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उत्तर छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की उपज और अंत तक का सफर, क्या स्थिति है 'लाल आतंक' की

उत्तर छत्तीसगढ़ सरगुजा संभाग को कहा जाता है. जिसमें सरगुजा, सूरजपुर, बलरामपुर, जशपुर और कोरिया जिले शामिल हैं. ये सभी कभी घोर नक्सल प्रभावित हुआ करते थे. इसी विषय पर ईटीवी भारत की टीम ने सामाजिक कार्यकर्ता राजेश सिंह सिसोदिया से खास बातचीत की. पढ़ें पूरी रिपोर्ट

Social Activist Rajesh Singh Sisodia
सामाजिक कार्यकर्ता राजेश सिंह सिसोदिया
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Published : Jan 15, 2022, 2:26 PM IST

Updated : Jul 25, 2023, 8:01 AM IST

सरगुजा: सरल-सहज लोगों से भरा हुआ, लोक संस्कृति और प्रकृति का अनुपम केंद्र छत्तीसगढ़ "लाल आतंक" के नाम पर भयाक्रांत भी पैदा करता है. इस प्रदेश की नैसर्गिक सुंदरता यहां रहने वाले या इस प्रदेश को करीब से जानने वाले ही समझते हैं. वरना दूर बैठे अन्य प्रांतों या देशों के लोग इसे नक्सलवाद के नाम से जानते हैं. आज भी दक्षिण छत्तीसगढ़ का हिस्सा बस्तर संभाग नक्सलवाद की गिरफ्त में है, ठीक इसी तरह कभी सूबे का उत्तरी हिस्सा यानी की सरगुजा संभाग भी घोर नक्सल प्रभावित हुआ करता था, लेकिन अब उत्तर छत्तीसगढ़ में अमन बहाल है. सरगुजा में अब लाल आतंक से कोई नहीं डरता, लेकिन अब भी बलरामपुर जिले के सीमावर्ती इलाके में नक्सली गतिविधियां होती रहती हैं. जिले की सामरी विधानसभा का सबाग, चुनचुना, पुंदाग ये कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां अक्सर नक्सल घटनाएं होती हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता राजेश सिंह सिसोदिया से खास बातचीत
गौरतलब है कि उत्तर छत्तीसगढ़ सरगुजा संभाग को कहा जाता है. जिसमें सरगुजा, सूरजपुर, बलरामपुर, जशपुर और कोरिया जिले शामिल हैं. ये सभी कभी घोर नक्सल प्रभावित हुआ करते थे, सिर्फ बलरामपुर जिले के सीमावर्ती क्षेत्रों में ही नक्सलियों की आमद देखी जाती है. बीते वर्षों में बलरामपुर जिलें में पुलिस की कार्रवाई बताती हैं. नक्सली अपने पैर जमाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. फरवरी 2021 में बलरामपुर पुलिस के समक्ष पूर्व नक्सली एरिया कमांडर सीताराम घसिया ने सरेंडर किया था, यह पुलिस पार्टी पर हमले के आरोप में 2006 से फरार था.

वहीं बलरामपुर पुलिस ने 10 मार्च 2021 को पूर्व नक्सली जोनल कमांडर प्रवीण खेस को भी गिरफ्तार किया था. 26 मई को बरियों के पास एक ढाबे से अनिल यादव व उनके साथी होटल संचालक रविंद्र शर्मा को गिरफ्तार किया. इसी के साथ बलरामपुर जिले में ही 21 दिसंबर को पुलिस ने 7 पीस आईईडी बरामद किया था. नए साल में किसी बड़ी घटना को अंजाम देने की साजिश नक्सलियों ने की थी, लेकिन पुलिस व सीआरपीएफ के ज्वाइंट ऑपरेशन में 3 दिन की सर्चिंग में आईईडी बरामद कर नक्सलियों के मंसूबों पर पानी फेर दिया था.

सरगुजा में नक्सलवाद की शुरुआत और वर्तमान में इसकी स्थिति पर हमने चर्चा की. नक्सल मामलों के जानकार सामाजिक कार्यकर्ता राजेश सिंह सिसोदिया से...इस बातचीत में एक अहम बात सामने आई कि आज सरगुजा में नक्सली बैकफुट में हैं तो उसका कारण नक्सलियों के पास अपने पैर जमाने के लिये मुद्दे नही हैं.

यह भी पढ़ें: suspended IPS GP Singh on police remand: जीपी सिंह को 18 जनवरी तक पुलिस रिमांड, पेशी के दौरान बोले जीपी मुझे फंसाया गया

सवाल: सरगुजा में नक्सल वाद कैसे पनपा, वो समय कितना भयावह था और किस तरह की गतिविधियां यहां होती थीं ?

जवाब: सरगुजा में नक्सलवाद का दो दौर रहा. एक दौर 1960 का था, उस समय यहां चारू मजूमदार आते थे. बतौली के पास सेदम गांव में नवरंग अग्रवाल थे जो कम्युनिस्ट विचारधारा के थे उनके पास आते थे. उस समय इनका जो मेंडेट था वो था जमीदार मुक्त. उस समय ये जमीदारों को टारगेट करते थे, भू सुधार इनका मुख्य एजेंडा हुआ करता था तो उस समय जब ये लोग आगे आकर लाठी डंडे से लैस रहते थे. उस समय बंदूक का चलन था ही नहीं, चार लोग लाठी डंडा लेकर जमींदार को घेरते थे और जमींदार को बोलते थे की इनको जमीन दो और जमीन का सामान वितरण हो. इनकी ये प्रमुख मांग रहती थी. इस मांग के कारण ये लोग काफी लोकप्रिय हुए, क्योंकि एक गांव में एक जमींदार होता था. बाकी सब भूमिहीन हो गये. 1970 तक चला तब तक पश्चिम बंगाल और कई राज्यों ने इस पर थोड़ा काबू पाया. फिर भूमि सुधार आया. आचार्य विनोबा भावे आये भू दान आंदोलन चला तो इस तरह से ये चीज नीचे गई.

फिर दूसरा दौर हमने देखा 1998 में जब हम लोग मध्यप्रदेश का हिस्सा थे. तब झारखंड सीमा से बलरामपुर जिले से इन लोगों का प्रवेश हुआ. उस समय 1998 से 2008 तक बहुत मजबूती से थे, पुराने वाले ग्रुप में वो लोग नक्सल बाड़ी से आये थे तो नक्सली कहलाये. इस बार ये लोग थोड़ा अलग तैयारी से आए थे. 20 साल का अंतराल था. इतने दिनों में मुद्दे भी बदलते हैं, टारगेट भी बदलते हैं, शोषक भी बदलते हैं शोषित भी बदलते हैं, नए सिनेरियो में जब ये लोग आए तो एमसीसी, माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर, पीपुल्स ओर ग्रुप, लुरिक्स सेना, टीपीसी, अली सेना इस तरह के 5-7 ग्रुप से थे.

उत्तर छत्तीसगढ़ में सिर्फ 2 लोग ही घुस पाये टीपीसी ने प्रयास किया था, लेकिन यहां की पुलिस ने इसकी अनुमति नहीं दी. टीपीसी झारखंड में पुलिस बैक ऑपरेशन करती है जैसे यहां सलवा जुडूम था, ये लोग जब दोबारा यहां आए तो इनके निशाने पर ठेकेदार होते थे और गांव में जो बड़े किसान होते थे. जिनकी शिकायतें होती थी. वो लोग इनके निशाने पर होते थे.

कोई भी ऐसा परिवर्तन कह लीजिए या त्रासदी कह लीजिए, इसका शिकार गरीब होता है. किसी भी त्रासदी को आप देख लीजिए उसका शिकार गरीब होता है. ये ऐसी त्रासदी थी त्रासदी कहें इसे या समस्या कहें या किसी के लिए वरदान भी हो सकती है. खासकर गरीबों के लिए तो वरदान ही था, गरीबों ने देखा की ये तो हमारी बात हो रही है. इस व्यवस्था में हमारी बात अहम है तो गरीबों का समर्थन इनके पीछे रहा है, लेकिन फिर गरीबों ने देखा की ये लोग ठेकेदारों से पैसा लेकर किनारे हो जा रहे हैं. हमारी सुनी नहीं जा रही है,. धीरे धीरे सरकार ने भी अधोसंरचना के काम किये तो इनके पैर उखड़े. इधर पुलिस ने भी काम किया. उस समय बलरामपुर में पुलिस अधिकारी हुये एसआरपी कल्लूरी उनके कारण भी इन्हें पीछे भागना पड़ा.

सवाल : पुलिस की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही ?

जवाब: पुलिस की भूमिका सरगुजा में ही नहीं जितने इस तरह के द्वंद वाले क्षेत्र हैं. वहां पर पुलिस की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती ही है, क्योंकि पुलिस लॉ इंफोर्समेंट एजेंसी होती है तो जब भी इस तरह के नॉन स्टेट एक्टर्स आते हैं. चाहे नक्सली हो या काश्मीर के आतंकवादी, हर जगह पुलिस ही मुख्य भूमिका में होती है, लेकिन उस समय के पुलिस अधिकारी पर निर्भर करता है कि वो करना क्या चाहते हैं.



सवाल : वर्तमान में सरगुजा में क्या स्थिति है. नक्सलवाद समाप्त हो चुका है या आप किस क्षेत्र को प्रभावित मानते हैं?

जवाब : नक्सलियों के पैर उखड़े यहां से 13-14 साल हो गये, इतने वर्षों में पहले के मुद्दे अलग थे. आज के मुद्दे अलग हो गये. उस समय बाजार इतना हावी नहीं था. आज बाजार गांव तक पहुंच गया है. उनके पास मुद्दों का आभाव है. मुद्दों का आभाव या मुद्दों की अस्पष्टता है. इसके कारण वो आते तो हैं, लेकिन ड्रेस में नही आते. अपने जो पुराने कैडर्स हैं उनसे मिलकर चले जाते हैं. आमद रफत बनी हुई है वो अपने नेटवर्क को मजबूत करने में लगे हैं, लेकिन मुद्दों की अस्पष्टता के कारण वो जम नहीं पा रहे हैं. आज ठेकेदार भी उस तरह के नही हैं. आज डेवलप्ड है.

सरगुजा: सरल-सहज लोगों से भरा हुआ, लोक संस्कृति और प्रकृति का अनुपम केंद्र छत्तीसगढ़ "लाल आतंक" के नाम पर भयाक्रांत भी पैदा करता है. इस प्रदेश की नैसर्गिक सुंदरता यहां रहने वाले या इस प्रदेश को करीब से जानने वाले ही समझते हैं. वरना दूर बैठे अन्य प्रांतों या देशों के लोग इसे नक्सलवाद के नाम से जानते हैं. आज भी दक्षिण छत्तीसगढ़ का हिस्सा बस्तर संभाग नक्सलवाद की गिरफ्त में है, ठीक इसी तरह कभी सूबे का उत्तरी हिस्सा यानी की सरगुजा संभाग भी घोर नक्सल प्रभावित हुआ करता था, लेकिन अब उत्तर छत्तीसगढ़ में अमन बहाल है. सरगुजा में अब लाल आतंक से कोई नहीं डरता, लेकिन अब भी बलरामपुर जिले के सीमावर्ती इलाके में नक्सली गतिविधियां होती रहती हैं. जिले की सामरी विधानसभा का सबाग, चुनचुना, पुंदाग ये कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां अक्सर नक्सल घटनाएं होती हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता राजेश सिंह सिसोदिया से खास बातचीत
गौरतलब है कि उत्तर छत्तीसगढ़ सरगुजा संभाग को कहा जाता है. जिसमें सरगुजा, सूरजपुर, बलरामपुर, जशपुर और कोरिया जिले शामिल हैं. ये सभी कभी घोर नक्सल प्रभावित हुआ करते थे, सिर्फ बलरामपुर जिले के सीमावर्ती क्षेत्रों में ही नक्सलियों की आमद देखी जाती है. बीते वर्षों में बलरामपुर जिलें में पुलिस की कार्रवाई बताती हैं. नक्सली अपने पैर जमाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. फरवरी 2021 में बलरामपुर पुलिस के समक्ष पूर्व नक्सली एरिया कमांडर सीताराम घसिया ने सरेंडर किया था, यह पुलिस पार्टी पर हमले के आरोप में 2006 से फरार था.

वहीं बलरामपुर पुलिस ने 10 मार्च 2021 को पूर्व नक्सली जोनल कमांडर प्रवीण खेस को भी गिरफ्तार किया था. 26 मई को बरियों के पास एक ढाबे से अनिल यादव व उनके साथी होटल संचालक रविंद्र शर्मा को गिरफ्तार किया. इसी के साथ बलरामपुर जिले में ही 21 दिसंबर को पुलिस ने 7 पीस आईईडी बरामद किया था. नए साल में किसी बड़ी घटना को अंजाम देने की साजिश नक्सलियों ने की थी, लेकिन पुलिस व सीआरपीएफ के ज्वाइंट ऑपरेशन में 3 दिन की सर्चिंग में आईईडी बरामद कर नक्सलियों के मंसूबों पर पानी फेर दिया था.

सरगुजा में नक्सलवाद की शुरुआत और वर्तमान में इसकी स्थिति पर हमने चर्चा की. नक्सल मामलों के जानकार सामाजिक कार्यकर्ता राजेश सिंह सिसोदिया से...इस बातचीत में एक अहम बात सामने आई कि आज सरगुजा में नक्सली बैकफुट में हैं तो उसका कारण नक्सलियों के पास अपने पैर जमाने के लिये मुद्दे नही हैं.

यह भी पढ़ें: suspended IPS GP Singh on police remand: जीपी सिंह को 18 जनवरी तक पुलिस रिमांड, पेशी के दौरान बोले जीपी मुझे फंसाया गया

सवाल: सरगुजा में नक्सल वाद कैसे पनपा, वो समय कितना भयावह था और किस तरह की गतिविधियां यहां होती थीं ?

जवाब: सरगुजा में नक्सलवाद का दो दौर रहा. एक दौर 1960 का था, उस समय यहां चारू मजूमदार आते थे. बतौली के पास सेदम गांव में नवरंग अग्रवाल थे जो कम्युनिस्ट विचारधारा के थे उनके पास आते थे. उस समय इनका जो मेंडेट था वो था जमीदार मुक्त. उस समय ये जमीदारों को टारगेट करते थे, भू सुधार इनका मुख्य एजेंडा हुआ करता था तो उस समय जब ये लोग आगे आकर लाठी डंडे से लैस रहते थे. उस समय बंदूक का चलन था ही नहीं, चार लोग लाठी डंडा लेकर जमींदार को घेरते थे और जमींदार को बोलते थे की इनको जमीन दो और जमीन का सामान वितरण हो. इनकी ये प्रमुख मांग रहती थी. इस मांग के कारण ये लोग काफी लोकप्रिय हुए, क्योंकि एक गांव में एक जमींदार होता था. बाकी सब भूमिहीन हो गये. 1970 तक चला तब तक पश्चिम बंगाल और कई राज्यों ने इस पर थोड़ा काबू पाया. फिर भूमि सुधार आया. आचार्य विनोबा भावे आये भू दान आंदोलन चला तो इस तरह से ये चीज नीचे गई.

फिर दूसरा दौर हमने देखा 1998 में जब हम लोग मध्यप्रदेश का हिस्सा थे. तब झारखंड सीमा से बलरामपुर जिले से इन लोगों का प्रवेश हुआ. उस समय 1998 से 2008 तक बहुत मजबूती से थे, पुराने वाले ग्रुप में वो लोग नक्सल बाड़ी से आये थे तो नक्सली कहलाये. इस बार ये लोग थोड़ा अलग तैयारी से आए थे. 20 साल का अंतराल था. इतने दिनों में मुद्दे भी बदलते हैं, टारगेट भी बदलते हैं, शोषक भी बदलते हैं शोषित भी बदलते हैं, नए सिनेरियो में जब ये लोग आए तो एमसीसी, माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर, पीपुल्स ओर ग्रुप, लुरिक्स सेना, टीपीसी, अली सेना इस तरह के 5-7 ग्रुप से थे.

उत्तर छत्तीसगढ़ में सिर्फ 2 लोग ही घुस पाये टीपीसी ने प्रयास किया था, लेकिन यहां की पुलिस ने इसकी अनुमति नहीं दी. टीपीसी झारखंड में पुलिस बैक ऑपरेशन करती है जैसे यहां सलवा जुडूम था, ये लोग जब दोबारा यहां आए तो इनके निशाने पर ठेकेदार होते थे और गांव में जो बड़े किसान होते थे. जिनकी शिकायतें होती थी. वो लोग इनके निशाने पर होते थे.

कोई भी ऐसा परिवर्तन कह लीजिए या त्रासदी कह लीजिए, इसका शिकार गरीब होता है. किसी भी त्रासदी को आप देख लीजिए उसका शिकार गरीब होता है. ये ऐसी त्रासदी थी त्रासदी कहें इसे या समस्या कहें या किसी के लिए वरदान भी हो सकती है. खासकर गरीबों के लिए तो वरदान ही था, गरीबों ने देखा की ये तो हमारी बात हो रही है. इस व्यवस्था में हमारी बात अहम है तो गरीबों का समर्थन इनके पीछे रहा है, लेकिन फिर गरीबों ने देखा की ये लोग ठेकेदारों से पैसा लेकर किनारे हो जा रहे हैं. हमारी सुनी नहीं जा रही है,. धीरे धीरे सरकार ने भी अधोसंरचना के काम किये तो इनके पैर उखड़े. इधर पुलिस ने भी काम किया. उस समय बलरामपुर में पुलिस अधिकारी हुये एसआरपी कल्लूरी उनके कारण भी इन्हें पीछे भागना पड़ा.

सवाल : पुलिस की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही ?

जवाब: पुलिस की भूमिका सरगुजा में ही नहीं जितने इस तरह के द्वंद वाले क्षेत्र हैं. वहां पर पुलिस की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती ही है, क्योंकि पुलिस लॉ इंफोर्समेंट एजेंसी होती है तो जब भी इस तरह के नॉन स्टेट एक्टर्स आते हैं. चाहे नक्सली हो या काश्मीर के आतंकवादी, हर जगह पुलिस ही मुख्य भूमिका में होती है, लेकिन उस समय के पुलिस अधिकारी पर निर्भर करता है कि वो करना क्या चाहते हैं.



सवाल : वर्तमान में सरगुजा में क्या स्थिति है. नक्सलवाद समाप्त हो चुका है या आप किस क्षेत्र को प्रभावित मानते हैं?

जवाब : नक्सलियों के पैर उखड़े यहां से 13-14 साल हो गये, इतने वर्षों में पहले के मुद्दे अलग थे. आज के मुद्दे अलग हो गये. उस समय बाजार इतना हावी नहीं था. आज बाजार गांव तक पहुंच गया है. उनके पास मुद्दों का आभाव है. मुद्दों का आभाव या मुद्दों की अस्पष्टता है. इसके कारण वो आते तो हैं, लेकिन ड्रेस में नही आते. अपने जो पुराने कैडर्स हैं उनसे मिलकर चले जाते हैं. आमद रफत बनी हुई है वो अपने नेटवर्क को मजबूत करने में लगे हैं, लेकिन मुद्दों की अस्पष्टता के कारण वो जम नहीं पा रहे हैं. आज ठेकेदार भी उस तरह के नही हैं. आज डेवलप्ड है.

Last Updated : Jul 25, 2023, 8:01 AM IST
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