सरगुजा : घनघोर वनों से घिरे सरगुज़ा में कई अद्भुत संजोग मिलते हैं. यहां एक शिक्षक ने ऐसी धरोहरों को संजोया है जिनका इतिहास अद्भुत है. ऐसे पारंपरिक वाद्य यंत्र संरक्षित किये हैं, जो विलुप्त हो चुके थे. इन वाद्य यंत्रों के उपयोग बड़े विचित्र हैं. पुराने समय मे जंगली जानवरों को भगाने या बुलाने में बाजे का इस्तेमाल किया जाता था. इन्हें सूरजपुर जिले के सौंतार गांव में रखा गया है. 48 वर्ष के हेमंत आयाम ने 150 साल पुराने वाद्य यंत्रों को संजोकर रखा है.
ढोंक बाजे की खासियत: एक ढोंक बाजा हुआ करता था. जिसको बजाकर शेर को भगा दिया जाता था. झुमका बाजा जिसको शिकारी बाजा भी कहते हैं. उसको बजाकर शेर को बुला लिया जाता था. बताया जाता है कि, डंफा बाजे कि आवाज से देवी मां खुश होती हैं. इसलिए कुदरगढ़ के पहाड़ों में विराजी बागेश्वरी माता को इससे प्रसन्न किया जाता था. अब यह प्राकृतिक धरोहर या विलुप्त हो चुकी है या कुछ विलुप्ति की कगार पर हैं. बहुत ज्यादा जरूरत है कि इनका संरक्षण किया जाये, तकि आने वाली पीढियों को यह पता चले की हमारे पूर्वज कैसे रहते थे. यहां के वाद्य यंत्रों को देखकर ऐसा लगता है जैसे अंग्रेजी बैंड बाजा इन्ही को देखकर बनाए गए हैं.
70 वाद्य यंत्रों का संग्रह मौजूद: अभी 70 वाद्य यंत्रों का संग्रह अलग-अलग रूप में है. कुछ की आवाज, कुछ के फोटोग्राफ, कुछ जर्जर वाद्य यंत्रों को भी संरक्षित किया गया है. 20 के आसपास ऐसे वाद्य यंत्र हैं जो बिल्कुल विलुप्त हो चुके हैं. उनको भी किसी ना किसी रूप में संग्रह करके रखा गया है. आज तक आपने सुना होगा कि वाद्य यंत्र मुंह से, हाथ से, नाक से भी बजाए जाते हैं. लेकिन सरगुजा का एक वाद्य यंत्र पेट से बजाया जाता था. इसका नाम है ढोंप. जिसे पेट और हाथ दोनों से बजाया जाता है. पेट से बेस की आवाज और हाथ से बजाने पर झंकार की आवाज निकलती है.अजय चतुर्वेदी कहते हैं कि, "आधुनिक वाद्य यंत्र आ गये हैं. लेकिन अपने पूर्वजों की निशानी को भी नहीं भूलना चाहिए. मैं शासन और सरकार से यही मांग करूंगा की इनके संरक्षण के लिए ध्यान दिया जाए. एक संग्रहालय बनाकर इन्हें संरक्षित किया जाए."