42 डिग्री और तटीय क्षेत्रों में करीब 38 से 40 डिग्री से अधिक तापमान पर हीट वेव चलती है. भारत में गर्मियों के मौसम में यानी अप्रैल से जून और जुलाई तक हीट वेव का खतरा बना रहता है. वैज्ञानिक मानते हैं कि भारत में हीट वेव की अवधि में बढ़ोत्तरी हो रही है. अगले एक दशक में इसमें 4 से 5 दिनों की बढ़ोत्तरी हो सकती है.
ग्लेशियर पिघलते रहने से पानी का संकट होगा पैदा: वाडिया इंस्टीट्यूट के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल कहते हैं कि हिमालय पर ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं. हिमालय में ग्लेशियर पर खतरा इसलिए भी बढ़ गया है, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के कारण गर्म होते वातावरण के चलते ग्लेशियर धीरे-धीरे पतले होते जा रहे हैं. जिससे इनके पिघलने की संभावना और भी ज्यादा बढ़ गई है. उन्होंने कहा कि इस बार बर्फबारी भी बेहद कम हुई है. फरवरी में ही तापमान 20 डिग्री तक पहुंच गया था. मौसम में हो रहे इस बदलाव के कारण इसका असर ग्लेशियर पर पड़ रहा है, क्योंकि अधिकतर नदियां ग्लेशियर से पिघलकर आने वाले पानी पर निर्भर हैं. लिहाजा ग्लेशियर इसी तरह पिघलते रहे, तो आने वाले दिनों में पानी को लेकर भी संकट पैदा हो सकता है.
उत्तराखंड में 28 दिन सामान्य तापमान से कई अधिक रिकार्ड: धरती के गर्म होने के पीछे की वजह ग्लोबल वार्मिंग है. इंसानों का विकास की दौड़ में पर्यावरण का दोहन और इसे दूषित करने का सिलसिला जिस तरह से बढ़ा है, उसने प्रकृति के स्वरूप को भारी नुकसान पहुंचाया है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरणीय बदलावों को लेकर नज़र रखने वाले 'साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट' में प्रकाशित शोध ने भी दुनिया के तमाम देशों में हीट वेव के असर को जाहिर किया है. एक शोध के अनुसार भारत में 2021 के दौरान लू वाले दिनों की संख्या 36 आंकी गई. 2022 में यह दिन कई गुना बढ़कर 150 से ज्यादा हो गए. उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में भी 28 दिन सामान्य तापमान से कई अधिक रिकार्ड किए गए.
हीट वेव बढ़ने की सबसे बड़ी वजह ग्लोबल वार्मिंग: वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत ने कहा कि हीट वेव बढ़ने के पीछे ग्लोबल वार्मिंग सबसे बड़ी वजह है. ग्लोबल वार्मिंग एक अंतरराष्ट्रीय विषय है, लेकिन इसके लोकल कारण भी होते हैं. हिमालय क्षेत्र में कई जगह, जहां 10 साल पहले बर्फबारी दिखाई देती थी और ग्लेशियर्स भी मौजूद थे, वहां अब ग्लेशियर पूरी तरह से पिघल चुके हैं. इसके पीछे राज्य सरकारों का त्वरित इंसानी फायदा देखकर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना भी है. उन्होंने कहा कि आज हिमालई क्षेत्रों में बड़ी संख्या में लोगों को जाने की इजाजत दी जा रही है. एक समय था, जब तमाम जगह पर तीर्थाटन के लिए सीमित संख्या में लोग आते थे, लेकिन अब एक तरफ लाखों लोग ग्लेशियर क्षेत्रों तक पहुंच रहे हैं. ऐसे में लोगों की सुविधा के लिए यहां विकास के नाम पर ऐसे निर्माण भी किए जा रहे हैं, जिससे ग्लेशियर को खतरा पैदा हो रहा है.
2013 में चौराबाड़ी ग्लेशियर पर बनी झील ने किया था तांडव: पूर्व में कई शोध ऐसे भी आए हैं, जहां ग्लेशियर पिघलने से उच्च हिमालय क्षेत्र में झील बनने की स्थिति भी आ गई है. साल 2013 में चौराबाड़ी ग्लेशियर पर बनी झील का तांडव सभी ने देखा था. तब सरकारी रिकॉर्ड में ही 5 हज़ार लोगों ने अपनी जान गंवाई थी. इस समय बारिश और ग्लेशियर्स के तेजी से पिघलने के कारण नदियों का जलस्तर अचानक बढ़ रहा है. जिससे बाढ़ जैसे हालात पैदा हो रहे हैं. पिछले साल पाकिस्तान में नदियों के पानी से आई भारी तबाही के लिए भी ग्लेशियर के तेजी से पिघलने को एक वजह माना गया था.
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फ्लड मैनेजमेंट प्लान पर किया जा रहा काम: एक तरफ ग्लेशियर के पिघलने पर तमाम शोध के जरिए रिकॉर्ड तैयार किए जा रहे हैं, तो ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को भी लोगों तक पहुंचाया जा रहा है. लेकिन ग्लेशियर के पिघलने के कारण नदियों के जलस्तर बढ़ने और बाढ़ के हालात को लेकर भी फ्लड मैनेजमेंट प्लान पर काम किया जा रहा है. हालांकि इसके लिए एक विस्तृत अध्ययन की भी आवश्यकता है, ताकि फ्लड मैनेजमेंट को फुल प्रूफ बनाया जा सके.
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