रायपुर: नक्सल समस्या से जूझ रहे बस्तर में धर्मांतरण की आग भी सुलग रही है. कई आदिवासी धर्म बदलकर ईसाई बन गए हैं. अब हालत ये है कि धर्मांतरण के खेल की वजह से आदिवासी एक दूसरे के दुश्मन बन गए हैं. अब धर्म बदल चुके आदिवासियों को आरक्षण के फायदे से अलग करने की मांग भी उठ रही है. इस प्रक्रिया को ही डी लिस्टिंग कहा जाता है, जिसकी मांग जनजातीय सुरक्षा मंच भी कर रहा है.
डीलिस्टिंग को लेकर बवाल क्यों: छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को इस बात की टेंशन है कि धर्म बदलकर उनके आसपास रह रहे आदिवासी माहौल खराब कर रहे हैं. वह धर्म बदलकर भी आरक्षण का लाभ ले रहे हैं. आदिवासियों की संस्कृति और परंपरा का मजाक उड़ा रहे हैं. जनजातीय सुरक्षा मंच के राष्ट्रीय संयोजक गणेश राम भगत का कहना है कि ''धर्म परिवर्तन करने वाले अब आदिवासी नहीं हैं. उन्होंने अपने पुरखों की परंपरा को छोड़ दिया है. डीलिस्टिंग की मांग एक संवैधानिक अधिकार है. एक व्यवस्था है. यह मांग देश हित में है. सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन के तहत ही हम मांग कर रहे हैं.''
ईसाई आदिवासी महासभा का ये है कहना: धर्मांतरण की वजह से अब आदिवासियों में भी संघर्ष हो रहा है. ईसाई आदिवासी महासभा प्रदेश अध्यक्ष अनिल किस्पोट्टा का कहना है कि ''आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपनाया है लेकिन सभी अपनी आदिवासी परंपरा मानते हैं. हम भी आदिवासी हैं. भारत के संविधान में सभी को अधिकार मिला है कि वह किसी भी धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र है. जनजातीय सुरक्षा मंच दोहरे आरक्षण लाभ की बात करता है, लेकिन आज तक कोई डाटा पेश नहीं किया.''
आरक्षण पर रार क्यों: दरअसल आदिवासी एक जीवन शैली और एक अलग संस्कृति है. उन्हें अनुसूचित जनजाति वर्ग में रखा गया है. धर्मांतरण से जनजातीय संस्कृति प्रभावित हुई है. वरिष्ठ पत्रकार शशांक शर्मा कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट का भी निर्देश है कि जनजातीय कोई जाति नहीं है, यह एक संस्कृति है. अगर आप उसी को मानना बंद कर देंगे तो आप ट्राइबल नहीं रहेंगे. जब आप ट्राइबल नहीं हैं तो फिर आरक्षण का लाभ क्यों मिलना चाहिए?''
क्यों उठती है डीलिस्टिंग की मांग: आरक्षण का मुख्य लाभ धर्मांतरण करने वाली एजेंसिया उठा रही हैं. उन्हें पता है कि धर्मांतरण करते रहेंगे और लाभ मिलता रहेगा. एजेंसियों पर अंकुश लगाने की जरूरत है, इसलिए डीलिस्टिंग की मांग भी समय समय पर उठती है.
डीलिस्टिंग को लेकर मतभेद: डीलिस्टिंग की मांग अब सिर्फ सियासी मुद्दा नहीं है, बल्कि जनजाति समाज के अंदर भी विरोध हो रहा है. जनजाति समाज का कहना है कि उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है. आरक्षण का फायदा उन्हें मिल रहा है, जो अच्छे स्कूलों में हैं और जो धर्म बदलकर पढ़ाई कर रहे हैं. डीलिस्टिंग के विरोध में ईसाई आदिवासी समाज खड़े हो रहा है. यह मामला और तूल पकड़ेगा. जनजातीय समाज दबाव बनाएगा तो केंद्र सरकार नियम और कानून में संशोधन कर सकती है.
क्या डीलिस्टिंग का मुद्दा चुनावी रंग दिखाएगा: वरिष्ठ पत्रकार शशांक शर्मा के मुताबिक धर्मांतरण के लालच में सुविधाएं मिलती हैं तो धर्मांतरण की गति तेज होती है. इसी बात का आज जनजाति समाज में संघर्ष है. सरगुजा और बस्तर में यह संघर्ष जारी है. धर्मांतरण और डीलिस्टिंग दोनों जुड़ा हुआ मामला है. आने वाले समय में यह दोनों ही मुद्दे तूल पकड़ेंगे और चुनावी रंग दिखाएंगे.
छत्तीसगढ़ में कितना अहम है अनुसूचित जनजाति वर्ग: छत्तीसगढ़ में 11 लोकसभा सीटें हैं. इनमें 4 सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग और 1 सीट अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं. छत्तीसगढ़ में 90 विधानसभा क्षेत्र हैं. इनमें 29 सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग और 10 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. बात की जाए ईसाई समाज की तो अंबिकापुर संभाग की 4 विधानसभा सीटों पर शत प्रतिशत ईसाई वोट बैंक का असर देखने को मिलता है. इसके अलावा बस्तर की 12 विधानसभा क्षेत्र में भी ईसाई समाज निर्णायक भूमिका में हैं.