जशपुर: रियासत काल में जनजातीय समुदाय और तात्कालीन राजाओं का आपसी सामंजस्य बेहद मजूबत था. जशपुर में दस दिनों तक चलने वाले इस महोत्सव के सभी रीति रिवाजों में समाज के सभी वर्गों की बराबर भागीदारी थी. नवरात्र के पहले दिन से लेकर रावण दहन तक के हर अनुष्ठान में समाज के हर वर्ग को जिम्मेदारी बांटी गई थी. जशपुर राजपरिवार के सदस्य आज भी 27 पीढ़ियों से इसे निभाते आ रहे हैं. इस साल भी जशपुर में इन सभी परंपराओं के साथ दशहरा का पर्व मनाया गया.
करीब हजार साल पहले से मनाया जा रहा दशहरा: जशपुर रियासत के उत्तराधिकारी राजा रणविजय सिंह जूदेव का मानना है कि हजार साल के आस पास से यहां दशहरा मनाया जाता है. उन्होंने बताया, "पहले यहां डोम राजाओं का राज हुआ करता था, जिन्हें हमारे पूर्वज राजा सुजान राय ने हराकर हजार साल पहले इस दशहरे की शुरुआत की थी. इस उत्सव में धर्म, जाति, संप्रदाय के बंधनों को पीछे छोड़ यहां के निवासी एक साथ सद्भावना पूर्वक असत्य पर सत्य की जीत के पर्व को मनाते हैं."
विश्व कल्याण के लिए किया जाता है अनुष्ठान: नवरात्र के पहले दिन से शुरू होने वाले अनुष्ठान का विशेष महत्व है. जशपुर रियासत की सत्ता को संचालित करने वाले देव बालाजी भगवान के मंदिर और काली मंदिर से अस्त्र-शस्त्रों को लाकर यहां पूजा की जाती है. राजपुरोहित पंडित विनोद मिश्रा ने बताया, यह अनुष्ठान विश्व कल्याण की प्रार्थना के साथ राज परिवार के सदस्यों, आचार्यं , बैगाओं और नागरिकों के द्वारा शुरु किया जाता है. झांकी के रूप में पक्की डाड़ी से पवित्र जल गाजे-बाजे के साथ देवी मंदिर में लाने का काम किया जाता है. जहां कलश स्थापना कर अखंड दीप प्रज्वलित की जाती है. इसी के साथ नियमित रूप से 21 आचार्य के मार्गदर्शन में राज परिवार के सदस्य सहित नगर और गांवों से आए श्रद्वालु मां दुर्गा की उपासना करते हैं.
मां काली की पूजा से शुरु होती है नवरात्रि: नवरात्र की पूजा यहां के 800 साल पहले स्थापित काली मंदिर से होती है. जहां 21 आचार्य हर दिन विश्व कल्याण के लिए अनुष्ठान करते हैं. इस मंदिर की स्थापना राज परिवार ने की थी. जिसमें मां काली के प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा आचार्य खगेश्वर मिश्रा के द्वारा की गई थी. यहां हर एक त्योहार पर नगरवासियों और जनजातियों की पूजा पद्वति में कुछ भिन्नता हैं. लेकिन दशहरा महोत्सव में बैगा, पुजारी, आचार्य सभी एक पंरपरा का पालन करते हैं.
वनदुर्गा को दिया जाता है आमंत्रण: नवरात्र के दौरान मां काली और बालाजी मंदिर में नियमित रूप से हवन, पूजन किया जाता है. षष्ठी के दिन वनदुर्गा को दशहरा के अवसर पर इस विशेष अनुष्ठान में शामिल करने के लिए आमंत्रण दिया जाता है. आमंत्रण के लिए षष्ठी के दिन शाम में विशेष झांकी निकलती है, जो देवी मंदिर से लगभग दो किलोमीटर दूर स्थिति ग्राम जुरगुम जाती है. वनदुर्गा के साथ मां काली की सेना के रूप में 64 योगिनियों को भी आमंत्रण दिया जाता है. योगिनियों के साथ वे बुरी आत्माएं आमंत्रित होती हैं, जिन्हें सतकर्म के लिए मां काली ने अपने नियंत्रण में ले लिया था. मान्यता है कि यहां पर तांत्रिक बेल का पेड़ है, जिसमें आम के पौधे भी उगे हैं. षष्ठी के दिन आमंत्रण देने के बाद वनदुर्गा को सप्तमी के दिन लेने के लिए भी आचार्य झांकी के साथ जाते हैं. यहां से सप्तमी के दिन वनदुर्गा के प्रतीक के रूप में बेल के फल को लाया जाता है. उसे देवी मंदिर में स्थापित कर पूजा की जाती है. इन सभी परंपराओं का निर्वहन इस साल भी किया गया.
धूमधाम से निकली भगवान बालाजी की सवारी: विजयादशमी के दिन हजारों श्रद्वालु बालाजी मंदिर में एकत्रित हुए और भगवान बालाजी की विशेष पूजा अर्चना की. जिसके बाद विशेष लकड़ी के बने रथ में भगवान को स्थापित किया गया. एक रथ में जहां भगवान होते हैं, वहीं दूसरे रथ में पुरोहित और राज परिवार के सदस्य होते हैं. शोभा यात्रा यहां के रणजीता स्टेडियम में पहुंची. इस स्थान को पहले रैनी डांड कहा जाता है. रणजीता मैदान में नगर के विभिन्न स्थलों से निकली मां दुर्गा की शोभा यात्रा भी पहुंचती है. यहां कृत्रिम लंका का निर्माण किया जाता है, जिसमें भव्य रावण सहित कुंभकर्ण, मेघनाथ और अहिरावण के पुतले जलाए जाते हैं. साथ ही हनुमान के द्वारा लंका दहन भी किया जाता है.
नीलकंठ पक्षी उड़ाने की परंपरा: लंका दहन के बाद अपराजिता पूजा होती है. जिसके बाद दशहरा के दिन अंतिम कार्यक्रम के रूप में रणजीता मैदान में भगवान के रथ से नीलकंठ पक्षी को उड़ाने की पंरपरा है. इस दिन नीलकंठ पक्षी को देखना शुभ माना जाता है. इसके पीछे मान्यता है कि रावण वध के समय रावण ने हनुमान को उनके वास्तवित रूप में पहचान लिया था, तब हनुमान ने शिव के नीलकंठ रूप में रावण को दर्शन दिए थे. इसके बाद ही रावण को मुक्ति मिली थी. यहां के लोगों की मान्यता है कि यदि नीलकंठ पूर्व और उत्तर की ओर उड़ता है, तो पूरे विश्व के लिए यह साल शुभ होता है. वहीं नीलकंठ यदि अन्य दिशाओं की ओर उड़ता है, तो प्राकृतिक आपदाओं सहित अन्य परेशानियों का संकेत होता है.