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कांग्रेस के पास भविष्य है बशर्ते .... - Etv Bharat Gopal krishan gandhi

आज की तारीख में कोई गांधीवादी सोच का वाहक है या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. कोई भारत के इतिहास को फिर से लिखना चाहता है, तो कोशिश कर ले. वे कभी भी सफल नहीं हो सकते हैं. मैं वैसे तो कोई सलाह देना नहीं चाहता हूं, लेकिन यह सही है कि बहुसंख्यकों के बीच अल्पसंख्यकों की राजनीति की वजह से प्रतिक्रियावादी ताकतें मजबूत हुई हैं. लिहाजा, कांग्रेस पार्टी के पास फिर से भविष्य है, बशर्ते .... (प. बंगाल के पूर्व गवर्नर गोपाल कृष्ण गांधी के साथ विशेष बातचीत का पढ़ें पूरा ब्योरा)

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गोपाल कृष्ण गांधी
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Published : Apr 15, 2021, 10:35 PM IST

- क्या हम एक राष्ट्र के रूप में वैसी प्रगति कर रहे हैं, जैसा हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों ने कल्पना की थी.

कई मायनों में, हां. हम एक देश के रूप में प्रगति कर रहे हैं. मैं उन पांच क्षेत्रों के बारे में बताउंगा, जिनमें बेशक प्रगति हुई है.

सबसे पहले सहमति की उम्र, जिसका मतलब है, हमारे समाज में लड़कियों के विवाह की औसत उम्र बढ़ी है. परिणामस्वरूप मातृ मृत्यु दर से लेकर, शिशु मृत्यु दर में कमी आई है.

दूसरा, भारत में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा में नाटकीय बढ़ोतरी दर्ज की गई है. इसके लिए देश में व्यापक टीकाकरण कार्यक्रमों और प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहतरी को श्रेय देना होगा. हालांकि वो अभी भी अपर्याप्त और असक्षम हैं.

तीसरा, शहरी भारत में छूआछूत बहुत पीछे छूट गया है. हमारे कस्बों और शहरों में अब भेदभाव झेलने वाले समाज के वर्गों में पहले के मुकाबले आत्मविश्वास बढ़ा है. हालांकि अभी तक ग्रामीण भारत में यह अब भी मौजूद है.

चौथा, देश में चुनावों ने अब राजनीतिक पसंद को एक लोकतांत्रिक दिनचर्या बना दिया है. चुनाव आयोग इसके लिए प्रशासन, तकनीक और जनता के सहयोग चमत्कारिक समन्वय के जरिए अंजाम दिया जाता है. इसे एक उपलब्धि कह सकते हैं.

पांचवां, भारत भर में सड़क, रेल और हवाई संपर्क में नाटकीय रूप से सुधार हुआ है, जिससे यात्रा और संचार में आसानी हो गई. आजादी के पहले यह सोच अकल्पनीय थी.

और मैं अभी कहूं कि हम कई मायनों में प्रगति नहीं कर रहे हैं, तो मुझे ये कहने के लिए पांच और कारण बताइए.

पहला, हमारा संविधान महिला पुरुष को समान अधिकार (लैंगिक समानता) देता है. लेकिन महिलाओं के खिलाफ हिंसा और घरेलू हिंसा से महिलाएं सबसे ज्यादा पीड़ित हैं. इसके साथ ही महिला और बच्चों का शोषण और तस्करी भी बेरोकटोक होती है.

दूसरा, हमारा देश खाद्यान्न उत्पादन के मामले में बहुत आगे निकल चुका है. इसके लिए हरित क्रांति के जनक प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन और श्वेत क्रांति के लिए 'अमूल' के डॉ. कुरियन का शुक्रगुजार होना चाहिए. लेकिन फिर भी बढ़ती उम्र के साथ बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं जिसके परिणाम स्वरूप ग्रामीण इलाकों से लेकर शहरों की मलिन बस्तियों में व्यापक स्तर पर शारीरिक कुपोषण और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर परिणाम नजर आते हैं.

तीसरा, दलितों का शोषण और उनके साथ हिंसा, इसमें आदिवासी भी शामिल हैं (कहने की जरूरत नहीं) इसके लिए आक्रामक 'विकास' और 'बिल्डर' लॉबी जिम्मेदार है. मानवाधिकार कार्यकर्ता बेजवाडा विल्सन द्वारा हाथ से गंदगी साफ करने वाले जिस मुद्दे को सामने लाए हैं वो इस शोषण और हिंसा का वो रूप है जो मौजूद तो है लेकिन दिखता नहीं है.

चौथा, हमारे चुनावों में धन बल और बाहुबल के बगैर नहीं होते. ये दो मुंह वाला राक्षस चुनावी लोकतंत्र का मखौल उड़ाता है.

पांचवा, भारत में सड़क, रेल और हवाई संपर्क में अभूतपूर्व सुधार हुआ है. जिससे यात्रा और संचार सुगम हुआ है. जो आजादी से पहले कल्पना से परे था. शहरी और महानगरीय भारत में रहने वाले और आर्थिक रूप से सशक्त, आर्थिक रूप से दबे-कुचले वर्ग के लोगों के बीच की अराजकता खतरनाक रूप से बढ़ रही है. हमारे कृषक समुदाय को सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है. पी. साईनाथ ने इस पर किसी से भी ज्यादा काम किया है.

- देश की आजादी के सात दशक बाद भी हम विकासशील देश हैं. गरीबी से कुपोषण और बेरोजगारी से लेकर लैंगिक असमानता को लेकर होने वाले सर्वेक्षणों में हम पहली कतार में होते हैं. क्या ये हमारे लिए शर्म की बात नहीं है?

विकासशील देश होना न तो गलत है और न ही असामान्य. हमारी पंचवर्षीय योजनाओं ने विकासशील समाज के निर्माण में अपनी भूमिका अदा की. समस्या हाल के समय में हमारी विकास की रणनीतियों में है, जो असंतुलित, पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक और दिशाहीन रहीं. अगर सार्वजनिक नीति और निजी निवेश इस आधार पर आगे बढ़े कि गांव का मतलब औद्योगिक संपदा, तालाब का मतलब भविष्य के जमीन, गरीबों की जमीन का मतलब रियल एस्टेट, नदियों का मतलब बिजली, जंगल का मतलब लकड़ियां और सीमेंट है. तो हम दो भारत बना रहे हैं एक अमीर और दूसरा विसर्जित.

- चीन, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर को हमारे साथ ही आजादी मिली थी. लेकिन वे भारत से बहुत आगे हैं. हम कई मोर्चों पर उनके साथ प्रतिस्पर्धा क्यों नहीं कर पाते ?

हमने अपनी आजादी इसलिए नहीं पाई कि हम दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करें. हम अपना स्वराज चाहते थे और यह हमें मिल गया. गांधी को यह पता था कि आयरलैंड और अमेरिका को आजादी कैसे मिली. गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जरिए नवीन और भारतीय सोच पर आधारित रास्ते को चुना. जाहिर है, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपजी परिस्थितियां उत्प्रेरक बनीं, यह हकीकत है. इसी तरह से बीआर आंबेडकर ने भी संविधान बनाने से पहले दूसरे देशों के प्रजातांत्रिक मूल्यों और गणतांत्रिक संविधान का अध्ययन किया, लेकिन अंत में उन्होंने उसे भारतीय दिशा दी. संविधान की प्रस्तावना में कानून के सामने सबकी समानता, समता और बंधुत्व को दिखाता है. इसलिए, दूसरों के साथ मुकाबला करने या उनके साथ स्तर बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा करना जरूरी नहीं है कि हमारी अपनी समस्याओं को दूर करें या हमारे भाग्य को पूरा करें.

-चुनाव के दौरान सियासी दल लोगों को जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के आधार पर बांटते हैं. पैसा, शराब और बाहुबल का खूब इस्तेमाल होता है. हमारी चुनाव प्रक्रिया ही कई बुराईयों की जड़ है. हमारी चुनावी सिस्टम उन पर अंकुश क्यों नहीं लगा पाता.

जैसे हम हैं, वैसे हमारे सियासी दल हैं. जैसा चुनने वाला होता है निर्वाचन प्रणाली वैसी हो जाती है.

भारत मजबूत 'केंद्र - कमजोर राज्यों' की ओर बढ़ रहा है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो निकट भविष्य में क्या होगा?

हमने कमजोर केंद्र और मजबूत राज्य भी देखे हैं. इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन कमजोर है और कौन मजबूत, फर्क इससे पड़ता है कि क्या न्यायपूर्ण है.

-भारत में अमीर और गरीब की खाई चौड़ी होती जा रही है. भारत अरबपतियों के मामले में तीसरे नंबर पर है साथ ही एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है. क्या हमारे संविधान निर्माता इसका अनुमान लगाने में चूक गए.

संविधान ने हमें विफल नहीं किया है हमने संविधान को विफल किया है (ये मेरा वाक्य नहीं, उधार का है). संविधान निर्माताओं ने हमारे गणतंत्र को बनाने का काम किया, जिसे हम कायम नहीं रख पा रहे.

- भारत को सभी क्षेत्रों में आजाद राष्ट्र बनाने के लिए आजादी से पहले ही मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र की नींव डाली गई लेकिन सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों से हाथ खींच रही है. सार्वजनिक क्षेत्र का क्या भविष्य है ?

वैसा ही जैसा हमारी जनता का.

- क्या भारतीय समाज स्वाभाविक रूप से धर्मनिरपेक्ष है ? अगर हां, तो हमारे समाज का हाल के दिनों में दक्षिणपंथ की तरफ झुकाव की क्या वजह है.

दक्षिण और वाम दो स्थान नहीं हैं, बल्कि दो दिशाएं हैं. वे परिवर्तित होती रहती हैं. भारत एक स्थान है, न कि दिशा. राजनीतिक हवाएं इसकी सतह पर आने वाली दिशाओं को आगे बढ़ाती रहेंगी.

- क्या मध्यमार्गी कांग्रेस और वाम पार्टियां आने वाले समय में विकल्प बन सकती हैं.

अगर कांग्रेस वाम सोच की ओर झुकी रहे और वाम पार्टियां लोकतांत्रिक बनी रहे, तो वे दोनों ही मजबूत रहेंगी. अगर दोनों अपने अहं को त्याग कर सहयोगात्मक रवैया अपनाएं, वे मजबूत चुनौती प्रदान कर सकती हैं. ब्रिटिश ने हमलोगों को बांटा नहीं, बल्कि हमलोग अपने में बंट गए और उन्होंने हम पर शासन किया.

-क्या देश के संघीय ढांचे का व्यापक उल्लंघन किया जा रहा है. कुछ लोगों का मानना है कि आने वाले समय में देश की एकता और अखंडता भी प्रभावित हो सकती है. आप इसे कैसे देखते हैं.

संविधान के संघीय ढांचे की बदौलत ही दक्षिण भारत और उत्तर पूर्वी भारत बुलंदियों पर है. दोनों जगहों पर कभी अलगाववादी महत्वाकांक्षाएं थीं. लेकिन वे यह मान गए कि लोकतांत्रिक भारत में उनकी मांगें असाध्य और अनावश्यक है. संविधान ने भारत को केंद्र और राज्यों की शक्तियों के बीच सही संतुलन प्रदान किया है. लेकिन हमें अब भू-राजनीतिक राज्यों की सोच से बाहर जाना होगा. आने वाले समय में और अधिक राज्यों के गठन होने की संभावना है. भारत के लिए अब नए कार्टोग्राफी के बारे में विचार करने का समय आ गया है, जो इसके पारिस्थितिक स्थानों का सम्मान करे. भारत और उसके 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के वर्तमान राजनीतिक मानचित्र में कोई बदलाव किए बिना, हमें अपनी भलाई के लिए भारत का एक पारिस्थितिक मानचित्र गढ़ना होगा. यह डेजर्ट इंडिया, फॉरेस्ट इंडिया, लिटरल इंडिया और हिमालयन इंडिया सबको समाहित करने वाला होगा. उनका शोषण न हो. उनका अनादर न किया जा सके. अंडमान और लक्षद्वीप को संसाधन के रूप में न देखा जाए, बल्कि नाजुक आवास के रूप में देखा जाए.

संघवाद राजनीतिक शक्ति और करों को साझा करने तक सीमित नहीं है. यह सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विविधता को पहचानने और सम्मान करने के बारे में है. यह संवेदनशीलता के बारे में है.

- क्या आज की तारीख में गांधीवादी सोच का कोई वाहक है.

कोई है या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. खुद गांधी को भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. जो सबसे ज्यादा आवश्यक है, वह गांधी का सपना है. हम सभी स्वराज की विरासत के उत्तराधिकारी हैं. इसका मतलब सु-राज बनना है.

-आजादी के संघर्ष की भावना को लेकर आज के युवाओं को क्या सलाह देना चाहेंगे.

मैं सलाह देने वाला कौन होता हूं. मेरी पीढ़ी तो बोलती आई है. युवा पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी की सलाह सुन-सुनकर थक चुका है. पुरानी पीढ़ी ने जो गलती करनी थी, कर ली. उन्हें जो करना था, कर लिया. फिर भी वे अपने आप को बुद्धि का खजाना मानते हैं. मुझे लग रहा है कि युवा पीढ़ी सबसे अधिक यह पसंद करती है कि ईमानदारी के साथ गलतियों को स्वीकार करे और जिनका कोई राजनीतिक या वित्तीय महत्वाकांक्षा न हो.

- कांग्रेस के 60 साल के शासन के बावजूद हिंदूवादी (हिंदू मेजोरिटेरियनिज्म) ताकतें क्यों मजबूत होतीं रहीं.

हाल ही में वकील और राजनीतिक चिंतक मेनका गुरुस्वामी ने भारत को 'अल्पसंख्यकों के बहुसंख्यक' के रूप में वर्णित किया. मैं इसकी सही व्याख्या नहीं जानता हूं. लेकिन नौरोजी, बेसेंट, तिलक, गोखले, गांधी, पटेल, आजाद, नेहरू, राजाजी, पेरियार, कामराज, ईएमएस नंबूदरीपाद और जयप्रकाश नारायण की कांग्रेस यह जानती थी. संविधान सभा के सदस्य आंबेडकर, दक्षिणायु वेलयुधम, अम्मू स्वामीनाथन, दुर्गाबाई देशमुख, हंसा मेहता, कुदसिया एजाज रसू और राजकुमारी अमृत कौर भी इसे समझते थे. हम यह भूल गए कि बहुसंख्यकों के बीच अल्पसंख्यकों की बात उठाने पर बहुसंख्यकों के काउंटर लॉजिक की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. लेकिन मैं यह नहीं मानता हूं कि कोई भी अधिनायकवाद अपरिवर्तनीय है. इतिहास को दक्षिणपंथी विचारधारा से लिखने की कोशिश की जा रही है. ऐसे में इसके परिणाम क्या होंगे. भारतीय इतिहास, किसी भी इतिहास की तरह, उन लोगों द्वारा नहीं लिखा जाता है जो इसे लिखना चाहते हैं. यह तो लोगों के दिमाग पर अमिट छाप की तरह है.

प्रजातांत्रिक और शैक्षणिक संस्थानों का आप किस तरह से मूल्यांकन करते हैं. पिछले कुछ सालों में जो कुछ हुआ, क्या उससे कभी ये उबर पाएगा.

मेरा मानना ​​है कि भारत अपनी सबसे बड़ी उपलब्धियों से बड़ा है और अपनी सबसे बड़ी ताकत से मजबूत है. कोई भी इसकी बुनियाद को हिला नहीं सकता है. भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूछा था कि आपको ऊपर से भारत कैसा दिखता है, तो उन्होंने बिना समय गंवाए इसे सारे जहां से अच्छा बताया. यही है भारत की ताकत. इसे कोई मिटा नहीं सकता है.

- क्या हम एक राष्ट्र के रूप में वैसी प्रगति कर रहे हैं, जैसा हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों ने कल्पना की थी.

कई मायनों में, हां. हम एक देश के रूप में प्रगति कर रहे हैं. मैं उन पांच क्षेत्रों के बारे में बताउंगा, जिनमें बेशक प्रगति हुई है.

सबसे पहले सहमति की उम्र, जिसका मतलब है, हमारे समाज में लड़कियों के विवाह की औसत उम्र बढ़ी है. परिणामस्वरूप मातृ मृत्यु दर से लेकर, शिशु मृत्यु दर में कमी आई है.

दूसरा, भारत में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा में नाटकीय बढ़ोतरी दर्ज की गई है. इसके लिए देश में व्यापक टीकाकरण कार्यक्रमों और प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहतरी को श्रेय देना होगा. हालांकि वो अभी भी अपर्याप्त और असक्षम हैं.

तीसरा, शहरी भारत में छूआछूत बहुत पीछे छूट गया है. हमारे कस्बों और शहरों में अब भेदभाव झेलने वाले समाज के वर्गों में पहले के मुकाबले आत्मविश्वास बढ़ा है. हालांकि अभी तक ग्रामीण भारत में यह अब भी मौजूद है.

चौथा, देश में चुनावों ने अब राजनीतिक पसंद को एक लोकतांत्रिक दिनचर्या बना दिया है. चुनाव आयोग इसके लिए प्रशासन, तकनीक और जनता के सहयोग चमत्कारिक समन्वय के जरिए अंजाम दिया जाता है. इसे एक उपलब्धि कह सकते हैं.

पांचवां, भारत भर में सड़क, रेल और हवाई संपर्क में नाटकीय रूप से सुधार हुआ है, जिससे यात्रा और संचार में आसानी हो गई. आजादी के पहले यह सोच अकल्पनीय थी.

और मैं अभी कहूं कि हम कई मायनों में प्रगति नहीं कर रहे हैं, तो मुझे ये कहने के लिए पांच और कारण बताइए.

पहला, हमारा संविधान महिला पुरुष को समान अधिकार (लैंगिक समानता) देता है. लेकिन महिलाओं के खिलाफ हिंसा और घरेलू हिंसा से महिलाएं सबसे ज्यादा पीड़ित हैं. इसके साथ ही महिला और बच्चों का शोषण और तस्करी भी बेरोकटोक होती है.

दूसरा, हमारा देश खाद्यान्न उत्पादन के मामले में बहुत आगे निकल चुका है. इसके लिए हरित क्रांति के जनक प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन और श्वेत क्रांति के लिए 'अमूल' के डॉ. कुरियन का शुक्रगुजार होना चाहिए. लेकिन फिर भी बढ़ती उम्र के साथ बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं जिसके परिणाम स्वरूप ग्रामीण इलाकों से लेकर शहरों की मलिन बस्तियों में व्यापक स्तर पर शारीरिक कुपोषण और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर परिणाम नजर आते हैं.

तीसरा, दलितों का शोषण और उनके साथ हिंसा, इसमें आदिवासी भी शामिल हैं (कहने की जरूरत नहीं) इसके लिए आक्रामक 'विकास' और 'बिल्डर' लॉबी जिम्मेदार है. मानवाधिकार कार्यकर्ता बेजवाडा विल्सन द्वारा हाथ से गंदगी साफ करने वाले जिस मुद्दे को सामने लाए हैं वो इस शोषण और हिंसा का वो रूप है जो मौजूद तो है लेकिन दिखता नहीं है.

चौथा, हमारे चुनावों में धन बल और बाहुबल के बगैर नहीं होते. ये दो मुंह वाला राक्षस चुनावी लोकतंत्र का मखौल उड़ाता है.

पांचवा, भारत में सड़क, रेल और हवाई संपर्क में अभूतपूर्व सुधार हुआ है. जिससे यात्रा और संचार सुगम हुआ है. जो आजादी से पहले कल्पना से परे था. शहरी और महानगरीय भारत में रहने वाले और आर्थिक रूप से सशक्त, आर्थिक रूप से दबे-कुचले वर्ग के लोगों के बीच की अराजकता खतरनाक रूप से बढ़ रही है. हमारे कृषक समुदाय को सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है. पी. साईनाथ ने इस पर किसी से भी ज्यादा काम किया है.

- देश की आजादी के सात दशक बाद भी हम विकासशील देश हैं. गरीबी से कुपोषण और बेरोजगारी से लेकर लैंगिक असमानता को लेकर होने वाले सर्वेक्षणों में हम पहली कतार में होते हैं. क्या ये हमारे लिए शर्म की बात नहीं है?

विकासशील देश होना न तो गलत है और न ही असामान्य. हमारी पंचवर्षीय योजनाओं ने विकासशील समाज के निर्माण में अपनी भूमिका अदा की. समस्या हाल के समय में हमारी विकास की रणनीतियों में है, जो असंतुलित, पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक और दिशाहीन रहीं. अगर सार्वजनिक नीति और निजी निवेश इस आधार पर आगे बढ़े कि गांव का मतलब औद्योगिक संपदा, तालाब का मतलब भविष्य के जमीन, गरीबों की जमीन का मतलब रियल एस्टेट, नदियों का मतलब बिजली, जंगल का मतलब लकड़ियां और सीमेंट है. तो हम दो भारत बना रहे हैं एक अमीर और दूसरा विसर्जित.

- चीन, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर को हमारे साथ ही आजादी मिली थी. लेकिन वे भारत से बहुत आगे हैं. हम कई मोर्चों पर उनके साथ प्रतिस्पर्धा क्यों नहीं कर पाते ?

हमने अपनी आजादी इसलिए नहीं पाई कि हम दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करें. हम अपना स्वराज चाहते थे और यह हमें मिल गया. गांधी को यह पता था कि आयरलैंड और अमेरिका को आजादी कैसे मिली. गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जरिए नवीन और भारतीय सोच पर आधारित रास्ते को चुना. जाहिर है, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपजी परिस्थितियां उत्प्रेरक बनीं, यह हकीकत है. इसी तरह से बीआर आंबेडकर ने भी संविधान बनाने से पहले दूसरे देशों के प्रजातांत्रिक मूल्यों और गणतांत्रिक संविधान का अध्ययन किया, लेकिन अंत में उन्होंने उसे भारतीय दिशा दी. संविधान की प्रस्तावना में कानून के सामने सबकी समानता, समता और बंधुत्व को दिखाता है. इसलिए, दूसरों के साथ मुकाबला करने या उनके साथ स्तर बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा करना जरूरी नहीं है कि हमारी अपनी समस्याओं को दूर करें या हमारे भाग्य को पूरा करें.

-चुनाव के दौरान सियासी दल लोगों को जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के आधार पर बांटते हैं. पैसा, शराब और बाहुबल का खूब इस्तेमाल होता है. हमारी चुनाव प्रक्रिया ही कई बुराईयों की जड़ है. हमारी चुनावी सिस्टम उन पर अंकुश क्यों नहीं लगा पाता.

जैसे हम हैं, वैसे हमारे सियासी दल हैं. जैसा चुनने वाला होता है निर्वाचन प्रणाली वैसी हो जाती है.

भारत मजबूत 'केंद्र - कमजोर राज्यों' की ओर बढ़ रहा है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो निकट भविष्य में क्या होगा?

हमने कमजोर केंद्र और मजबूत राज्य भी देखे हैं. इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन कमजोर है और कौन मजबूत, फर्क इससे पड़ता है कि क्या न्यायपूर्ण है.

-भारत में अमीर और गरीब की खाई चौड़ी होती जा रही है. भारत अरबपतियों के मामले में तीसरे नंबर पर है साथ ही एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है. क्या हमारे संविधान निर्माता इसका अनुमान लगाने में चूक गए.

संविधान ने हमें विफल नहीं किया है हमने संविधान को विफल किया है (ये मेरा वाक्य नहीं, उधार का है). संविधान निर्माताओं ने हमारे गणतंत्र को बनाने का काम किया, जिसे हम कायम नहीं रख पा रहे.

- भारत को सभी क्षेत्रों में आजाद राष्ट्र बनाने के लिए आजादी से पहले ही मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र की नींव डाली गई लेकिन सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों से हाथ खींच रही है. सार्वजनिक क्षेत्र का क्या भविष्य है ?

वैसा ही जैसा हमारी जनता का.

- क्या भारतीय समाज स्वाभाविक रूप से धर्मनिरपेक्ष है ? अगर हां, तो हमारे समाज का हाल के दिनों में दक्षिणपंथ की तरफ झुकाव की क्या वजह है.

दक्षिण और वाम दो स्थान नहीं हैं, बल्कि दो दिशाएं हैं. वे परिवर्तित होती रहती हैं. भारत एक स्थान है, न कि दिशा. राजनीतिक हवाएं इसकी सतह पर आने वाली दिशाओं को आगे बढ़ाती रहेंगी.

- क्या मध्यमार्गी कांग्रेस और वाम पार्टियां आने वाले समय में विकल्प बन सकती हैं.

अगर कांग्रेस वाम सोच की ओर झुकी रहे और वाम पार्टियां लोकतांत्रिक बनी रहे, तो वे दोनों ही मजबूत रहेंगी. अगर दोनों अपने अहं को त्याग कर सहयोगात्मक रवैया अपनाएं, वे मजबूत चुनौती प्रदान कर सकती हैं. ब्रिटिश ने हमलोगों को बांटा नहीं, बल्कि हमलोग अपने में बंट गए और उन्होंने हम पर शासन किया.

-क्या देश के संघीय ढांचे का व्यापक उल्लंघन किया जा रहा है. कुछ लोगों का मानना है कि आने वाले समय में देश की एकता और अखंडता भी प्रभावित हो सकती है. आप इसे कैसे देखते हैं.

संविधान के संघीय ढांचे की बदौलत ही दक्षिण भारत और उत्तर पूर्वी भारत बुलंदियों पर है. दोनों जगहों पर कभी अलगाववादी महत्वाकांक्षाएं थीं. लेकिन वे यह मान गए कि लोकतांत्रिक भारत में उनकी मांगें असाध्य और अनावश्यक है. संविधान ने भारत को केंद्र और राज्यों की शक्तियों के बीच सही संतुलन प्रदान किया है. लेकिन हमें अब भू-राजनीतिक राज्यों की सोच से बाहर जाना होगा. आने वाले समय में और अधिक राज्यों के गठन होने की संभावना है. भारत के लिए अब नए कार्टोग्राफी के बारे में विचार करने का समय आ गया है, जो इसके पारिस्थितिक स्थानों का सम्मान करे. भारत और उसके 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के वर्तमान राजनीतिक मानचित्र में कोई बदलाव किए बिना, हमें अपनी भलाई के लिए भारत का एक पारिस्थितिक मानचित्र गढ़ना होगा. यह डेजर्ट इंडिया, फॉरेस्ट इंडिया, लिटरल इंडिया और हिमालयन इंडिया सबको समाहित करने वाला होगा. उनका शोषण न हो. उनका अनादर न किया जा सके. अंडमान और लक्षद्वीप को संसाधन के रूप में न देखा जाए, बल्कि नाजुक आवास के रूप में देखा जाए.

संघवाद राजनीतिक शक्ति और करों को साझा करने तक सीमित नहीं है. यह सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विविधता को पहचानने और सम्मान करने के बारे में है. यह संवेदनशीलता के बारे में है.

- क्या आज की तारीख में गांधीवादी सोच का कोई वाहक है.

कोई है या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. खुद गांधी को भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. जो सबसे ज्यादा आवश्यक है, वह गांधी का सपना है. हम सभी स्वराज की विरासत के उत्तराधिकारी हैं. इसका मतलब सु-राज बनना है.

-आजादी के संघर्ष की भावना को लेकर आज के युवाओं को क्या सलाह देना चाहेंगे.

मैं सलाह देने वाला कौन होता हूं. मेरी पीढ़ी तो बोलती आई है. युवा पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी की सलाह सुन-सुनकर थक चुका है. पुरानी पीढ़ी ने जो गलती करनी थी, कर ली. उन्हें जो करना था, कर लिया. फिर भी वे अपने आप को बुद्धि का खजाना मानते हैं. मुझे लग रहा है कि युवा पीढ़ी सबसे अधिक यह पसंद करती है कि ईमानदारी के साथ गलतियों को स्वीकार करे और जिनका कोई राजनीतिक या वित्तीय महत्वाकांक्षा न हो.

- कांग्रेस के 60 साल के शासन के बावजूद हिंदूवादी (हिंदू मेजोरिटेरियनिज्म) ताकतें क्यों मजबूत होतीं रहीं.

हाल ही में वकील और राजनीतिक चिंतक मेनका गुरुस्वामी ने भारत को 'अल्पसंख्यकों के बहुसंख्यक' के रूप में वर्णित किया. मैं इसकी सही व्याख्या नहीं जानता हूं. लेकिन नौरोजी, बेसेंट, तिलक, गोखले, गांधी, पटेल, आजाद, नेहरू, राजाजी, पेरियार, कामराज, ईएमएस नंबूदरीपाद और जयप्रकाश नारायण की कांग्रेस यह जानती थी. संविधान सभा के सदस्य आंबेडकर, दक्षिणायु वेलयुधम, अम्मू स्वामीनाथन, दुर्गाबाई देशमुख, हंसा मेहता, कुदसिया एजाज रसू और राजकुमारी अमृत कौर भी इसे समझते थे. हम यह भूल गए कि बहुसंख्यकों के बीच अल्पसंख्यकों की बात उठाने पर बहुसंख्यकों के काउंटर लॉजिक की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. लेकिन मैं यह नहीं मानता हूं कि कोई भी अधिनायकवाद अपरिवर्तनीय है. इतिहास को दक्षिणपंथी विचारधारा से लिखने की कोशिश की जा रही है. ऐसे में इसके परिणाम क्या होंगे. भारतीय इतिहास, किसी भी इतिहास की तरह, उन लोगों द्वारा नहीं लिखा जाता है जो इसे लिखना चाहते हैं. यह तो लोगों के दिमाग पर अमिट छाप की तरह है.

प्रजातांत्रिक और शैक्षणिक संस्थानों का आप किस तरह से मूल्यांकन करते हैं. पिछले कुछ सालों में जो कुछ हुआ, क्या उससे कभी ये उबर पाएगा.

मेरा मानना ​​है कि भारत अपनी सबसे बड़ी उपलब्धियों से बड़ा है और अपनी सबसे बड़ी ताकत से मजबूत है. कोई भी इसकी बुनियाद को हिला नहीं सकता है. भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूछा था कि आपको ऊपर से भारत कैसा दिखता है, तो उन्होंने बिना समय गंवाए इसे सारे जहां से अच्छा बताया. यही है भारत की ताकत. इसे कोई मिटा नहीं सकता है.

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