रायपुर: Rice starch carry bag in Chhattisgarh देश में प्रदूषण सबसे बड़ी समस्या है. इस समस्या को देखते हुए केंद्र सरकार ने सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन लगा दिया. इसके बदले कपड़े से बने थैले का उपयोग करने पर जोर दिया जा रहा है. अब इसके तहत इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर के वैज्ञानिक चावल के स्टार्च से बायोडिग्रेडेबल कैरी बैग बनाने जा रहे हैं. खास बात यह है कि इस्तेमाल के बाद अगर इसे मिट्टी में गाड़ दिया जाए तो यह स्टार्च वाला बैग खाद में तब्दील हो जाएगा. जो पर्यावरण अनुकूल होगा और लोगों की सेहत पर भी इसका असर नहीं पड़ेगा फिलहाल इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर के सांइटिस्ट ने इसे ईजाद करना शुरू कर दिया है. हालांकि अभी 10 से 15 फीसदी काम ही पूरा हो पाया है. ईटीवी भारत ने विश्वविद्यालय के सांइटिस्ट डॉक्टर शुभा बनर्जी से खास बात की. आइए जानते हैं किस कैरी बैग बनाने की तैयारी चल रही है. Indira Gandhi Agricultural University
सवाल: स्टार्च से कैरी बैग बनाने की क्या प्रक्रिया है, कैसी तैयारी चल रही है.
जवाब: चावल में बहुत सारा स्टार्च होता है. हम चावल से प्रोटीन निकालने का पहले काम कर रहे थे. उसके लिए हमने एक तकनीक डेवलप की थी. इसमें स्टार्च अपने आप ही मिलता है. क्योंकि चावल में जो स्टार्च होता है. जिसे हम माड़ के रूप में जानते हैं. पहले भी लोग इसका उपयोग करते रहे हैं, लेकिन हम हाई क्वालिटी का स्टार्च निकाल रहे हैं. चावल जो स्टार्च निकलता है उसका बायो एथेनॉल में उपयोग होता है. कुछ लोग इस स्टार्च से फूड प्रोडक्ट का उपयोग करते हैं. हम लोगों ने उसमें एक प्रयोग करके देखा. क्या चावल से निकले स्टार्च को हम बायोप्लास्टिक में बदल सकते हैं, जो बायोडिग्रेडेबल, एनवायरमेंट फ्रेंडली होने के साथ साथ अपने आप डिग्रेड हो जाए.
क्योंकि वर्तमान में जो बायोप्लास्टिक आते हैं. उसमें केमिकल मिले होते हैं. डिग्रेड होने के बाद भी वह पर्यावरण को थोड़ा नुकसान करते हैं. यह पीएलए जैसा एक केमिकल है. हमारा जो ऑब्जेक्टिव है. इस रिसर्च के पीछे, तो क्या हम बिना पीएलए के बायोप्लास्टिक बना सकते हैं. इसके लिए हमने एक तकनीक बनाई है. चावल से स्टार्च निकालने की. जिसको पेटेंट कराने के लिए भी दे दिया है. हमारी उस तकनीक को देखेंगे तो हम स्टार्च तो आसानी से निकाल लिए हैं. लेकिन अगर हम उसको बायोप्लास्टिक में कन्वर्ट करना चाहते हैं तो हमारे पास अभी उस तरह की मशीनें नहीं है. हम एकदम नए कांसेप्ट में काम कर रहे हैं. जिस पर कोई भी केमिकल उपयोग नहीं करना चाहते. इसमें नेचुरल कॉटन फाइबर, जूट के फाइबर और मशरूम का जो फंगस होता है उसका उपयोग करके हम इसे बायो प्लास्टिक में कन्वर्ट करने की सोच रहें हैं. ताकि जब यह डिग्रेड हो तो पूरी तरह से कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन में टूट जाए. मतलब यह पूरी तरह से मिट्टी में मिल जाए और कोई भी रेसीडुएल इफेक्ट ना हो.Rice starch biodegradable carry bag
सवाल: इस तरह का पहले क्या कोई काम हुआ है?
जवाब: भारत मे इस तरह का तीन चार जगह काम किया जा रहा है. वर्ल्ड में भी कई जगहों पर काम हो रहा है. क्योंकि बायोप्लास्टिक एक बड़ा टॉपिक है. लेकिन ज्यादातर लोग पीएलए या इस तरह के केमिकल का उपयोग करते हैं. जो पॉलिमराइजिंग का काम करता है. मतलब जोड़ के रखता है. हम लोग जिस तरह से काम कर रहे हैं. उसमें मशरूम के फंगस का उपयोग कर रहे हैं. यह भारत में अपनी तरह का अनूठा और पहला प्रयोग है. बीएआरसी (बार्क) में हमने बात की थी कि इस तरह की तकनीक के लिए हमें कोई सहायता मिल सकती है क्या. उनके पास भी जो टेक्निक है. वह यह नहीं है. यह अपनी तरह की पहली टेक्निक इंडिया में हो रही है.
सवाल: मतलब बार्क से कोई अनुबंध हुआ है क्या?
जवाब: रिसर्च में अभी हमने ऐसा कोई अनुबंध किया नहीं है. हम उस तकनीक का उपयोग नहीं करना चाहते. वह टेक्निक डेवलप्ड है. उस तकनीक से हम चाहे तो कल ही यह बना सकते हैं. लेकिन उसमें केमिकल डला हुआ है. हम एक नया मेथड डेवलप करना चाहते हैं. जिसमें केमिकल ना डालें.
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सवाल: आप लोगों की रिसर्च कहां तक पहुंची है?
जवाब: रिसर्च करने में बहुत समय लगता है, लेकिन हमने एक प्रोटोटाइप डेवलप कर लिया है. प्लास्टिक का कॉटन और फाइबर के साथ फंगस भी डेवलप कर लिया है. लेकिन पूरी तरह से टेक्निक हमारे पास है नहीं. मुश्किल से 10 से 15 फीसदी काम हुआ है. क्योंकि मेन जो काम है वह लैब में छोटे स्तर पर टेक्निक डिवेलप करना होता है. उसके बाद बड़े स्तर पर वह लागू होगी या नहीं यह देखना होता है. जिसको हम स्केलअप बोलते हैं. लैब स्केल में तो हम बहुत छोटा बना सकते हैं. लेकिन हमको बड़े स्तर पर करना है. अभी हमने 15 परसेंट काम कर लिया है.
सवाल: रिसर्च पूरा होने में कितना समय लगेगा?
जवाब: अनुमान है कि यदि हमारा सब कुछ सही रहा तो हम लोग 3 साल में इसे पूरा कर लेंगे.